अनुशान , प्रेम और अहंकार …

सामाजिक जीवन में सफलता अनुशासन से ही मिलती है लेकिन ऐसी कई सफलताओं को पाने के बाद ऐसे घोर अनुशासित लोगों को यह भ्रम भी हो जाता है की जीवन की सारी अनुभूतियां अनुशासन से ही प्राप्त हो जाएंगी ।
~ ऐसा मै नही मानता । भूखे पेट सोना भी एक अनुभूति है । और यह अनुभूति तब मिलेगी जब आपको अनुशासन तोड़ एक रात भूखे पेट सोना हो । उस खास अनुभूति को आप बिना अनुशासन तोड़ नहीं समझ सकते ।
~ लेकिन दूसरा तर्क यह भी है की हर रात कोई उसी अनुभूति को प्राप्त करने में भूखे पेट सोने लगे तो वह बहुत ही दुर्बल हो सकता है । यह भी सही बात है ।
: लेकिन मेरा तर्क है की जीवन में उस अनुभूति के लिए आपको अनुशासन तोड़ना ही पड़ेगा । अन्यथा , यह वह कैसा जीवन जहां सब कुछ तो है लेकिन भूखे पेट की अनुभूति नहीं है ।
~ जहां प्रेम है वहां अहंकार नहीं और जहां अहंकार है वहां प्रेम नही । अहंकार सामाजिक जीवन की जरूरत है । वर्षों पहले मेरी एक मित्र ने कहा था – जिन जिन संबंधों में उसने अपने अहंकार को समर्पित किया उन्ही संबंधों ने उसे पैर का पोंछा बना दिया । शायद , वैसे संबंध में उसका अहंकार जागृत हो गया होगा । तो कहने का मतलब इंसान अपने अहंकार को मारता है नही बल्कि प्रेम में अभिभूत होकर अपने अहंकार को सुला देता है । फिर जैसे ही उसे आदर या प्रेम की कमी महसूस होती है , उसका अहंकार वापस ज़िंदा या जाग जाता है । मतलब की इंसान बिना अहंकार रह ही नहीं सकता ।
: लेकिन इंसान की जरूरत प्रेम भी है । बड़े से बड़े अहंकारी को भी उसके कमज़ोर क्षण में अनकंडीशनल लव के लिए बिलखते देखा है । वक्त है । वक्त किसी के बाप का नहीं होता । वो आपके जीवन में अपने हिसाब से चलेगा । और वही इंसान का वक्त ठीक होते ही , उसको अब अनकंडीशनल लव की जरूरत नहीं होती । यह मानव स्वभाव अदभुत है ।
~ हाई स्कूल के दौरान एक मित्र था । प्रमोद । हम दिन भर साथ रहते । शाम को तो अवश्य ही । मेरे लिए उसकी भावनाएं पवित्र होती है । समर्पण था । लेकिन प्लस टू में नए मित्र बने और प्रमोद का साथ छूट गया । कई साल अपनी नई जिंदगी में उसकी कमी नही महसूस किया । लेकिन इधर अचानक से उसकी याद आने लगी । अब महसूस हो रहा है की उसकी भावनाएं मेरे लिए कितनी पवित्र थी और शायद आज भी होंगी । कुछ साल पहले उसके आवास की तरफ गया था , वो अपने चाचा के घर में रहता था । हिम्मत ही नहीं हुई की दरवाजा खटखटा कर पूछे की प्रमोद अब कहां है । खुद में ग्लानि हुई । हम तो नए मित्रों में कई वर्ष खोए रहे और जब कमज़ोर वक्त आया तो पवित्र भावना तलाश रहे हैं ।
: हम भी तो वही इंसान है जो ऊपर बाकी अहंकारिओं पर छिछा लेदर कर रहे हैं । हम कहा अलग है ? सारा खेल इसी भावनाओं का है । तभी तो गोरी हो या काली , लंबी हो या छोटी , मोटी हो या पतली , धनिक हो या गरीब – मां बस मां होती है क्योंकि उसकी भावनाएं हमारे लिए पवित्र होती हैं ।
~ इस रिश्ते को हटा दें तो बाकी के सभी रिश्ते थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी पर चलते हैं । हा हा हा । हमसे कोई मजबूत मिला तो अहंकार झुका दिए और कमज़ोर मिला तो उसको अपना ताकत दिखा दिए । हा हा हा ।
~ मुश्किल है मानव स्वभाव को समझना या यह एक विशुद्ध फॉर्म्युला पर आधारित है । कुछ है जो खुशी भी देता है और गम भी ।
: रंजन , दालान / 08.06.2021

प्रेम का आधार …

शायद मैंने पहले भी लिखा था और फिर से लिख रहा हूँ ! प्रेम का आधार क्या है ? मै ‘आकर्षण’ की बात नहीं कर रहा ! मै विशुद्ध प्रेम की बात कर रहा हूँ ! मेरी नज़र में प्रेम का दो आधार है – ‘खून और अपनापन’ ! बाकी सभी आधार पल भर के लिए हैं !
यहाँ थ्योरी ऑफ़ रिलेटीविटी भी काम करती है ! खून एक जबरदस्त आधार है ! कभी गौर फरमाईयेगा – फुआ , मौसी , चाचा , मामा से आप खुद को ज्यादा नजदीक पायेंगे ! वहीँ फूफा , मौसा , चाची , मामी इत्यादी से थोड़ी दूरी ! हो सकता है – मौसा या मौसी से परिचय आपका जन्म से ही है फिर भी मौसी आपसे ज्यादा नजदीक होंगी या आप खुद को पायेंगे ! इसी आधार पर मैंने एक बार लिखा था की आप यूरोप या अमरीका में किसी पाकिस्तानी को देखते है तो आप खुद को उसके ज्यादा नजदीक पाते हैं , उसी पाकिस्तानी को आप भारत में रहते हुए दिन भर गाली देते हैं ! ठीक उसी तरह जब आप मंगल गृह पर जायेंगे तो पृथ्वीवासी ही आपके सुख दुःख को समझ पायेंगे !
शायद यह खून ही है की आजीवन पति पत्नी आपस में लड़ते हैं लेकिन औलाद के लिए दोनों के अन्दर सामान प्रेम होता है ! कई बार पुरुष यहीं फंस जाते हैं – माँ या पत्नी ! महिलायें भी आजीवन अपने पति / प्रेमी में अपने पिता की छवी तलाशती रहती हैं !
दूसरा आधार है – अपनापन ! यह बहुत लम्बे समय साथ रहने से होता है ! जब आप सुबह से शाम तक किसी के संपर्क में रहेंगे – अपनापन हो ही जाएगा और वह भी एक जबरदस्त प्रेम का आधार बन जाता है पर शर्त रहती है की आप कितने करीब हो पाते हैं ! आप एक दुसरे के खूबी / कमी को कितना महसूस कर पाते हैं !
शायद खून ही एक आधार है जिसके कारण समाज में ‘जाति’ आज भी बरकरार है ! श्री लालू प्रसाद को देख कई लोगों में यह भाव आया – कोई मेरे जैसा , मेरा कोई अपना उस शिखर पर है ! सुन्दर पिचासी को गूगल के शिखर पर देख लोगों के अन्दर भाव आया – कोई मेरा भारतीय – हम जैसा – उस शिखर पर है वहीँ से एक प्रेम छलकता है !
मेरा तो यही दोनों आधार है ! बाकी ‘आकर्षण’ को बस स्टॉप पर भी हो जाता है – इस उम्र तक यह समझ तो ही गयी है – वह आकर्षण जितना आसानी से आता है उतनी ही तेज़ी से जाता भी है ! प्रेम का तो बस एक दो ही आधार है – खून और अपनापन ! तभी तो खून जब पुकारता है – लोग सात समुन्दर पार भी अपने माता पिता के लिए बेचैन हो जाते हैं ! खून आधार नहीं होता तो ‘सौतेली माँ’ शब्द ही नहीं बनता …और ना ही एकता ‘सास बहु ‘ का सीरियल बना करोडो कमाई होती :))
और जहाँ असल प्रेम है वहीँ वफादारी भी है :))

~13 अगस्त , 2015

कभी मिलो तो कुछ ऐसे मिलो …

मोनिका बलूची

कभी मिलो तो कुछ ऐसे मिलो जैसे एक लम्बे उम्र का इंतज़ार …चंद लम्हों में मिलो …
हां …उसी रेस्तरां में …जब तुम वेटर को एक कप और चाय की फरमाईश करते हो …जैसे …मै इतनी मासूम ….मुझे कुछ पता ही नहीं …कुछ देर और रुकने का बहाना खोजते मिलो …अपनी मंद मंद मुस्कान में बहुत प्यारे दिखते हो ….:))
वहीँ टेबल पर ….कभी अपने कार की चावी तो कभी मोबाईल को नचाते …चुप चाप मेरे तमाम किस्से सुनते हो …और फिर एक लम्बी सांस के साथ …एक गहरी नज़र मेरी आँखों में डालते हो …जैसे क़यामत को कोई और पल नहीं चाहिए ….
हाँ ..कभी मिलो तो कुछ यूँ मिलो …जैसे मेरी तमाम उलझनों को …हौले हौले सुलझाते मिलो ..और मै अपने मन की सारी बातें कह …खुद को खाली कर दूँ …
..लौटते वक़्त …रेस्तरां से कार पार्किंग तक के सफ़र में …तुम्हारे हाथों से …मेरे हाथों का स्पर्श ……धड़कने वहीँ पिघल के …न जाने कब तुममे समा जाती है …कह नहीं सकती …पर कभी न मिटने वाली एक एहसास छोड़ जाते हो …
कभी मिलो तो कुछ यूँ मिलो ….:))

~ RR / #DaalaanBlog / 2014