सामाजिक जीवन में सफलता अनुशासन से ही मिलती है लेकिन ऐसी कई सफलताओं को पाने के बाद ऐसे घोर अनुशासित लोगों को यह भ्रम भी हो जाता है की जीवन की सारी अनुभूतियां अनुशासन से ही प्राप्त हो जाएंगी । ~ ऐसा मै नही मानता । भूखे पेट सोना भी एक अनुभूति है । और यह अनुभूति तब मिलेगी जब आपको अनुशासन तोड़ एक रात भूखे पेट सोना हो । उस खास अनुभूति को आप बिना अनुशासन तोड़ नहीं समझ सकते । ~ लेकिन दूसरा तर्क यह भी है की हर रात कोई उसी अनुभूति को प्राप्त करने में भूखे पेट सोने लगे तो वह बहुत ही दुर्बल हो सकता है । यह भी सही बात है । : लेकिन मेरा तर्क है की जीवन में उस अनुभूति के लिए आपको अनुशासन तोड़ना ही पड़ेगा । अन्यथा , यह वह कैसा जीवन जहां सब कुछ तो है लेकिन भूखे पेट की अनुभूति नहीं है । ~ जहां प्रेम है वहां अहंकार नहीं और जहां अहंकार है वहां प्रेम नही । अहंकार सामाजिक जीवन की जरूरत है । वर्षों पहले मेरी एक मित्र ने कहा था – जिन जिन संबंधों में उसने अपने अहंकार को समर्पित किया उन्ही संबंधों ने उसे पैर का पोंछा बना दिया । शायद , वैसे संबंध में उसका अहंकार जागृत हो गया होगा । तो कहने का मतलब इंसान अपने अहंकार को मारता है नही बल्कि प्रेम में अभिभूत होकर अपने अहंकार को सुला देता है । फिर जैसे ही उसे आदर या प्रेम की कमी महसूस होती है , उसका अहंकार वापस ज़िंदा या जाग जाता है । मतलब की इंसान बिना अहंकार रह ही नहीं सकता । : लेकिन इंसान की जरूरत प्रेम भी है । बड़े से बड़े अहंकारी को भी उसके कमज़ोर क्षण में अनकंडीशनल लव के लिए बिलखते देखा है । वक्त है । वक्त किसी के बाप का नहीं होता । वो आपके जीवन में अपने हिसाब से चलेगा । और वही इंसान का वक्त ठीक होते ही , उसको अब अनकंडीशनल लव की जरूरत नहीं होती । यह मानव स्वभाव अदभुत है । ~ हाई स्कूल के दौरान एक मित्र था । प्रमोद । हम दिन भर साथ रहते । शाम को तो अवश्य ही । मेरे लिए उसकी भावनाएं पवित्र होती है । समर्पण था । लेकिन प्लस टू में नए मित्र बने और प्रमोद का साथ छूट गया । कई साल अपनी नई जिंदगी में उसकी कमी नही महसूस किया । लेकिन इधर अचानक से उसकी याद आने लगी । अब महसूस हो रहा है की उसकी भावनाएं मेरे लिए कितनी पवित्र थी और शायद आज भी होंगी । कुछ साल पहले उसके आवास की तरफ गया था , वो अपने चाचा के घर में रहता था । हिम्मत ही नहीं हुई की दरवाजा खटखटा कर पूछे की प्रमोद अब कहां है । खुद में ग्लानि हुई । हम तो नए मित्रों में कई वर्ष खोए रहे और जब कमज़ोर वक्त आया तो पवित्र भावना तलाश रहे हैं । : हम भी तो वही इंसान है जो ऊपर बाकी अहंकारिओं पर छिछा लेदर कर रहे हैं । हम कहा अलग है ? सारा खेल इसी भावनाओं का है । तभी तो गोरी हो या काली , लंबी हो या छोटी , मोटी हो या पतली , धनिक हो या गरीब – मां बस मां होती है क्योंकि उसकी भावनाएं हमारे लिए पवित्र होती हैं । ~ इस रिश्ते को हटा दें तो बाकी के सभी रिश्ते थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी पर चलते हैं । हा हा हा । हमसे कोई मजबूत मिला तो अहंकार झुका दिए और कमज़ोर मिला तो उसको अपना ताकत दिखा दिए । हा हा हा । ~ मुश्किल है मानव स्वभाव को समझना या यह एक विशुद्ध फॉर्म्युला पर आधारित है । कुछ है जो खुशी भी देता है और गम भी । : रंजन , दालान / 08.06.2021
दिनकर लिखते हैं : हर सुसभ्य आदमी सुसंस्कृत ही होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता; क्योंकि अच्छी पोशाक पहनने वाला आदमी भी तबीयत से नंगा हो सकता है और तबीयत से नंगा होना संस्कृति के खिलाफ बात है। और यह भी नहीं कहा जा सकता कि हर सुसंस्कृत आदमी सभ्य भी होता है, क्योंकि सभ्यता की पहचान सुख-सुविधा और ठाट-बाट हैं। मगर बहुत-से ऐसे लोग हैं जो सड़े-गले झोंपड़ों में रहते हैं, जिनके पास कपड़े भी नहीं होते और न कपड़े पहनने के अच्छे ढंग ही उन्हें मालूम होते हैं, लेकिन फिर उनमें विनय और सदाचार होता है, वे दूसरों के दुख से दुखी होते हैं तथा दुख को दूर करने के लिए वे खुद मुसीबत उठाने को भी तैयार रहते हैं। यहीं एक यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि संस्कृति और प्रकृति में भी भेद है। गुस्सा करना मनुष्य की प्रकृति है, लोभ में पड़ना उसका स्वभाव है; ईर्ष्या, मोह, राग द्वेष और कामवासना-ये सबके सब प्रकृत के गुण हैं। मगर प्रकृति के ये गुण बेरोक छोड़ दिए जाएँ तो आदमी और जानवर में कोई भेद नहीं रह जाए। इसलिए मनुष्य प्रकृति के इन आवेगों पर रोक लगाता है और कोशिश करता है कि वह गुस्से के बस में नहीं, बल्कि गुस्सा ही उसके बस में रहे; वह लोभ, मोह, ईर्ष्या द्वेष और कामवासना का गुलाम नहीं, बल्कि ये दुर्गुण ही उसके गुलाम रहें और इन दुर्गुणों पर आदमी जितना विजयी होता है, उसकी संस्कृति भी उतनी ही ऊँची समझी जाती है। संस्कृति हमारा पीछा जन्म-जन्मान्तर तक करती है। अपने यहाँ एक साधारण कहावत है कि जिसका जैसा संस्कार है, उसका वैसा ही पुनर्जन्म भी होता है। जब हम किसी बालक या बालिका को बहुत तेज पाते हैं, तब हम अचानक कह उठते हैं कि यह पूर्वजन्म का संस्कार है। संस्कार या संस्कृति असल में शरीर का नहीं, आत्मा का गुण है और जबकि सभ्यता की सामग्रियों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छूट जाता है, तब भी हमारी संस्कृति का प्रभाव हमारी आत्मा के साथ जन्म-जन्मान्तर तक चलता रहता है। निष्कर्ष यह कि संस्कृत सभ्यता की अपेक्षा महीन चीज होती है। यह सभ्यता के भीतर उसी तरह व्याप्त रहती है जैसे दूध में मक्खन या फूलों में सुगन्ध। और सभ्यता की अपेक्षा यह टिकाऊ भी अधिक है, क्योंकि सभ्यता की सामग्रियाँ टूट-फूटकर विनष्ट हो सकती हैं, लेकिन संस्कृति का विनाश उतनी आसानी से नहीं किया जा सकता।
कहानी साइकिल की : ब्रांड रेलेे 😊 कोई राजा हो या रंक – हमारे समाज में उसकी पहली सवारी साइकिल ही होती है और साइकिल के प्रति उसका प्रेम आजीवन रहता है – भले ही वो चढ़े या नहीं चढ़े । अगर आप अपने बचपन को याद करें तो बड़े बुजुर्ग ब्रांड रेलेे की बात करते थे । सन 1885 के आस पास इंग्लैंड कि यह ब्रांड भारत के इंग्लिश राज में मंझौले रईसों की पहचान हो गई थी । हमारे सम्मिलित परिवार में सन 1975 के आस पास तक मोटर नहीं था , आया भी तो सरकारी । हाथी घोड़ा पालकी और समपनी थी लेकिन मोटर नहीं । लेकिन बाबा के पास फिलिप्स कंपनी की हरे रंग की साइकिल होती थी । दोपहर के भोजन और विश्राम के बाद उनकी साइकिल साफ होती , बाबा बेहतरीन खादी कुर्ता और धोती में – अपने मित्रो के साथ आस पास के बड़े बाज़ार निकल जाते । गांव गांव उसी साइकिल से घूमते । आजीवन साइकिल चलाए तो उनके श्राद्ध में मैंने खुद से पड़ोस के गांव से नया साइकिल कसवा कर दान भी दिया । ऐसे जैसे टॉर्च , छाता और साइकिल – यही पहचान । खैर , साइकिल पर चलने के अपने एटिकेट्स होते थे । जैसे अगर आप साइकिल से हों और सामने से गांव घर का कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति आ रहा हो तो आपको चंद मिनट के लिए साइकिल से उतर कर अभिवादन करना है । इस घटना को आपमें से कई नहीं देखे होंगे – लेकिन मैंने देखा और किया भी है । सब कुछ बदल गया तो ये भी संस्कार बदल गया । गांव में साइकिल मांगने की प्रथा होती थी । बाबा से कोई साइकिल मांगने आया तो महिन नेता आदमी – आंगन से पूछ लो कह के अपना इज्जत बचा लेते थे और जो साइकिल मांग दिया – मेरी दादी उसकी इज्जत उतार देती थी । हा हा हा । क्या मजाल की कोई दुबारा साइकिल मांगने आए 😉 परबाबा मुजफ्फरपुर ज़िला स्कूल पढ़ने गए तो उधर से रेलेे खरीदते आए – बाबा कहते थे – रेलेे साइकिल को देखने के दस कोस से लोग आया था । हा हा हा । शायद वह तब के सम्मिलित परिवार की पहली साइकिल रही होगी । सन 1920 के आस पास । तब से लेकर आज तक हर पीढ़ी के पास उसके हाईस्कूल के दौर से साइकिल खरीदना एक प्रथा है और शायद हर मिडिल क्लास में । मेरी पहली बाई साइकिल भी सातवीं कक्षा में खरीदी गई थी । शायद 18 इंच वाली । उसी नए साइकिल पर सीखे भी । गजब का थ्रील आता था – जैसे इस सड़क पर हम भी अब दू पैसा के आदमी हो गए हैं :)) शायद एवन थी । फिर हीरो और फिर ब्लू कलर की बीएसए एसएलआर । कॉलेज में फैशनेबल साइकिल रखे थे । कई स्कूटर और बाइक वाले मित्र मांग कर ले जाते थे – कैट टाइप 😎 अब फिर से साइकिल खरीदने का मन । बहुत हल्का नहीं लेकिन बेहतरीन ब्रांड । रेलेे । साइकिल खरीदने जाना और दुकान में उसको कासवाना फिर घर आना :)) साइकिल को सूती कपड़ा से हर रोज पोछना और कभी कभी कभार उसका ओवर हौलिंग करवाना । नारियल के तेल से उसका रिम साफ करना इत्यादि इत्यादि – सब याद है :)) टीन येज में साइकिल से पूरा पटना धांगे हुए हैं 😎 गोग्गलस पहन कर । बहुत कुछ छूट गया – बहुत कुछ लिख दिया – अब कुछ आप भी लिखें :)) अपनी साइकिल की यादें …!!! ~ रंजन / दालान / 29.05.20
आपके डाइनिंग टेबल या आपके भोजन पर बेहतरीन अंचार अवश्य होना चाहिए । अब खाना बढ़िया नहीं बना है , यह कहने का हिम्मत बहुत कम लोगों को होता है तो उसकी भरपाई वह अंचार करता है 😝 दस बजिया स्कूल में पढ़े है । मतलब सुबह दस से शाम चार वाला । टिफिन ले जाना थोड़ा शान के खिलाफ भी होता था सो 4 बजे घर लौटते ही – सब्जी खत्म – दाल खत्म इत्यादि इत्यादि फिर दिन का बचा हुआ चावल और बोईआम से निकला हुआ बड़का आम के फांक वाला अंचार और उसका मसाला । भात में सान दीजिए और भर दम खा लीजिए 😎 उसके बाद क्रिकेट / फुटबॉल / लट्टू – जो मन करे । अंचार को लेकर थोड़ा सेंसिटिव हूं । दिन के प्रथम भोजन में बिल्कुल नहीं चाहिए लेकिन बाकी के सभी भोजन में चाहिए ही चाहिए टाइप । तरह तरह का अंचार देखा , जाना और चखा लेकिन मेरे इलाके में मुख्यत आम का , मिर्च का , कभी कभी कटहल का , भोज में आलू का भी । करौंदा का भी – कभी कभार थोड़ा महिन परिवार के भौजाई के यहां या फिर जो दक्षिण भारत ट्रैवल कर के आया हो तो – तनी टेस्ट कीजिए न रंजू बाबू , हैदराबाद से लाए हैं टाइप 😝 अंचार बहुत शुद्धता से बनाया जाता है । बचपन में देखते थे – आम आया , फंहसूल से कटाया , मसाला तैयार हुआ , तेल पेराया , बड़का बड़का सीसा वाला बॉईआम साफ हुआ । आम सुखाया गया , उसके फांक में मसाला डाला गया – सरसों के तेल में सम्पूर्ण स्नान इत्यादि के साथ उसको धूप दिखाया गया । फिर उसको सीसा के मर्तबान में रखा गया । जिस आम के अंचार से टप टप तेल नहीं टपका – मतलब कहीं कुछ कंजूसी हुआ है 😐 खैर , हमको भी अंचार बनाने आता है 😝 हॉर्लिक्स का एक सीसी ले लीजिए । उसको सर्फ के घोल से साफ कर के धूप में सूखा दीजिए । आधा किलो हरा मिर्च खरीद के लाइए । हर एक मिर्च का पेट काट दीजिए । फिर उसको हॉर्लिक्स वाले सीसी में रख कर छह नींबू का रस उसमे डाल दीजिए और थोड़ा अदरक का महिन पिस । स्वादानुसार नमक और अगर घर में आम का अंचार या भरवां मिर्च का अंचार बन रहा हो तो उसका मसाला इस हरे मिर्च वाले में डाल दीजिए । थोड़ा दो चार दिन धूप दिखा दीजिए । फिर जब गैर खून नजदीकी संबंधी ने बढ़िया स्वादिष्ट खाना नहीं बनाया हो फिर इस आपके हरे मिर्च वाले अंचार को भोजन के साथ लेे । ना शिकायत होगी और ना ही भूखे पेट एक दूसरे के कूल खानदान और सभ्यता पर कोई श्लोक बाजी 😝 दिन सुखमय रहेगा 😐 ~ रंजन / दालान / 25.05.20
स्त्री और पुरुष जब एक दुसरे से नजदीक आते हैं ! स्पर्श की अनुभूति या स्पर्श का होना ही प्रेम का परिचायक है ! स्त्री ‘मन के स्पर्श’ को प्रेम कहती है और पुरुष ‘तन के स्पर्श’ को प्रेम की मंजिल समझता है ! यह स्पर्श कैसा होगा – यह उन्दोनो के प्रेम की इन्तेंसिटी पर निर्भर करेगा ! लेकिन ऐसा नहीं की पुरुष सिर्फ तन के स्पर्श को ही प्रेम समझते हैं या स्त्री सिर्फ मन के स्पर्श को ! दोनों को दोनों तरह का स्पर्श चाहिए लेकिन प्रमुखता अलग अलग है ! एक उदाहरण देना चाहूंगा ! हमारे दौर में भी क्रश होता था ! स्कूल कॉलेज इत्यादि में ! यहाँ लड़की लडके की किसी अदा पर रिझती थी – शायद वही मन का स्पर्श होता है ! वहीँ लडके क्लास नोट्स आदान प्रदान के वक़्त उंगलिओं के स्पर्श को ही प्रेम की मंजिल समझ लेते थे से लेकर शादी की बात तक ! जैसा की मैंने ऊपर लिखा है – प्रेम के विस्तार तक – स्पर्श की अनुभूति या कल्पना ! स्त्री के मन को समझना कठिन है ! यह तरल है ! बहाव में तेज़ी है ! इस मन का कैसे और कब स्पर्श होगा – कहना मुश्किल है ! उम्र के हिसाब से इसका अंदाज़ लगाने की कोशिश की गयी है – एक पैटर्न को देखते हुए ! फिर भी एक पुरुष के लिए यह समझना कठिन है ! यौवन के शुरुआत में गली मोहल्ला के लोफर का बाईक चलाना से लेकर यौवन के अंत में किसी पुरुष की कुलीनता ! लेकिन यह एक महज एक स्टडी है – सच्चाई नहीं ! हमारे इलाके में – एक स्त्री को अपने जेठ से किसी भी तरह की दैहिक छुअन की मनाही है ! वो जब अपने जेठ के पैर छूकर प्रणाम की जगह – उनके पैरों के पास जमीन को छुएगी ! यह सामाजिक परम्परा इंसान की मन को देख कर बनाया गया होगा ! यह मान कर चला गया होगा की स्त्री अपने से ज्यादा उमरदराज जेठ से प्रभावित हो चुकी होगी और जेठ अपने से कम उम्र की भाभी / भाभो के तरफ आकर्षित हो चुका होगा ! अब यह बात यहीं ख़त्म हो जाये सो इसके लिए किसी भी तरह स्पर्श की सख्त मनाही है ! स्त्री स्वभाव से अपने से ज्यादा उम्र के पुरुष के प्रति आकर्षित हो चुकी होती है ! वो उन्हें विशाल मान कर चलती है – तब जब उनकी उपस्थिति मृदुल और सुरक्षात्मक हो ! पुरुष अपने से कम उम्र की स्त्री के प्रति आकर्षित हो चुके होते है , तब जब उनकी उपस्थिति एक झरोखों में हो ! स्त्री को अपना जेठ भले वो घास काटने वाला क्यों न हो – विशाल लगेगा ही लगेगा ! तब जब कोई अन्य अहंकार की टकराव न हुई हो ! शायद यही वजह रही होगी की हमारे यहाँ शादी में एक रस्म – आशीर्वादी / मझ्क्का ! जहाँ वर अपनी वधु के सर पर के आंचल को पीछे की तरफ खींचेगा और जेठ उस आँचल को आगे की तरफ लाएगा ! यह उस मनोभाव को दर्शाता है की – पुरुष समय के साथ नजदीक आने पर अपनी स्त्री / पत्नी के इज्जत के साथ खिलवाड़ कर सकता है और तब उस जेठ का दायित्व होगा की वह अपनी भाभी / भाभो के इज्जत को बरक़रार रखे ! यह पूरा खेल – विशालता का है ! और स्त्री विशालता ही तलाशती है तभी किसी भी तरह के स्पर्श की सख्त मनाही है ! स्त्री के मन को कुछ भी स्पर्श कर सकता है , कुछ भी ! झूट या सही – मुझे पता चला की देश की एक मशहूर परिवार की लड़की एक अत्यंत साधारण लडके के तरफ इसलिए आकर्षित हुई की वो लड़का डांस फ्लोर पर बहुत बढ़िया डांस करता था ! हा हा हा ! यह घटना हम जैसे तीसरे इंसान के लिए एक घोर आश्चर्य की बात थी ! मै तो इस सुचना के बाद कई दिनों तक सोचता रहा की कोई इतने बड़े खानदान की लड़की किसी पुरुष के डांस से कैसे प्रभावित होकर अपना जीवन सौंप सकती है ! लेकिन ऐसे कई उदहारण है ! किसी पुरुष की कौन सी बात किस स्त्री के मन को स्पर्श कर जाए – कहना मुश्किल है ! फिल्म पाकीज़ा में मीना कुमारी की खुबसूरत पैरों की तारीफ करना ही उनके मन को स्पर्श कहा जा सकता है ! उस तारीफ में कितनी इंटेंसिटी रही होगी की पूरी फिल्म ही उस घटना के इर्द गिर्द घुमती है ! ऐसी घटनाएं हम पुरुषों को हतप्रभ कर देती हैं लेकिन किसी अन्य महिला को नहीं ! शायद वजह होगी की एक महिला दुसरे महिला का मन समझ सकती है ! ठीक उसी तरह मेरे अत्यंत प्रिय कलाकार शाईनी आहूजा के ऊपर नौकरानी ने आरोप लगाए तो मेरी पत्नी को आश्चर्य हुआ – मुझे नहीं ! हा हा हा ! पुरुष का मन शारीरिक स्पर्श के लिए कब जाग जाए – कहना कठिन है ! सिवाय खुद के भाई बहन के – कहीं भी ! उसी तरह स्त्री का मन कब और कौन स्पर्श कर जाए कहना कठिन है !
एक यात्रा के दौरान मै एक बकरी पालन के बिजनसमैन से वार्तालाप किया और उन्होंने कहा की जब तक बकरी इजाजत नहीं दे – बकरे दैहिक मिलन को पास नहीं जाते हैं ! यह प्रक्रिया / स्वभाव कई जानवरों में पायी जाती है ! इंसान को छोड़ ! शायद यहीं से सभी समाज में ‘स्वयंवर’ की प्रथा चालु हुई होगी ! प्रकृति यह इजाजत सिर्फ और सिर्फ स्त्री जाति को देती है की वो किसको अपने पास आने की इजाजत देगी और इंसानों का भी सभ्य समाज हमेशा से इसका आदर किया है ! असभ्य समाज पुरुष के अहंकार से चलता है और सभ्य समाज स्त्री के मन से ! और यहाँ बकरी जाति से सीखना होगा की – जो पसंद है उसे कैसे पास बुलाएं 🙂
तो यह मान कर चलना चाहिए की पुरुष शारीरिक मिलन को बेचैन होते हैं और महिलायें मन के मिलन को ! लेकिन ऐसा भी नहीं है ! बस अनुपात का अंतर है ! शायद स्त्री अपने शरीर के मिलन के साथ पुरुष के मन में जाना चाहती है और पुरुष मन के रास्ते स्त्री के तन तक ! यह भी एक कारण रहा होगा की समाज में पुरुष को अपने मन को खोलने की मनाही है और स्त्री को तन की ! स्त्री अपने मन को कभी भी और कहीं भी खोल सकती है ! पुरुष भी ! नजदीक आने पर स्त्री का मन खुलना ही खुलना है और पुरुष तो अपना शर्ट का दो बटन खोल पहले से ही बैठे होते हैं ! हा हा हा ! पुरुष भूल जाते हैं – मन को मन ही स्पर्श करता है ! और पुरुष सबसे अंत में अपनी आत्मा खोलते हैं और स्त्री सबसे अंत में अपना शरीर ! जिस पुरुष ने संबंधों में अपनी आत्मा पहले ही खोल दी – वो स्त्री के सामने अपनी महता खो भी सकता है और कुछ ऐसा ही नियम स्त्री पर लागु होता है की वो सबसे अंत में अपना शरीर खोले ! लेकिन यह पुर्णतः सच भी नहीं है – यहाँ परिपक्वता का खेल है ! एक परिपक्व दिमाग सामने वाले के शरीर की इज्जत देगा और मन की भी ! लेकिन दोनों तरफ इस स्पर्श के पहले – पूरी तरह ठोक बजा लेते हैं ! यहीं व्यक्तित्व है ! खुलना तो है ही है – राजा हो रंक ! क्योंकि खुलना प्रकृति है ! और आप हम सभी प्रकृति के नियम से बंधे है ! भूख सबको लगती है – राजा हो या रंक ! यह समाज है जो हमें गलत सिखाता है की राजा नहीं रोयेगा या उसे सिर्फ रानी से प्रेम होगी इत्यादि इत्यादि ! यह गलत है ! सही यही है की प्रकृति या ईश्वर की नज़र में सब बराबर है ! भावनाओं का अनुपात इंसान इंसान पर अलग अलग निर्भर करेगा ! या ज़िन्दगी का अनुभव या प्राकृतिक परिपक्वता उन भावनाओं को बढ़ा देंगी या घटा देंगी ! लेकिन वो सारे प्रेम अधूरे हैं – जहाँ अभी तक स्पर्श नहीं हुआ हो – या शायद वही प्रेम ज़िंदा हैं 🙂 @RR / 5 March 2019 / Patna
धरा ने वसंत को पूरी तरह जिया भी नहीं की पतझड़ की आहट होने लगी है । अचानक से धूप तीखी हो गयी है । ऐसे जैसे मार्च अपने वक़्त से पहले आ कर – फ़रवरी का हिस्सा छिन रहा हो । ग़लत बात लगती है , किसी के हिस्से में प्रवेश करना । ऐसा होगा तो एप्रिल भी मार्च के हिस्से में घुस जाएगा , तब मार्च किस अदालत का दरवाज़ा खटखटाएगा । महीनो के इस झगड़े में धरा चुप हो जाती है । पर मार्च तो मार्च है – होली को क़ब्ज़े में रखता है , इसी घमंड में कभी फ़रवरी में घुस जाता है तो कभी एप्रिल में । हाँ , जिसके हिस्से होली आती हो – वो थोड़ा मनबढ़ू हो ही जाता है । बेचारा फ़रवरी – महज़ अठाईश दिनो का । प्रकृति को तरस आयी तो फ़रवरी के हिस्से वसंत को दे दिया । पर मनबढ़ू मार्च को पड़ोसी बना दिया , वसंत की ख़ुशी में फ़रवरी थोड़ा इतराया नहीं की मार्च के उकसाने पर सूर्य ने तिरछी नज़र कर ली 😐 फ़रवरी भागता रात के पास – रात ने कहा , घबराओ मत , वसंत अभी ज़िंदा है – गुलाबी जाड़े के शक्ल में :)) फ़रवरी सुन इतरा जाता है – रात के आग़ोश गुलाबी जाड़े के संग सो जाता है …:)) ~ रंजन / #Daalaan / 21.02.2017
ये इश्क़ है , मेरी जाँ … दरवाज़े बंद कर दो , खिड़कियाँ बंद कर दो । चाहो तो ख़ुद को किसी क़ैदखाने में क़ैद कर दो । भले इस जहाँ को छोड़ किसी और जहाँ चले जाओ । ये इश्क़ है , मेरी जाँ … रात के किसी पहर ख़यालों में आ जाएगा । तेरे इंकार पर भी , तेरी सारी वफ़ा ले जाएगा । ये इश्क़ है , मेरी जाँ … बड़ी मासूमियत से हवाओं में घुल तुमको छू जाएगा । ये इश्क़ है , मेरी जां … उसे आने दो … पल भर को हुस्न के घमंड को तोड़ जाने दो । अपनी मियाद पूरी कर जाएगा … अपनी उम्र पूरी कर स्वतः ख़त्म हो जाएगा … सच्चा हुआ तो तुमको मज़बूत कर जाएगा … झूठा हुआ तो सबक़ दे जाएगा । ये इश्क़ है , मेरी जाँ … उसे आने दो … ~ रंजन / दालान
माँ ( 8th May 1949 – 5th Feb 2013 ) माँ , आज शाम माँ अपनी यादों को छोड़ हमेशा के लिए उस दुनिया में चली गयीं – जहाँ उनके माता पिता और बड़े भाई रहते हैं ! पिछले बीस जनवरी को माँ का फोन आया था …मेरी पत्नी को …रंजू से कहना …हम उससे ज्यादा उसके पापा को प्रेम करते हैं …हम माँ से मन ही मन बोले …माँ ..खून का रिश्ता प्रेम के रिश्ते से बड़ा होता है …वो हंसने लगी ..अगले दिन भागा भागा उनके गोद में था …जोर से पकड़ लिया …माँ को रोते कभी नहीं देखा …उस दिन वो रो दीं …! आजीवन मुझे ‘आप’ ही कहती रहीं ….कई बार टोका भी …माँ ..आप मुझे आप मत बुलाया कीजिए …स्कूल से आता था …शाम को …चिउरा – घी – चीनी …रात को चिउरा दूध …मीठा से खूब प्रेम …तीनो पहर मीठा चाहिए …छोटा कद ..पिता जी किसी से भी कहते थे …एकदम मिल्की व्हाईट …रंजू के रंग का ….पटना पहुँचता था …खुद से चाय …कई बार बोला ..माँ आप कितना चाय पीती हैं …मुझे भी यही आदत …आठ साल पहले …गर्भाशय का ओपरेशन …होश आया …जुबान पर …रंजू …पापा को चिढाया था …माँ आपसे ज्यादा मुझसे प्रेम ….शादी के पहले और शादी के बारह साल तक ..कभी प्याज़ लहसुन नहीं ….पापा अपनी गृहस्थी बसाए …पहले ही दिन मछली …माँ रोने लगीं ..कहने लगीं …मछली की आँखें मुझे देख रही हैं …करुना …यह सब मैंने आपसे ही सिखा था ….माँ…आपसे और क्या सिखा …बर्दास्त करना …मन की बात जुबान तक नहीं लाना …किसी भी समस्या के जड़ पर पहुँच …सामने वाले को माफ़ कर देना …माँ ..आप मुझे हिंदी नहीं पढ़ाई …पर खून को कैसे रोक सकती थी …बहुत मन था …जो लिखता हूँ …आप पढ़ती …फिर अशुद्धी निकालती ….फिर मेरी सोच देख बोलतीं …रंजू आप कब इतने बड़े हो गए …आपका तानपुरा …शास्त्रीय संगीत …कुछ भी तो नहीं सिखाईं …खून ..आ गया …बिना सीखे ..संगीत की समझ ….मेरी शादी के दिन आप कितना रोयीं थी ….आप उस दिन बड़ी हुई थीं …आज आपको खोकर मै बड़ा हो गया …माँ ..जाने के पहले एक बार भी मन नहीं किया …रंजू से बात कर लें …हमदोनो कितना कम बात करते थे …याद है …आपके साथ कितना सिनेमा मैंने देखा है …जुदाई / आरज़ू / दिल ही तो है..जया भादुड़ी …अभिमान का रिकोर्ड ..रोज सुबह बजाना .. …सिर्फ आप और हम …पापा को आप पर कभी गुस्साते नहीं देखा …बहुत हुआ तो …रंजू के महतारी ..एने वोने सामान रख देवे ली …पापा तो सब कुछ छोड़ दिए आपके लिए …आप उनको अकेला क्यों छोड़ दीं …बोलिए न ….इस प्रेम के रिश्ते में बेवफाई कहाँ से आ गई… कई सवाल अभी बाकी है …कल सुबह पूछूँगा …
~ 5 फ़रवरी , 2013
हर किसी की एक ‘माँ’ होती है – मेरी भी माँ थीं …पिछले साल आज के ही दिन वो मुझे छोड़ अपने माता – पिता – भाई के पास चली गयीं …..यादों के फव्वारे में जब सब कुछ भींग ही गया …फिर इस कलम की क्या बिसात …माँ ने जो खिलाया ..वही स्वाद बन गया ..जो सिखाया वही आंतरिक व्यक्तित्व बन गया …’माँ’ विशुद्ध शाकाहारी थी – दूध बेहद पसंद – दूध चिउरा / दूध रोटी और थोड़ा छाली ..हो गया भोजन 🙂 सुबह चाय – शाम चाय – दोपहर चाय – जगने के साथ चाय – सोने के पहले चाय ..चीनी और मिठाई बेहद पसंद …बचपन में मेरे लिए चीनी वाला बिस्कुट आता था – दोनों माँ बेटा मिल कर एक बार में बड़ा पैकेट ख़त्म 🙂 बिना ‘मीठा’ कैसा भोजन …:)) मात्र आठ – नौ साल की उम्र में वो अपने पिता को खो बैठीं – जो अपने क्षेत्र के एक उभरते कांग्रेस नेता थे – श्री बाबु के मुख्यमंत्री काल में – श्री बाबु के ही क्षेत्र में – उनके स्वजातीय ज़मींदार की हत्या अपने आप में बहुत बड़ी घटना थी – परिवार से लेकर इलाका तक दहल चूका था – मैंने ‘माँ’ के उस अधूरे रिश्ते को बस महसूस किया – कभी हिम्मत नहीं हुई – ‘माँ’ आपको तब कैसा लगा होगा …यह बात आज तक मेरे अन्दर है – कभी कभी माँ हमको बड़े गौर से देखती थीं – फिर कहती थी – ‘रंजू ..आपको देख ‘चाचा’ की हल्की याद आती है’ …वो अपने पिता जी को चाचा ही कहती थीं …हम सर झुका कर उनके पास से निकल जाते थे …प्रेम की पराकाष्ठा…स्त्री अपने पुत्र में ..पिता की छवी देखे …माँ तो माँ ही हैं …किस पहलू को याद करूँ या न करूँ …एक सम्पूर्ण प्रेम …फिर एक पुरुष आजीवन उसी प्रेम को तलाशता है …जहाँ कहीं ‘ममता की आंचल’ की एक झलक मिल गयी …वह वहीँ सुस्ताना चाहता है …माँ ..आप हर पल जिंदा है ..मेरे अन्दर …!!! मेरा खुद का भी पिछला एक साल बेहद कमज़ोर और उतार चढ़ाव का रहा है …वो सारे लोग जो जाने अनजाने मेरी मदद को आगे आये..कमज़ोर क्षणों में भी मेरी उँगलियों को पकडे रहे …उन सबों को …मेरी ‘माँ’ की तरफ से धन्यवाद …! और क्या लिखूं ….:)))
~ 5 फ़रवरी , 2014
माँ , कहते हैं – माँ अपने बच्चे को कभी अकेला नहीं छोड़ती – कभी गर्भ में तो कभी गोद में – कभी आँचल में तो कभी एहसासों में – कभी आंसू में तो कभी मुस्कान में ! औलाद भी तो कभी अपने माँ से अलग नहीं होती – कभी आँचल के निचे तो कभी ख्यालों में – कभी जिद में तो कभी मन में …! माँ…बचपन में मेरे कान में दर्द होता था …सारी रात एक कपडे को तावा पर गरम कर के …आप मेरे कानो को सेंकती रहती थी ..अब मेरे कानों में दर्द नहीं होता …क्योंकी अब आप नहीं…माँ…आज आपका सारा पसंदीदा गाना सुना …आम्रपाली का वो गीत …’जाओ रे ..जोगी तुम जाओ रे …’ ऐसा लगा आप बोल उठेंगी …रंजू …फिर से दुबारा बजाईये ..न …कोई बोला नहीं …मैंने भी फिर से दुबारा बजाया नहीं…पर उस गीत के साथ आपकी गुनगुनाहट मैंने सुनी …वहीँ धुन …वही राग …माँ…सारा दिन आपके यादों से सराबोर रहा…पापा ठीक से हैं…अपने काम धाम में व्यस्त …हाँ …घर से निकलते वक़्त …आपकी तस्वीर को देखना नहीं भूलते …जैसे अब आप बस उस तस्वीर में ही सिमट के रह गयी हैं…आपके जाने के बाद ..आपके आलमीरा को मैंने नहीं खोला …पापा को देखता हूँ…वही खोलते हैं …शायद आपकी खुशबू तलाशते होंगे …आपके पीछे में भी आपको ‘रंजू के महतारी’ ही कहते हैं …उनके लिए आपका कोई नाम नहीं है…क्या…सिवाय चिठ्ठियों के…माँ…कभी कभी लगता है …आप कहाँ होंगी …किस रूप में होंगी …कैसी होंगी …एक बार और …फिर से …आपको देखने का मन करता है…सच में …बस एक बार और…
~ 5 फ़रवरी , 2015
माँ , माँ , आज आपको गए आज तीन साल हो गया । आज सुबह आपका काला शाल नज़र आया । ओढ़ लिया – बहुत सकून मिला । माँ , तीन साल हो गए लेकिन अभी भी उस शाल से आपकी ख़ुशबू नहीं गयी । फिर वापस रख दिया – आपके तकिए के नीचे । माँ , जब मन बहुत बेचैन होता है – वहीं आपके पलंग के आपके जगह पर सो जाता हूँ – दिन में नहीं सोता फिर भी सो जाता हूँ । हर साल कश्मीरी आता है – हर साल पूछता है – आंटी नहीं हैं – हर साल बोलता हूँ – नहीं हैं । भूल जाता है – इस बार नहीं पूछा – चुपके से एक काला शाल मेरे हाथों में रख दिया । शाम हो गयी गई है – चाय की याद आयी – मन किया आपके लिए भी एक कप बना दूँ – बिना चीनी वाली । आपके जाने के बाद – आपका आलमिरा नहीं खोला – हिम्मत नहीं हुई । शायद लॉक ही है – पापा को भी उस आलमिरा को खोलते कभी नहीं देखा । आपका एक पोंड्स ड्रीमफ्लावर पाऊडर कई महीने वहीं टेबल पर रखा नज़र आया , फिर लगता है – किसी ने उसे आपके आलमिरा में रख दिया । माँ , आपके जाने के बाद – ज़िंदगी पूरी तरह बदल गयी या जहाँ आप छोड़ कर गयीं – वहीं ठहर गयी – कुछ नहीं कह सकता । अब आप बेवजह परेशान होने लगी ….रुकिए …जया भादुड़ी का एक गीत अपने यूटूब पर सुनाता हूँ …नदिया किनारे हेरा आई …
हर ज़िंदगी एक कहानी है ! पर कोई कहानी पूर्ण नहीं है ! हर कहानी के कुछ पन्ने गायब हैं ! हर एक इंसान को हक़ है, वो अपने ज़िंदगी के उन पन्नों को फिर से नहीं पढ़े या पढाए, उनको हमेशा के लिए गायब कर देना ही – कहानी को सुन्दर बनाता है ! “अतीत के काले पन्नों में जीना वर्तमान को ज़हरीला बना देता है – और जब वर्तमान ही ज़हरीला है फिर भविष्य कभी भी सुखदायक नहीं हो सकता “ काले पन्ने कभी भी ना खुद के लिए प्रेरणादायक होते हैं और ना ही दूसरों के लिए ! भगवान् भी अवतार बन के आये तो उन्हें भी इस पृथ्वी पर ‘अप – डाउन ‘ देखना पडा ! उनके कष्ट को हमारे सामने पेश तो किया गया पर काले पन्नों को कहानीकार बखूबी गायब कर दिए ! कोई इंसान खुद कितना भी बड़ा क्यों न हो – वो अपने जीवन के एक ‘ब्लैक होल’ से जरुर गुजरता है – अब वह ‘ब्लैक होल’ कितना बड़ा / लंबा है – यह बहुत कुछ नसीब / दुर्बल मन / और अन्य कारकों पर निर्भर करता है ! हर इंसान खुद को सुखी देखना चाहे या न चाहे – पर खुद को शांती में देखना चाहता है – कई बार ये अशांती कृतिम / आर्टिफिसियल भी होती है – थोड़े से मजबूत मन से इस कृतिम अशांती को दूर किया जा सकता है – पर कई बार ‘लत / आदत’ हमें घेरे रहती हैं – आपके जीवन में शांती हो, यह सिर्फ आपके लिए ही जरुरी नहीं है – इस पृथ्वी पर कोई अकेला नहीं होता – यह एक जबरदस्त भ्रम है की हम अकेले होते हैं – हर वक़्त आपके साथ कोई और भी होता है – एक उदहारण देता हूँ – ऋषी / मुनी जंगल में जाते थे – बचपन की कई कहानीओं में वैसे ऋषी / मुनी के साथ कोई जानवर भी होता था – जिसके भावना / आहार / सुरक्षा की क़द्र वो करते थे – ऐसा ही कुछ इस संसार में भी होता है – आप कभी भी / किसी भी अवस्था में ‘अकेले’ नहीं हैं – इस धरती का कोई न कोई प्राणी आपपर भावनात्मक / आर्थीक / शारीरिक रूप से निर्भर है – या आप किसी के ऊपर निर्भर हैं ! तो बात चल रही थी जीवन के काले पन्नों की …ईश्वर ने हमें एक बड़ी ही खुबसूरत तोहफा दिया है – “भूलने की शक्ती” – हम अपने जीवन के काले पन्नों को सिर्फ फाड़ना ही नहीं चाहते बल्की उन्हें इस कदर फेंक देना चाहते हैं – जैसे वो कभी हमारे हिस्से ही नहीं रहे – उस काले पन्ने में ‘कोई इंसान / कोई काल – समय / कोई जगह’ – कुछ भी शामिल हो सकता है ! पर उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण है – आउट ऑफ़ साईट , आउट ऑफ़ माइंड – और जब तक यह नहीं होगा – आप काले पन्नों में ही उलझे रह जायेंगे – और आगे की कहानी भी बगैर स्याही …न जाने क्या क्या लिखेगी 🙂 हिम्मत कीजिए – कृतिम अशांती और काले पन्नों से बाहर निकलिए ,खुद के लिए ! ~ रंजन / दालान / 18.01.15
आत्माएं भाव की भूखी होती है और उसी भाव से आत्म विश्वास पनपता है । भाव बहुत महत्वपूर्ण है । आज माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्या नडेला के बारे में पढ़ रहा था । उन्होंने अपने बचपन के स्कूली क्रिकेट की चर्चा की । उन्होंने कहा – एक स्कूल क्रिकेट मैच के दौरान , गेंदबाजी करते वक़्त , एक ओवर वो बुरी तरह पिट गए । उस टीम के कप्तान ने फिर से उनपर भरोसा जताते हुए , फिर से गेंदबाजी का मौका दिया । सत्या लिखते है – वह एक क्षण था , जिसने उनकी ज़िन्दगी को एक जबरदस्त मोड़ दिया , और उनका आत्मविश्वास लौट आया । और वो आज विश्व की सबसे नामी आईटी कम्पनी के सीईओ हैं । उस भाव में आदर छुपा होता है । आदर देना सीखिए । आदर निगाहों से होकर जुबान पर नहीं भी आया तो दिल में अवश्य समाता है । भारत जैसे देश में मिडिल क्लास को दो वक़्त की रोटी और छत मुश्किल नहीं रही , तब वह एक आदर खोजता है । हर इंसान सत्या नडेला नहीं बन सकता लेकिन यह भी सत्य है कि विश्व के शिखर पर पहुंच कर , सत्या अपने स्कूल के उस कैप्टन को नहीं भूल सकते । वो स्कूली कैप्टन न जाने कहां होगा , लेकिन वो आजीवन किसी कि नजर में ऊंचा है । उत्तम पुरुष कभी एहसान नहीं भूलते । और जिंदगी कुछ बेसिक संस्कार से चलती है – आपके पास कुछ नहीं है फिर भी लोग आपके उस संस्कार के लिए याद रखेंगे । सूर्य उत्तरायण हो चुके है । नव वर्ष अब अपने रंग में आई है । 15 दिन बाद वसंत ऋतुराज भी आपसे मिलने के आतुर होंगे । कुछ नए इरादे बनाइए । कुछ मंज़िल खोजिए और कदमों को आगे रखिए …..