छठ पर गोवा की पूर्व राज्यपाल मृदुला सिन्हा जी का एक लेख …

अक्सर पिछले छह दशकों की वीथियों में घूम ही आती हूं। उन स्मृतियों में सब हैं, दादा-दादी, मां-पिताजी, भाई-बहन और ढेर सारे चाचा-चाचियां और सेवक-सेविकाएं। उन्हीं रिश्तों के बीच होली-दिवाली, दुर्गा पूजा, चौथचंदा, सरस्वती पूजा और व्रत-त्योहार। सबसे ऊपर रहती है छठ पर्व की स्मृति। कितना सुहाना, कितनी आस्था। दादी द्वारा कितने सारे निषेध। चार दिनों की पूजा होती थी। तैयारी तो दुर्गा पूजा के समाप्त होते ही प्रारंभ हो जाती थी। सबसे पहले बांस का डाला और डगरा तथा सूप खरीदे जाते थे। ज्यों-ज्यों दिवाली नजदीक आती, हम बच्चों का उत्साह बढ़ता जाता। दिवाली के बाद एक-एक दिन की गिनती। हम दादी को तंग करते, ‘कब होगी छठ पूजा?’ छह दिन, छह वर्ष की भांति बीतते। ढेर सारे फल। नारियल, केला, नारंगी के साथ मूली, ओल, ईख, और भी बहुत कुछ।

नए कपड़े। घर, आंगन, दरवाजा गोबर से लिपा हुआ। पूजा के लिए डाला पुरुष के सिर पर रखकर एक किलोमीटर जाना पड़ता। गंडक नदी में सामूहिक पूजा। पश्चिम दिशा में मुंह कर पानी में खड़ी महिलाएं, थोड़े से पुरुष भी, डूबते सूर्य की पूजा करते। आकाश में सूर्य का गोला लाल हो जाता। पकवान (ठेकुआ और कसार) व फलों से भरे सूप उठा-उठाकर सूर्य को व्रतीजन अर्घ्य देते। दो, चार, पांच, छह से लेकर किसी-किसी परिवार का 21-25 सूप भी होते। बांस का डाला, बांस का सूप। पकवान बनाने में शुद्धता और पवित्रता पर विशेष ध्यान होता। एक बार मेरे नन्हे पांव डाला में लग गए थे। दादी ने मेरे पांव में चपत लगाई। सूर्यदेव से माफी मांगी। 48 घंटे का उपवास (निर्जला) करती थी दादी। नहा-खा, खरना, संझिया अर्घ्य, भोरवा अर्घ्य। चार दिनों का व्रत। दूसरे दिन प्रात:काल सूर्य उगने से पूर्व नहा-धोकर घाट पर अंधेरे में ही सिर पर डाला के दीए की रोशनी के सहारे सारा गांव नदी किनारे इकट्ठा हो जाता। व्रतीजन पूरब मुंह पानी में खड़े होकर सूर्य के लाल चक्के की प्रतीक्षा करते। सूर्य के उगने पर पुन: एक-एक सूप उठा-उठाकर अर्घ्य देते। सूप पर थोड़ा-थोड़ा दूध भी डाला जाता। घाट पर ही दादी प्रसाद बांटना प्रारंभ करतीं।

घाट पर मांगने वाले भी बहुत होते थे। प्रसाद मांग कर खाना भी और प्रसाद बांटना भी धर्म का कार्य ही माना जाता था। दादी जब घर लौटतीं, मां-चाची उनके पांव धोतीं, उन्हें भोजन करातीं और उनके लेटने पर उनके पांव दबातीं। मान्यता थी कि व्रती औरतों की सेवा करने पर पुण्य मिलता है और हृदय से आशीर्वाद भी। दादी कभी-कभी गिनती करातीं कि उनके परिवार और संबंधों में कौन-कौन बच्चा उनके द्वारा छठ पूजा करते हुए सूर्यदेव से मांगा हुआ है। मैंने एक बार शिकायत की, ‘दादी आप तो केवल बेटा मांगती थीं।’
मंगल चाचा बोल पड़े- ‘तुम भी सूर्यदेव की मांगी हुई हो।’ दादी ने सिर हिलाया।

दादी के गीत की एक पंक्ति थी- अन्न, धन, लक्ष्मी हे दीनानाथ अहंईं के देल। (हे दीनानाथ! अन्न, धन, लक्ष्मी आप ही का दिया हुआ है।) बाबूजी इस पंक्ति के द्वारा मुझे सूर्य की महिमा समझाते थे।
समय बदला, नदी का पानी सूख गया, लोग अपने आंगन में और कुएं पर गड्ढा खोदकर पानी भरकर छठ करने लगे। फिर वह आनंद नहीं आता था, जो नदी में एक साथ सैकड़ों महिलाओं-पुरुषों को देखकर आता था। मुझे भी गांव छोड़ना पड़ा। मैं दिल्ली आ गई। दिल्ली में बिहार के कुछ लोग मिलने आते थे। मैं उनसे पूछती थी कि यहां छठ होता है या नहीं। उन्होंने बताया कि सब गांव (बिहार) चले जाते हैं। मैंने भी सोचा कि मैं भी गांव चली जाऊंगी। बिहार के कई लोग मिलने आते थे। उनमें से एक ने कहा, ‘आप कहें, तो हम यमुना किनारे व्रत शुरू करें!’ मैंने कहा, ‘अवश्य शुरू करें। मुझे भी छठ के गीत गाने आते हैं।’ 1978 से यमुना किनारे छठ मनाई गई। केवल 20-30 लोग थे। दो परिवारों ने व्रत किया। घाट पर जंगल ही जंगल था। महाराष्ट्र का गणपति, गुजरात का गरवा, पंजाब का वैशाखी, उत्तर-पूर्व का बिहू, केरल का ओणम, बंगाल का दुर्गा पूजा, सभी त्योहार देशभर में झमकने लगे थे। बिहार में छठ पूजा युगों-युगों से होती थी। बिहारियों का कदम दिल्ली की ओर बढ़ रहा है। यहां भी छठ को झमकाना चाहिए। धीरे-धीरे बात जमने लगी। कुछ संगठन इसके लिए काम करने लगे। उन्होंने घाट की सफाई, डगरा, सूप, दौरा सहित बहुत-सा सामान दिल्ली मंगवाना शुरू किया। धीरे-धीरे दिल्ली, मुंबई, जहां-जहां बिहारी गए, वहां-वहां उन्होंने छठ पर्व को झमका दिया। इससे अन्य राज्यों के लोगों को भी सूर्य पूजा की जानकरी हो गई।

दो महीने पहले मैं गोवा आई। पता चला कि यहां भी बिहार के लोग कम नहीं हैं। गोवा में कुछ लोग मिलने आए। वे छठ के लिए बिहार नहीं जाते हैं। पूछने पर पता चला कि कुछ लोग सागर बीच पर और कुछ लोग नदी में भी व्रत करते हैं। गोवा के राजभवन के किनारे खड़ी होकर प्रतिदिन मैं सूरज को समुद्र में डूबते देखती हूं। समुद्र और सूरज का गहरा संबंध है। मिथक कथा के अनुसार सूर्यवंशी सगर के सौ पुत्रों ने सागर की खुदाई की थी। त्रेता युग में सूर्यवंशी राम ने लंका जाने के लिए पुल बनाते समय जब सागर को ललकारा था- विनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब भय बिनु होई न प्रीति॥ सागर प्रकट हुआ। राम को उनका वंशज होने का स्मरण ही नहीं दिलाया, पुल बनाने का गुर भी बताया। सागर सामने पसरा है। उसे देखकर मन में यह विचार आता है कि कठौता भर ही जल क्यों न हो, जल में खड़े होकर ही सूर्य की पूजा करने का विधान स्मरण दिलाता है कि सूर्य और जल का अटूट रिश्ता है। इस बार गोवा में ही छठ मनाने का निश्चय किया। शाम और सुबह भी घाट पर जाऊंगी। दादी ने ढेर सारे गीत सिखाए थे। अब तक उन्हीं के लहजे में गुनगुनाती और गाती हूं। इस बार गोवा के घाट पर भी गाऊंगी। कितने अर्थवान हैं ये गीत। व्रती महिलाएं सूर्य से वार्तालाप करती हैं। सूर्य उनकी मांगपत्र को सुनकर प्रमाणपत्र देते हैं- एहो जे तिरिया सभे गुण आगर, सबकुछ मांगे समतुल हे। एक गीत में व्रती महिला के मांगने पर सूर्य भगवान उसे पुत्र देते हैं। परंतु आगाह करते हैं- देवे के त देलिअउगे बांझिन, गरव जनि बोल, गरव से बोलवे गे बांझिन, उहो लेबो छीन। गीतों में बेटी भी मांगी जाती है। छठ के समय स्वच्छता और पवित्रता पर विशेष ध्यान दिया जाता है। काश! हम उस स्वच्छता और पवित्रता को अपने जीवन का अभ्यास और संबल बना लेते।नदी, तालाब, कुआं और आंगन में छठ पूजा देखी थी। अब देखती हूं, समुद्र में छठ पूजा का कैसा आनंद आता है। आस्था कितनी गहराती है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

~ 28 अक्टूबर , 2014

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s