अमिताभ बच्चन 💕

वहमों गुमान से दूर दूर…यकीन के हद के पास पास ,
दिल को भरम ये हो गया…कि उनको हम से प्यार है…☺️
~ और आज आप अपने जीवन के 82 वसंत पार किए ❤️
यंग एंग्री मैन की छवि के अलावा , 70 और 80 के दसक में , अमिताभ एक बेहतरीन रोमांटिक छवि भी रखे । फिल्म कभी कभी में जब वो राखी के गोद में सर रखते हैं और राखी उनके चेहरे को अपने बालों से ढक लेती हैं या ऐसा ही कुछ एक दृश्य फिल्म सिलसिला का, जब नीला आसमान गीत के सीन में रेखा अमिताभ के क्लीन शेव गालों पर अपनी उल्टी हाथ फेरती हैं 😊 खैर , जावेद अख्तर साहेब का लिखा गीत जो शायद मैं 1000 बार अपने स्वर में भी बोल चुका हूं , बेहद नही अति पसंद ।
‘ ये रात है या, तुम्हारी जुल्फे खुली हुई है
है चांदनी या तुम्हारी नज़रों से मेरी राते धुली हुई है
ये चाँद है, या तुम्हारा कंगन
सितारें है, या तुम्हारा आँचल
हवा का झोंका है, या तुम्हारे बदन की खुशबू
ये पत्तियों की है सरसराहट, के तुम ने चुपके से कुछ कहा है’
~ शुभकामनाएं 💕
: रंजन , दालान

विदाई : रतन टाटा

रतन टाटा

बड़पन्नता 🙏 सरलता
~ बात दस साल पहले की होगी , बात बड़पन्नता और सरलता की हो रही थी तो पंकजा ठाकुर ( 95 बैच आईआरएस ) , पूर्व सीईओ , सेंसर बोर्ड ने कहा की बॉम्बे में किसी मीटिंग में रतन टाटा के साथ भेंट मुलाकात और लंच का प्रोग्राम था . लंच के बाद आदतन पंकजा अपना लेडीज पर्स / टोट बैग वहीं छोड़ अपने कार के तरफ़ बढ़ गई तो रतन टाटा उस बैग को लेकर पंकजा तक आ गए : ‘आपका बैग वहीं छूट गया था’

: शायद पंकजा ठाकुर थैंक्स भी नहीं बोल पाई . पिता से भी 10 साल बड़े , भारत ही नहीं विश्व के सबसे प्रतिष्ठित कॉरपोरेट. धन और फ़िलन्थ्रॉपी की बात ही मत पूछिए .
~ इंसान अचानक से इतने बड़े व्यक्तित्व के सरलता और बडपन्नता से इतना चकित हो जाता है की उसके मन की बात मुँह पर आ कर अटक जाती है . पंकजा आगे कहती हैं की उस पल भर की घटना ने उनके मन और आचरण को प्रभावित नहीं किया बल्कि एक बदलाव भी दिया 🙏

अभी सुहेल सेठ का एक इंटरव्यू देख रहा था . ब्रिटिश राज घराना रतन टाटा को पुरस्कार देने वाला था . सुहेल लंदन पंहुचे तो बॉम्बे से रतन टाटा का 11 मिस कॉल . सुहेल वापस रिंग बैक किए तो पता चला की करुणा से भरपूर रतन टाटा अपने पेट डॉग के बीमार होने से ब्रिटिश राजघराना पुरस्कार लेने नहीं जा रहे . प्रिंस चार्ल्स मुस्कुरा दिए : यही करुणा टाटा की पहचान है 😊

सन 2013 में जेएसएस , नोएडा त्यागने के बाद , मैंने प्रण लिया था की अब कोई नौकरी नहीं . लेकिन जब टाटा ब्रांड से प्रस्ताव आया तो ठीक एक महीना सोचने विचारने के बाद , प्रण टूट गया .
~ जो आपके प्रण को तुड़वा दे : वही ब्रांड , वही इंसान , वही भाव महान 🙏

सर , विदाई हो तो ऐसी 🙏 कल रात वाट्स एप स्टेटस पर देखा तो महज पाँच मिनट में सिर्फ़ और सिर्फ़ आप ही थे .
~ हर भारतीय की आत्मा आपके अंतिम विदाई में आपके साथ है . एक साथ अरबों लोगों के हाथ उठे और सर झुके हैं .
: सच में , विदाई हो तो ऐसी हो 🙏

: रंजन , दालान

शिक्षक दिवस

शिक्षक 🙏

~ मैंने जीवन में अनेकों काम किए . कुछ ग्रह दशा और कुछ चित चंचल 😊

लेकिन बतौर शिक्षक आत्मा को जो संतुष्टि मिली , वह कहीं नहीं मिली . क़रीब 15+ साल जीवन का एक सक्रिय शिक्षक के रूप में रहा .

मैट्रिक के बाद से स्नातक तक काफ़ी ख़राब परफॉरमेंस वाला विद्यार्थी रहा तो स्वयं को कभी बढ़िया शिक्षक नसीब नहीं हुआ . यह कसक मन में रही . जिसका रिजल्ट हुआ कि डायस पर अगर विद्यार्थी सजग रहे और ख़ुद का लेक्चर तैयार है तो हम उस वक़्त ख़ुद को दुनिया का सबसे बढ़िया शिक्षक मानते रहे थे 😀

~ मैंने मुख्यतः तीन विषय पढ़ाए : प्रोग्रामिंग , प्रोजेक्ट मैनेजमेंट और कॉरपोरेट स्ट्रेटेजी . सौभाग्य रहा कि इंजीनियरिंग के विद्यार्थी को मैनेजमेंट का ज्ञान देने का मौक़ा मिला और दुर्भाग्य रहा कि आधे सेमेस्टर के बाद ये विद्यार्थी मैनेजमेंट के विषय में रुचि खो बैठते थे 😐

~ स्नातक स्तर पर इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन की पढ़ाई की . बेसिक प्रोग्रामिंग के बाद कुछ नहीं आता था लेकिन मैंने स्वयं किताब से पढ़ कर सी लैंग्वेज सीखी , सी++ भी . और उसका नतीजा हुआ कि मेसरा में पीजी करते वक़्त ऑब्जेक्ट ओरिएंटेड टेक्नोलॉजी की मैडम अपने केबिन में बुला कर बोली : काश , हम आपको एक्सीलेंट दे सकते लेकिन मेसरा में इसकी इजाज़त नहीं है . आज भी उनके शब्द आँखों में तैर रहे हैं 😊

इसी मौसम सन 2012 की बात है . मैं बीटेक प्रथम वर्ष को सी प्रोग्रामिंग पढ़ा रहा था . तेज बारिश और पिन ड्राप साइलेंस . मैं पॉइंटर इन सी पढ़ा रहा था . पॉडियम पर ब्लैकबेरी रखा हुआ . जस्ट प्लस टू पास किए विद्यार्थियों की सारी चंचलता ग़ायब . मेरा 14 वर्ष का अनुभव . हाथ चाक से सफ़ेद , एक हाथ डस्टर . चाक गाढ़े रंग के ट्राउज़र को आधे सफ़ेद कर चुके . विद्यार्थियों का एक लगातार 50 मिनट पिन ड्राप साइलेंस हाथों के रोंगटे खड़े कर दिये 😊

~ और जीवन में ऐसे कई मौक़े आये लेकिन कब आये ? जब स्वयं का लेक्चर ज़बरदस्त प्रीपेयर हो , आपके अंदर ज्ञान को सरल और तरल कर के प्रवाह की क्षमता हो फिर पिन ड्राप साइलेंस होना तय है 😊

: टाटा जॉइन किया तो भारतवर्ष की एक अत्यंत खूबसूरत महिला पत्रकार नोएडा में स्वयं कॉफ़ी पर आमंत्रित की . अत्यंत खूबसूरत , वैजयन्ती माला जैसी लेकिन जेनिफ़र लोपेज़ 😊 कॉफ़ी मग को दोनों हाथ से पकड़ तीखे नज़र से टोंट कसी : लोग जवानी में कॉरपोरेट और 40 बाद प्रोफ़ेसर बनते हैं , लेकिन आपका उल्टा ही है 😀

हमने कहा की लगता है आपको जवान प्रोफ़ेसर से मुलाक़ात नहीं हुई है . वरना फ़ेयरवेल के रात , अंतिम वर्ष के विद्यार्थी कॉलेज पार्किंग में आपको देख सिटी बजाती है , वह एक अलग आनंद है 😊 बतौर शिक्षक कुछ ऐसे भी अनुभव होते हैं 😀

~ आईआईएम , आईआईटी , मेसरा , मैसूर , पटना के तमाम शिक्षकों इत्यादि का विद्यार्थी रहा लेकिन स्वयं का सहकर्मी रिंकज गोयल से बढ़िया शिक्षक कभी नहीं मिला . कॉलेज शुरू होने के आधे घंटे पहले आ जाना , पहला लेक्चर रिंकज़ का . पागल की तरह लड़के आधी नींद में सुबह सुबह उसके क्लास में . कभी इंटरनल परीक्षा का कॉपी चेक नहीं करना और विद्यार्थी थर्र थर् काँप रहे जबकि वो कभी किसी को फेल नहीं किया 😊 “रिंकज शिक्षक नहीं , आतंकवादी है “ : बेंच पर ऐसा लिखा भी मैंने पाया 🤣 सन 2005 में वो दूसरा यूनिवर्सिटी जॉइन कर लिया . कानपुर का रहने वाला , हमको दादा कहता था और कॉलेज के बाहर पैर छू के प्रणाम 😀

सन 2002 में , पहली बार जब जेएसएस नोएडा में पढ़ाया तो एक लेक्चर की तैयारी में तीन घंटा लगाया करता था . स्वाभाविक है कि लेक्चर बेहतरीन होगा . कोई बिहारी लड़का मेरा नाम ही बदल दिया : की रंजन सर रंजन झा हैं 😀 इतना ज्ञान झा जी लोग के ही पास होता है 🤣

~ प्रोफ़ेशन की ऊब , लेक्चर का तैयार नहीं होना , मेट्रो शहर में और ज़्यादा पैसा कमाने का दबाव इत्यादि आपको एक रोज़ बढ़िया शिक्षक से बकवास शिक्षक भी बना देती है . यह ट्रैप है . इससे बचना चाहिए वरना आगे गड्ढा है : जिसमें आप मेरी तरह गिर भी सकते हैं 😐

~ जीवन में एक बार शिक्षक का काम अवश्य करना चाहिए . डायस पर खड़ा होकर एक साथ 60/90/120 विद्यार्थी को कमांड करना पड़े तो सब स्मार्टनेस ग़ायब हो जाती है 🤣

रंजन ऋतुराज , दालान

मुझे अपने जीवन में स्वयं के ज्ञान या बुद्धिमत्ता से कहीं ज़्यादा तेज तरार और बेहतरीन विद्यार्थी मिले . आप सभी का शुक्रिया 😊

उम्र …

हर रविवार सुबह नाश्ते के बाद – पान खाने जाता हूँ – मेरे गेट के सामने ही ‘पान वाला’ है – चौरसिया नहीं है पर मेरे गृह राज्य का ही है – कई गलत आदतें छूट गयीं हैं लेकिन हर इतवार पान खाना बंद नहीं होता – जब उसका लाल पिक होठों के बगल से हल्का निकलता है – खुद को दुनिया का सबसे बड़ा इलीट समझता हूँ और इसी नशे में हर वक्त रहता हूँ !
खैर …पान खाने के बाद ..दो कदम आगे बढ़ा ..पान वाला छोकरा बोला – ‘अंकल ..’ – हम ध्यान नहीं दिए ! फिर वो टोका – ‘अंकल…’ . अब बर्दास्त नहीं हुआ – मुड़े और बोले – क्या है रे …हम तुम्हारे ‘अंकल’ लगते हैं ? देंगे दू हाथ घुमा के …दो चार श्लोक गुस्सा में सुना दिए ! अब वो हक्का – बक्का रह गया ! फिर दूसरी गलती किया – बोला – कल भाभी जी ‘भुट्टा’ मंगाई थीं ..उसका पैसा भी बाकी है …अब मेरा पारा चढ गया ! बोले ..मेरी पत्नी को भाभी जी और हमको अंकल जी …तुम्हारा ‘गुमटी’ ( दूकान ) कल से नहीं लगेगा ! 😡
सच में ..भाई लोग ..बहुत दर्द होता है …’अंकल’ शब्द सुन के ! उसका एक रीजन है …मै इस शब्द को बहुत सुरक्षित ढंग से यूज करता हूँ …यहाँ तक की पिता जी के अधिकतर दोस्तों को भी ‘सर’ ही कहता हूँ – अंकल तब के स्थिती में – जब वो बहुत घरेलु / पिता जी के भी आदरणीय हों – तब के स्थिति में !
इण्डिया में सबसे एब्यूजड शब्द है – अंकल !
मेरी हमउम्र महिलायें अगर खुद को किसी से भी ‘आंटी’ कहलाना पसंद करें – वो उनका निर्णय होगा – पर मुझे गैरों से ‘अंकल’ कहलाना पसंद नहीं ! 😡
बात साफ़ ! अब कैटरीना ..किसी दिन गलती से ..सलमान को अंकल बोल दे ..क्या होगा 😉 😝

~ दालान / 9 Sep – 2012 / इंदिरपुरम

दो दुनिया …..

दो दुनिया

बिलकुल दो दुनिया होती है ! एक अन्दर की , एक बाहर की ! एक स्त्री की , एक पुरुष की ! एक निश्छल की , एक छल की ! एक प्रेम की , एक नफरत की !  एक साधू की , एक चोर की ! एक भगवान् की , एक हैवान की ! एक हमारी , एक आपकी ! एक नेता की , एक जनता की ! एक जल की , एक थल की ! एक मैदान की , एक मरुभूमि की ! एक लिविंग रूम की , एक बेडरूम की ! एक ओफ्फिस की , एक घर की ! हमारे आपके साथ भी दो दुनिया हर वक़्त साथ चलती है – एक दिल की , एक दिमाग की !   
बहुत बचपन की एक याद है , बाबा राजनीति में सक्रीय थे ! सुबह सुबह वो खुद से पान बनाते और एक बड़ा लोटा लेकर खेतों की तरफ निकल जाते ! एक सैर कर आते ! एक घंटा का सैर ! जब तक वो वापस दरवाजे पर आते तब तक दरवाजा पर सौ पचास लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी ! कोई पैदल आता , कोई साईकील से , तो कोई मोटरसाईकल से ! जिसकी जैसी सामाजिक हैसियत वह अपना जगह खोज बैठ जाता ! कोई दालान में रखे बड़े चंपारण कुर्सी पर तो कोई चौकी पर , कोई यूँ ही ओसारा पर , तो कोई भुईयां पर ! बाबा बड़े आराम से , खादी के हाफ सफ़ेद वाली चेक बनियान और धोती में , एक मोटा जनेऊ और उंगली में बेहतरीन इटालियन मूंगा , वैसा मूंगा आजतक कहीं नहीं देखा  ! लोग उनको घेर लेते थे ! सुबह नींद खुल गयी तो मै भी दरवाजे / दुआर / दुरा पर चला जाता था ! मुझे यही लगता था , मेरे बाबा जैसा कोई नहीं ! फिर थोड़ी देर बाद , बाबा आँगन में आते , एकदम आहिस्ता आहिस्ता , पैर को दबा के ! लबे हैं , बेहद आकर्षक हैं , चेहरे पर एक मस्सा ! बहुत दबे पाँव आँगन में आते थे ! अपनी बाहरी दुरा / दुआर की दुनिया से आँगन की दुनिया में , दादी की दुनिया में ! दादी को हमसभी ‘दीदी’ कहते थे ! दीदी अपने भंसा में व्यस्त ! बाबा चुपके से आँगन के ओसारा के उस कोना में बैठ जाते थे जहाँ उनका ‘पान’ एक लकड़ी के डोलची में भिंगा कर रखा होता था , वहीँ अपने पैरों पर बैठ जाते , धीरे धीरे पान लगाते ! खूब आराम से , कत्था , रत्ना चाप ज़र्दा , कला पंजुम ! हम भी वहीं बाबा के पास बैठ जाते ! ‘दीदी’ भंसा घर में व्यस्त और कुछ हलके गुस्से में , भुनभुनाती हुई , बाबा अपनी तिरछी नज़र से भंसा घर की तरफ देखते ! दीदी भंसा घर से निकलते हुए ! बाबा एकदम हलके से , धीरे से भोजपुरी में बोलते – ‘दरवाजा पर कुछ लोग आये हुए हैं , कुछ कप चाय भेजवा दीजिये’ ! अचानक से दीदी का पारा गरम हो जाता और दीदी गुस्सा में कुछ कुछ बोलने लगती थीं ! हम बच्चे आँगन के पाए के इर्द गिर्द खेलते हुए , दीदी की बातों को सुनते ! बाबा फिर चुपके से अपने पान को चबाते दरवाजा / दुआर / दुरा पर निकल जाते ! दीदी फिर चाय बनवा कर दरवाजा पर भेज देती , साथ में बाबा के लिए खूब बड़ा फुलहा / कांसा के कटोरा में चिउरा – दही भी ! दीदी गुस्सा तो जरुर होती थी लेकिन थोड़ी ही देर बाद बाबा का मन रख लेती थीं ! मेरी माँ अपने सास ससुर के बारे में कहती थीं – ‘बाबु जी तो दीदी को रानी की तरह रखते हैं’ ! मै सोचता था – हम कोई राजा रजवाड़ा तो हैं नहीं, फिर ये रानी शब्द कहाँ  से आया ? 🙂 दीदी भी जब आँगन से बाहर जाती – बाबा के जमघट पर एक नज़र दूर से – सर पर पल्लो रखते हुए – किसी किचेन हेल्पर से पूछती – ‘मालिक को कुछ जरुरत तो नहीं’ !  यह पूछते वक़्त दीदी का गुस्सा कहाँ चला जाता था – आज तक समझ में नहीं आया !तब भी लगता था और आज भी लगता है , बाबा जिनसे मिलने के लिए दरवाजा पर सैकड़ों लोग खड़े हैं , वही इंसान आँगन में घुसते ही शक्तीविहीन , कोमल ! जो दीदी आँगन में इतना गुस्सा वही बाहर झांकते हुए इतना शांत !

बिलकुल दो दुनिया थी , बाहर की दुनिया जहाँ के बादशाह बाबा होते थे और अन्दर की दुनिया जहाँ की रानी दीदी होती थीं ! दोनों एक बैलेंस बना के रखे थे ! 
जब आँगन की दुनिया में कुछ गड़बड़ी , दीदी का सारा गुस्सा बाबा पर ! बाबा एकदम चुपचाप सुनते थे ! जब बाहर की दुनिया में कुछ गड़बड़ , बाबा एकदम गुस्सा में फनफनाते हुए आँगन में आते थे और दीदी एकदम शांत ! 
क्या बैलेंस था …उफ्फ्फ ! किसने सिखाया होगा , ये बैलेंस !मैंने एक कोण से दो दुनिया की एक झलक पेश करने की कोशिश की है ! न जाने ऐसी कितनी ‘दो दुनिया’ होती है ! 


कमेन्ट कीजिएगा …:))

~ रंजन / दालान / 13.06.2016

ताजिया …

आज तजिया है ! शहर शहर , गाँव गाँव तजिया निकला होगा ! मेरे गाँव में भी ! बचपन यादों की गली से झाँक रहा है ! कई दिन पहले से तजिया को सजाने का काम शुरू हो जाता था ! लम्बे और खूब ऊँचे तजिया !
“हसन – हुसैन” करते टोली आती थी ! दरवाजे पर ! भाला , लाठी , तलवार से सजाये हुए तजिया ! बाबा के गोद में बैठ दरवाजे पर उन तजिया को देखना ! लाठी भांजने वाले वो युवक ! कभी कोई चाचा / बड़ा भाई भी लाठी भांजता था ! भाले को चमकाना और तलवार युद्ध ! बहुत रोमांच पैदा करता था !
आँगन से दादी आती थी जिस लोटा से शिव को जल , उसी लोटा से तजिया को भी जल ! कोई धर्म नहीं पता , कोई इतिहास नहीं पता ! बस यही पता की आज तजिया है ! हसन हुसैन के शहादत का दिन !
‘शौर्य और शहादत” का दिन ! भोग तो सिर्फ अपना मन और तन लेकिन त्याग / शहादत को कई सदी पुजती है !
शाम होते होते सभी ताजिया का गाँव के पास वाले उस आम के बगीचा वाले खेत में जमा होना , वहीँ किसी ठेला से जिलेबी खाना और फिर इस घमंड से अपने घर वापस आना की – मेरे गाँव वाले तजिया को सबने सबसे बढ़िया कहा !
ज़िन्दगी कहाँ से कहाँ आ गयी लेकिन जब बचपन यादों की गलिओं में झांकता है- न जाने कितने अनमोल खजाने खोज लाता है !
हां , बिहार के मुजफ्फरपुर इलाके में वहां की एक हिन्दू जाति ‘भूमिहार’ भी इस शहादत में बड़े गर्व से अपने तजिया निकालती है या उस जुलुस में उसी परंपरा से शामिल होती है ! टाईम्स ऑफ़ इण्डिया ने कई बार इसकी चर्चा भी की है ! पश्चिमी उत्तरप्रदेश के त्यागी ब्राह्मण / पंजाब के मोह्याल ब्राह्मण को ” हुसैनी ब्राह्मण ” भी कहा जाता हैं क्योंकि यही लोग करबला में हसन हुसैन की रक्षा के लिए गए थे ।
शौर्य / वीर गाथा / शहादत के किस्से – धर्म , जाति , परिवार से ऊपर उठकर – उनके गीत गाये जाते हैं !
सलाम ………हसन हुसैन …!!!!
~ रंजन
“ अयाचक , सैनिक , हुसैनी और सामंती “

ताजिया का ही अपभ्रंश है तज़िया 🙏

2016

घड़ी ….

अविनाश / ब्लैक डायल

बहुत दिनों तक हाथ में घड़ी पहन सोने की आदत बनी रही – इस बीच कई बार घड़ी स्लो हो जाती और देर से नींद खुलती – बहुत अफ़सोस और कुछ खोया खोया सा महसूस होता था – अब इस ग्लानी से ऊपर उठ चूका हूँ – लगता है – पाया ही क्या हूँ जो खोने का गम रखूं !
करीब पचीस साल पहले – अपनी पहली घड़ी खरीदी थी – बाबु जी पैसे दिए थे – साइकिल से हांफते हुए – एक दम से – पटना के हथुआ बाज़ार पहुँच गया था – अकेले ! बाबु जी हिदायत दिए थे – ‘एच एम टी ‘ का ‘जनता’ खरीदना – सफ़ेद डायल वाला ! मुझे वो पसंद नहीं पड़ा – अविनाश ले लिया काला डायल वाला ! एक बार वो चोरी भी हो गया – घर में जो पोचारा ( रंग ) करने आया था – उसी ने चोरी कर लिया – फिर दो चार हाथ दिए तो पायजामा से निकल के टेबुल पर रख दिया !
घर में एक परंपरा थी – ऐसी प्रथम घड़ी पुरुष या महिला अपनी शादी के वक्त छोटों को दे देते थे – बाबू जी भी अपनी घड़ी छोटे चाचा को दिए थे – ‘जनता’ ! पर चाचा अपनी शादी के वक्त अपनी पुरानी घड़ी मुझे नहीं दिए – परंपरा टूट गयी !
प्लस टू के बाद चाचा कुछ पैसे दिए – बस पकड़ बीरगंज ( नेपाल ) पहुँच गया – भर दम शौपिंग किया – एक और घड़ी ले लिया – उसके अंदर ‘लाल दिल’ बना हुआ था – क्वार्ट्ज़ घड़ी – बाबु जी बहुत गुस्साए – बोले – ‘छुछुन्दर’ जैसा लग रहा है – पर हम छुपा लिए – कॉलेज में कुछ ही दिन पहने – जिस दिन मुझे लगा – सचमुच में छुछुन्दर जैसा लग रहा है – होस्टल के मेस वाले को दे दिए – फेंकने में दर्द हो रहा था ! चावी वाला ‘अविनाश’ हाथ में बंधा रहा !
शादी के बाद गोल्डन टाइटन मिला – पहला दिन से ही पसंद नहीं आया – मौका के तलाश में था – पत्नी ने एक बार कुछ तीखा बोला – हम एक पल बिना गवाएं -ससुराली घड़ी सीधे खिडकी से बाहर वाले गड्ढे में – जाओ ..अब ऐश करो !
अब सस्ते घड़ी पहनने लगा – सौ रुपैये वाले – डेढ़ सौ रुपैये वाले – कई लोग टोके – कोई फर्क नहीं – एक मित्रवत शिक्षक और मेरे विद्यार्थी ‘हज’ करने गए तो एक महंगी घड़ी लेकर आ गए – आदत नहीं थी – पापा को दे दिया और उनसे उनका बयालीस साल पुराना ऑटोमैटीक सीको ले लिया – अलमीरा में रखा हुआ है !
कुछ साल पहले सास इंदिरापुरम आयीं थीं – ससुराल से मिला घड़ी का पूछताछ चालू हुआ – फिर वो थोडा ताव में आ गयीं – एक काफी ज्यादा महंगी घड़ी खरीद दीं – कोई फायदा नहीं – वो भी आलमीरा में बंद है !
छोटी बहन की शादी के समय – मन था – अपने बहनोई को खूब बढ़िया घड़ी दूँ – मना कर दिए – अरमान अरमान ही रह गए और अब मै देने से रहा !
अब मोबाईल या टैबलेट या लैपटॉप पर ही समय देखने का आदत हो गया है – वो भी क्या दौर था – जब मै ‘अविनाश’ पहन के नहा भी लेता था – अंदर पानी चला जाता – फिर धुप में उसको सुखाओ :))
~ 27 August / 2012

सोशल मीडिया के लोग ….

लाईकबाज , कमेंटबाज़ , शेयरबाज़ और पोस्टबाज़ :
इस फेसबुक पर तरह तरह का आइटम लोग नज़र आता है , कुछ लोग लाईकबाज होता है । आप कुछ भी पोस्ट कीजिये , भाई जी का लाईक जरूर से रहेगा । आप सड़ा अंडा , टमाटर , कद्दू कुछ भी लिख दीजिये , भाईजी का एक लाईक टप से आ गिरेगा । ऐसे आइटम लोगों को इससे कोई मतलब नही की आप क्या लिखे हैं । उन्हें यह लगता है कि फेसबुक पर लाईक करना उनका धर्म है । शांतप्रिय लोग है ये । आलतू फालतू कमेंट कर कभी आपका मन नही दुखाते । बस लाईक किये और चल दिये ।
दूसरे लोग होते हैं ‘कमेंटबाज़’ ! आप कुछ भी लिखिए , इनका एक कमेंट अवश्य ही रहेगा । हर घंटे 58 मिनट ये ऑनलाइन होते हैं । जब तक ये अपने दोस्तों के वाल पर कमेंट नही करेंगे , रात में इनको नींद नही आती है । कभी कभी आधी रात नींद तोड़ कर भी ये कमेंट करते है । कई दफा दोस्तों का पोस्ट सूंघ कर भी ये कमेंट कर देते है । इनको पोस्ट के विषय वस्तु से मतलब नही होता । कभी कभी पता चलता है कि कहीं किसी अपने दोस्त के वाल पर अपने कमेंट के अस्तित्व की रक्षा में …दे रिप्लाई …दे रिप्लाई । ऐसे लोग अपने कमेंट की रक्षा को लेकर काफी सजग रहते हैं ।
शेयरबाज़ : ऐसे लोग के अंदर अहंकार मात्र भर भी नही होता । ये कुछ भी शेयर कर सकते हैं । सन्नी लियोन की तस्वीर से लेकर बाबा भोलेनाथ की तस्वीर तक । इन्हें इससे मतलब नही होता कि इनके शेयर करने से किसी को ज्ञान की प्राप्ति हुई या नही हुई । बस शेयर करना इनका नैतिक कर्तव्य होता है । हाथ मे मोबाईल आया नही की …दे शेयर …दे शेयर । ऐसे ही जीव जंतु व्हाट्स एप्प पर सुबह सुबह गुलाब के फूल के बीच अपना नाम और गुड मॉर्निंग फारवर्ड करते है । इनके 300 – 400 के बीच मित्र होते है और इनके द्वारा किये गए शेयर को एक भी लाईक नही मिलता । औसतन एक दिन में करीब 10 से 20 शेयर मिलता है । सोशल मीडिया पर एक बहस भी है कि जो लोग प्रतिदिन 10 से कम शेयर करते हैं , उन्हें शेयरबाज़ की श्रेणी में रखा जाय या नही ।
दे शेयर …दे शेयर …दे शेयर ।
पोस्टबाज़ : अधिकतर हिंदी पत्रकार टाइप । सुबह नींद खुलते ही इनको यह भ्रम हो जाता है कि देश की जनता एक हाथ मे लोटा और दूसरे हाथ मे मोबाईल लेकर इनका ‘फालतू’ पोस्ट पढ़ने को तैयार है । फेसबुक की प्राचीर से ये अपना भाषण शुरू कर देते हैं । अखबार पढ़ कुछ आलोचना , कुछ तीखा मीठा । इनका कोई अपना विचार नही होता । बेविचार होते हैं । जो करेंट टॉपिक मिला उसी पर कुछ घिस दिए । इनके पांच हज़ार दोस्त और करीब हज़ार दस हज़ार फॉलोवर होते हैं । अगर दिन में दो तीन पोस्ट नही करें तो रात में कै दस्त की दिक्कत होने लगती है । इनको रात में भुतहा सपना आने लगता है । मित्र उठो जागो , फेसबुक की प्राचीर से तुमको देश को संबोधित करना है । जनता तकिया पर माथा रख , हाथ मे मोबाईल लेकर तुम्हारे पोस्ट का इंतज़ार कर रही है । जागो वत्स , जागो । ले …अब ये आधी रात …एक पोस्ट टपका देते हैं । कुछ फालतू लोग आधी रात भी लाईक / कमेंट कर देते हैं । इन्हें मैं ‘बेचैन आत्मा’ ही कहना पसंद करूंगा । इनको घर परिवार में कोई टोकता भी नही । परिवार वाले भी सोचते होंगे – जे बलाय , फेसबुक पर बिजी है – इसको डिस्टर्ब मत करो ।
और बाकी आप जैसे निर्लज्ज भी होते है जो पोस्ट पढ़ मजा लेते है , मुस्कुराते हैं लेकिन एक लाईक / कमेंट / शेयर नही करते हैं । इन्हें लगता है कि लाईक / कमेंट / शेयर से पोस्टवाला कहीं मशहूर न हो जाये ।
जय हो …;)
~ रंजन ऋतुराज ‘पोस्टबाज़’ । 25.08.18 / दालान ब्लॉग

दालान लिट्रेचर फेस्टिवल की कहानी

अंजू की गुड़िया : एक कहानी
गर्मियाँ आते ही, मैं और मेरे तमाम, हमउम्र भाई-बहन, टाइमपास के नये-नये तरीके ढूँढते ! उन्ही में से एक खेल होता गुड्डे-गुड़िया का ! सिर्फ़ एक घर नही, पूरा मोहल्ला ही बरामदे में बसा लेते हम ! जो बरामदे से निकलता, हाँक देता- “हटाओ ये टीम-टाम!” ! गर्मी की उन लंबी दोपहरियों में, बिना पंखे के, घंटों गुड्डे-गुड़ियां खेलते रहते ! गर्मी-सर्दी का एहसास बच्चों को नही, बड़ों को होता ह !| बचपन कहाँ सर्दी-गर्मी के एहसास का मोहताज होता है?
और हां, छोटा भाई बनता, गुड़िया का नौकर ! “जाओ जाके गुड़िया को घुमा के लाओ”- उससे जान बचाने के लिए हम कहते, पर वो महाशय यूँ गये और पलक झपकते ही वापिस हाजिर ! अंजू के गोरे गुलाबी गुड्डे की शादी, मेरी सफेद बालों वाली गुड़िया (या कहें बुढ़िया से!), सिर्फ़ एक शर्त पर होती, कि दहेज में मुझे अपनी गुड़िया की पुश्तैनी, कुंडे-लगी, मरून कपड़े से मॅढी, दिग्गज अटैची, और हरी साड़ी ज़रूर देनी पड़ती; वरना शादी कैंसेल !
अंजू गुडियों के मामले में मुझ से बहुत धनी थी ! शोभना दीदी गुड़िया बनाने की कला में माहिर थी, कपड़े की ऐसी जीवंत गुड़ियाँ बनती, कि बस प्राण फूकनें की कसर रह जाती ! कभी जार्जेट के सफेद दुपट्टे काट कर, तो कभी पुरानी सिल्क साड़ियों के बॉर्डर से तैय्यार की गईं गुडियों की वो साड़ियाँ, मन को लुभाती भी, और जलाती भी ! उन्ही में से एक थी, खूबसूरत पीली साड़ी ! जार्जेट के सफेद दुपट्टे को पीले रंग में रंग कर, ऊपर से लाल छीटें मार कर बनी वो साड़ी ! साड़ी क्या थी, आँखों की किरकिरी! कई बार अंजू की मनुहार करती, आपसी विनिमय से बात बनाने की कोशिश करती, कि किसी तरह वह साड़ी मुझे दे दे, मगर सब बेकार !
गाँव में भागवत होना तय हुआ था ! ताई के साथ, अंजू, प्रीति और मैं भी गाँव गई ! हम जब भी गाँव जाते, दो ही चीज़ों का सहारा होता- गुड्डे-गुड़ियाँ, और गाँव में रखी ढेरों पॉकेट बुक्स, जिसमें होती राजा-रानी, और परियों की मन को बाँध लेने वाली कहानियाँ !
सावन का महीना था, भागवत की आरती के बोल, सुबह-शाम माहौल को गुंजायमान करते, पर मेरा मन आरती में नही, गुड़िया की उस साड़ी के पल्लू में बँधा पड़ा रहत|!| देखते ही देखते, हफ़्ता निकल गया; शाम को हम सब शहर वापिस आने वाले थे ! धीमी-धीमी पानी की फुहारें पड़ रहीं थी ! दोपहर में यूँ भी उस बड़ी दो-मंज़िली हवेली में, सूना हो जाया करता, नौकर-चाकर भी ना होते उस समय; अजीब-सा सन्नाटा तना रहता ! मैने चुपचाप गुड़िया के सामान से साड़ी निकाल ली थी, दबे पाँव सीढ़ी चढ़कर, गोल कमरे को पार कर, पीछे की बाउंड्री से झाँक कर देखा- गढ़ी चढ़ने का रास्ता साफ दिखाई दे रहा था ! मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा ! गला सूखने लगा ! पानी तेज हो गया था, मैनें देर नहीं की ! साड़ी को मुट्ठी में दबा कर, ज़ोर-से झटका दिया और नीचे फेक दिया ! ये क्या, वह तो झाड़ी में ही अटक गई थी ! गीले मन और आँखों से आखरी बार साड़ी को जी-भर के देखा ! झाड़ी के उपर खुल के बिखरी हुई कितनी सुंदर लग रही थी! चुप-चाप सीढ़ी से नीचे उतर आई थी मैं, पर अंजू को तो पता चलना ही था, सो चल गया ! बहुत ढूँढा, रोई भी बेचारी, मगर साड़ी होती तो मिलती? “जल्दी चलो! वापिस नही जाना क्या?” ताई चिल्ला रहीं थी, गाड़ी तैय्यार थी; अंजू को दिलासा दे कर, मैं तेज़ी से गोल कमरे की सीढ़ियाँ चढने लगी ! बाउंड्री से झाँक कर नीचे देखा, साड़ी अभी भी हवा में लहरा रही थी ! मगर यह क्या? रंग कहाँ गये इसके सारे? पानी से साड़ी बदरंग हो चुकी थी ! बरसात के पानी ने, ना लाल रंग को छोड़ा, ना पीले को ! गाड़ी में बैठ गई थी मैं- ना बरसात थमने का नाम ले रही थी, ना ही आँसू !


~ श्रीमती रत्ना सिंह , एमए ( अंग्रेज़ी साहित्य एवं साइकोलोजी ) , स्कूल एवं कॉलेज में पढ़ाने का अनुभव – दालान की प्रशंसक !


दालान लिटरेचर फेस्टिवल सावन – 2015 के दौरान प्रकाशित मौलिक कहानी ।

सुना है ….

सुना है …वो मेरे दालान पर आती है …चुपके चुपके …देर चाँदनी रात …लम्बे घूँघट में झुकी नज़रों के साथ …सावन की बूँदों सी पायल की रुनझुन के साथ …दबे पाँव आधी रात …:))
कुछ पढ़ कर …कुछ सुन कर …खिड़कियों को खटखटा कर …वो वापस चली जाती है …चुपके चुपके…देर चाँदनी रात …लम्बे घूँघट में झुकी नज़रों के साथ…दबे पाँव आधी रात…:))
मैंने भी कहलवा दिया है …कभी यूँ ही आँगन में भी आया करो …:))
~ RR / 2016
पेंटिंग साभार : माधवी संदूर