ब्लैकबेरी

ब्लैकबेरी

सहरा की भिंगी रेत पर , मैंने लिखा आवारगी
~ मोहसिन की बेहतरीन पोएट्री ।
तस्वीर इसी मौसम और शायद इसी महीने की है , वर्ष था 2012 . सात साल पहले की है । शनिवार का दिन था और कॉलेज से हाफ डे के बाद मुझे अपने कॉलेज के दिनों के दोस्तों से मिलने जाना था । बेटी ने ब्लैकबेरी से मेरी तस्वीर उतारी । कई फोन आए और गए लेकिन जो रईसी ब्लैकबेरी में था – वो आईफोन में भी नजर नहीं आया । बेहतरीन लेदर के होल्डर में ब्लैकबेरी को रखिए और आराम से उस होल्डर से ब्लैकबेरी को निकालिए ।
शायद इस वक्त मेरे जेहन में कहीं से भी कुछ नहीं था कि अगले कुछ महीनों में ज़िन्दगी बदलने वाली है । राहु अपनी आयु के चरम सीमा पर था ।
खैर , जिंदगी बड़ी गुलज़ार थी । सुबह ठीक 7.35 में गाढ़ी और बासी दूध के चाय के साथ नींद खुलती थी । करीब 8 अख़बार लेता था । लेकिन सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया से ही होती थी । अख़बार और चाय के खत्म होते ही , तैयार होने की हड़बड़ी । ठीक 8.10 में तैयार ।घी से तरबतर पराठा और आलू गोभी की सब्जी । सालों भर गोभी चाहिए – जहां से आए , वो मेरा हेडेक नहीं रहता था । आराम से 8.45 में कॉलेज । 2009 में ही एसोसियेट प्रोफेसर बन चुका था सो क्लास भी कम । मुश्किल से एक क्लास प्रतिदिन । दोपहर 1 बजे वापस घर – दाल , भात , घी , अचार , नेनुआ का सब्जी , पापड़ , तीलौड़ी । डाइनिंग टेबल पर अकेले । फिर एक राउंड बाकी का अख़बार । फिर 2 बजे वापस कॉलेज । और 4.30 बजे वापसी । वापस लौट कर खुद चाय बनाते थे । बेहतरीन दार्जिलिंग चाय । बिन बैग पर पसर कर टीवी और अख़बार । मूड हुआ तो एक आध घंटे बाद , किसी दोस्त यार की महफ़िल में – टेनिस , बैडमिंटन हुआ । और देर शाम वापस । फिर लैपटॉप पर दे फेसबुक …दे फेसबुक । हा हा हा । रात 1.30 तक जागना । लेकिन तकिया के बगल में किताब का जरूर होना ।
लेक्चर भी मस्त होता था । पांच मिनट लेट घुसना , पांच मिनट जल्दी निकल जाना । दस मिनट अटेंडेंस । हां जी फलाना , तुम कल क्यों नहीं आए टाइप भाषण । एक घंटा के लेक्चर में – सिर्फ 35 मिनट पढ़ाते थे । वो 35 मिनट किसी परम आनंद से कम नहीं होता था । ऐसा लगता था कि जैसे झामझामा कर बारिश हो रही हो ।खुद को प्रफुल्लित महसूस करते थे ।
इज्जत बहुत थी । पेशा का असर था । एक तो प्रोफेसर ऊपर से दालान का लेखक । बीच में दाएं बाएं भी कमाए लेकिन उसको भी बड़ी इज्जत के साथ ।
लेकिन राहु कब तक इंतजार करता । 25 फरवरी , 2013 को माथा में घुस गया – चलो पटना , वापस ।
यहां कोई ज़िन्दगी नहीं है । हर एक इंसान असुरक्षित है । इस असुरक्षा की भावना में वो खुल कर किसी से हाथ भी नहीं मिला पाता है ।

~ रंजन / 02.09.19

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