ये जो अक्टूबर है .. न …

ये जो अक्टूबर है .. न …

ये जो ऑक्टोबर है न …इसे शरद का वसंत भी कहते है । गोधुलि की बेला के बाद से ही हल्की ठंड की एहसास शुरू हो जाती है । तुम्हें पता है – गोधुलि की बेला किसे कहते हैं ? सूरज के ढलते ही चरवाहे अपने गाय के साथ वापस लौटते है …एक तरफ़ सूरज ढल रहा होता है और उसकी किरणों के बीच गाय के ख़ुरों से जो धूल उड़ती है …बड़ी पवित्र नज़र आती है । उसे ही गोधुलि कहते हैं …:)) हाँ …गाय के गले में बंधी घुँघरू की आवाज़ भी ..:))
पर तुम्हारे शहर में तो बड़ी कोठियाँ और लॉन होते हैं । ऑक्टोबर की शाम – बड़े लॉन में – मखमली घास पर एक बेंत की कुर्सी जिस पर तुम और …और एक कुर्सी ख़ाली …बरामदे में एक मध्यम रौशनी …और अंदर उस बड़े ड्रॉइंग रूम से बिलकुल उस मध्यम रौशनी की तरह बोस के स्पीकर से सैक्सोफ़ोन की धुन …बेहतरीन दार्जिलिंग चाय …
पर वो एक कुर्सी ख़ाली …बेंत वाली …लॉन के बीचोबीच …
अब तो ठंड भी लग रही होगी …कहो तो कुर्सी बरामदे में रखवा दूँ …उस अकेली कुर्सी को वहीं लॉन में अकेला छोड़ ….
~ RR / दालान / 25.10.2016

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