दालान लिट्रेचर फेस्टिवल की कहानी

अंजू की गुड़िया : एक कहानी
गर्मियाँ आते ही, मैं और मेरे तमाम, हमउम्र भाई-बहन, टाइमपास के नये-नये तरीके ढूँढते ! उन्ही में से एक खेल होता गुड्डे-गुड़िया का ! सिर्फ़ एक घर नही, पूरा मोहल्ला ही बरामदे में बसा लेते हम ! जो बरामदे से निकलता, हाँक देता- “हटाओ ये टीम-टाम!” ! गर्मी की उन लंबी दोपहरियों में, बिना पंखे के, घंटों गुड्डे-गुड़ियां खेलते रहते ! गर्मी-सर्दी का एहसास बच्चों को नही, बड़ों को होता ह !| बचपन कहाँ सर्दी-गर्मी के एहसास का मोहताज होता है?
और हां, छोटा भाई बनता, गुड़िया का नौकर ! “जाओ जाके गुड़िया को घुमा के लाओ”- उससे जान बचाने के लिए हम कहते, पर वो महाशय यूँ गये और पलक झपकते ही वापिस हाजिर ! अंजू के गोरे गुलाबी गुड्डे की शादी, मेरी सफेद बालों वाली गुड़िया (या कहें बुढ़िया से!), सिर्फ़ एक शर्त पर होती, कि दहेज में मुझे अपनी गुड़िया की पुश्तैनी, कुंडे-लगी, मरून कपड़े से मॅढी, दिग्गज अटैची, और हरी साड़ी ज़रूर देनी पड़ती; वरना शादी कैंसेल !
अंजू गुडियों के मामले में मुझ से बहुत धनी थी ! शोभना दीदी गुड़िया बनाने की कला में माहिर थी, कपड़े की ऐसी जीवंत गुड़ियाँ बनती, कि बस प्राण फूकनें की कसर रह जाती ! कभी जार्जेट के सफेद दुपट्टे काट कर, तो कभी पुरानी सिल्क साड़ियों के बॉर्डर से तैय्यार की गईं गुडियों की वो साड़ियाँ, मन को लुभाती भी, और जलाती भी ! उन्ही में से एक थी, खूबसूरत पीली साड़ी ! जार्जेट के सफेद दुपट्टे को पीले रंग में रंग कर, ऊपर से लाल छीटें मार कर बनी वो साड़ी ! साड़ी क्या थी, आँखों की किरकिरी! कई बार अंजू की मनुहार करती, आपसी विनिमय से बात बनाने की कोशिश करती, कि किसी तरह वह साड़ी मुझे दे दे, मगर सब बेकार !
गाँव में भागवत होना तय हुआ था ! ताई के साथ, अंजू, प्रीति और मैं भी गाँव गई ! हम जब भी गाँव जाते, दो ही चीज़ों का सहारा होता- गुड्डे-गुड़ियाँ, और गाँव में रखी ढेरों पॉकेट बुक्स, जिसमें होती राजा-रानी, और परियों की मन को बाँध लेने वाली कहानियाँ !
सावन का महीना था, भागवत की आरती के बोल, सुबह-शाम माहौल को गुंजायमान करते, पर मेरा मन आरती में नही, गुड़िया की उस साड़ी के पल्लू में बँधा पड़ा रहत|!| देखते ही देखते, हफ़्ता निकल गया; शाम को हम सब शहर वापिस आने वाले थे ! धीमी-धीमी पानी की फुहारें पड़ रहीं थी ! दोपहर में यूँ भी उस बड़ी दो-मंज़िली हवेली में, सूना हो जाया करता, नौकर-चाकर भी ना होते उस समय; अजीब-सा सन्नाटा तना रहता ! मैने चुपचाप गुड़िया के सामान से साड़ी निकाल ली थी, दबे पाँव सीढ़ी चढ़कर, गोल कमरे को पार कर, पीछे की बाउंड्री से झाँक कर देखा- गढ़ी चढ़ने का रास्ता साफ दिखाई दे रहा था ! मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा ! गला सूखने लगा ! पानी तेज हो गया था, मैनें देर नहीं की ! साड़ी को मुट्ठी में दबा कर, ज़ोर-से झटका दिया और नीचे फेक दिया ! ये क्या, वह तो झाड़ी में ही अटक गई थी ! गीले मन और आँखों से आखरी बार साड़ी को जी-भर के देखा ! झाड़ी के उपर खुल के बिखरी हुई कितनी सुंदर लग रही थी! चुप-चाप सीढ़ी से नीचे उतर आई थी मैं, पर अंजू को तो पता चलना ही था, सो चल गया ! बहुत ढूँढा, रोई भी बेचारी, मगर साड़ी होती तो मिलती? “जल्दी चलो! वापिस नही जाना क्या?” ताई चिल्ला रहीं थी, गाड़ी तैय्यार थी; अंजू को दिलासा दे कर, मैं तेज़ी से गोल कमरे की सीढ़ियाँ चढने लगी ! बाउंड्री से झाँक कर नीचे देखा, साड़ी अभी भी हवा में लहरा रही थी ! मगर यह क्या? रंग कहाँ गये इसके सारे? पानी से साड़ी बदरंग हो चुकी थी ! बरसात के पानी ने, ना लाल रंग को छोड़ा, ना पीले को ! गाड़ी में बैठ गई थी मैं- ना बरसात थमने का नाम ले रही थी, ना ही आँसू !


~ श्रीमती रत्ना सिंह , एमए ( अंग्रेज़ी साहित्य एवं साइकोलोजी ) , स्कूल एवं कॉलेज में पढ़ाने का अनुभव – दालान की प्रशंसक !


दालान लिटरेचर फेस्टिवल सावन – 2015 के दौरान प्रकाशित मौलिक कहानी ।

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