यह गुलाब है । ऋतुराज वसंत के एक सुबह खिला हुआ गुलाब । गुलाब के साथ कोई विशेषण नहीं लगाते , गुलाब की तौहिनि होती है , बस इन्हें गुलाब कहते हैं । बड़ी मुश्किल से गुलाबी गुलाब दिखते है । इन्हें तोड़ना नहीं , मिट्टी से ख़ुशबू निकाल तुमतक पहुँचाते रहेंगे । गुलाब मख़मली होते हैं । गुलाब सिल्क़ी होते हैं । गुलाब ख़ुशबूदार होते हैं । बोला न …गुलाब के साथ कोई विशेषण नहीं लगाते …गुलाब बस गुलाब होते हैं …उनकी ख़ूबसूरती और सुगंध बस महसूस किए जाते हैं …:)) गुलाब तो बस माली का होता है …दूर से माली गुलाब को देखता है और गुलाब अपने माली को …वही माली जो चुपके से गुलाब के पेड़ के जड़ में खाद पानी दे जाता है – गुलाब खिलता रहे तो खर पतवार को हटा देता है …और खिला गुलाब मुस्कुराता रहता है …यह गुलाब है । ऋतुराज वसंत के एक सुबह खिला हुआ गुलाब …कहीं ऐसा गुलाब देखा है ? अगर ऐसा गुलाब नहीं दिखा तो ख़ुद को आइना में देख लेना …:)) तुम्हारी ख़ुशबू और तुम्हारे रंग वाला – गुलाबी गुलाब …:))
( राष्ट्रपति भवन के मुग़ल गार्डन से हिंदुस्तान टाइम्स के लिए खिंचा हुआ – एक गुलाबी गुलाब )
” अंगुरी में डंसले बिया नगिनिया रे …ए ननदी …दियरा जरा द ..आपन भईया के जगा द ” – ए ननद …मेरी उंगली में एक नागिन ने डंस लिया है ..दीया जला दो …अपने भैया को जगा दो …:)) स्व महेंद्र मिश्र का लिखे हुए इस गीत को न जाने कितने गायकों को गाया है – इंसान कहीं भी चला जाए – कितना भी ऊपर चला जाए – प्रेम का भाव एक ही संवेदना और वेदना पैदा करता है – क्योंकी यह प्रकृती का देन है ! भोजपुरी के ढेर सारे गीतों में – एक नारी अपनी वेदना और संवेदना दोनों अपने ‘ननद’ से ही कहती मिलती है – संभवतः विछोह के दौरान उस नारी को आँगन में …अपने ससुराल में …ननद के रूप में ही एक सखी मिलती है …जिससे वो अपने मन की बात कहती है …एक और गीत है …जिसके शब्दों में उल्लेख है ..’ननदी के अंगूरी के सोना ..कईलक हमरा मन पे टोना ..” इस गीत में एक नारी अपने साजन से कहती है – ननद के उंगली में जो अंगूठी है उससे मुझे जलन हो रही है ..मुझे भी वैसा ही एक अंगूठी ला दो …:)) कहाँ एक गीत में …एक ओर उस ननद से अपने मन की व्यथा और दुसरे गीत में …रात के बीते पहर में …उसी ननद की अंगूठी से जलन …:)) धन्य है वो प्रकृती …जिसने आपके इस प्रकृती को बनाया …हा हा हा हा …
हे ऋतुराज वसंत … कौन दिशा आते हो … शिशिर के घमंड को तोड़… किस रंग में हमें रंग जाते हो … हे ऋतुराज वसंत … तेरे आने की खबर हमें कौन दे जाता है … खेतों में लहलहाते सरसों के फूल … या कोयल की मधुर बोल … हे ऋतुराज वसंत … तुम्हारे इंतज़ार में …ठिठुरती धरती भी … तेरे आगमन से…थोडा इठलाती है … परागों के यौवन को देख …’प्रकृती’ भौरों में समा जाती है …”
~ RR / #Daalaan / 03.02.2014 / प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्र ‘दैनिक भास्कर’ के पटना संस्करण में भी छपा था ।
नॉएडा के , सेक्टर अठारह के , एचएसबीसी बैंक ब्रांच में उस रोज – झुकी पलकों को आहिस्ता से उठा , अपने गेशुओं को एक तरफ़ शाने पर रख , वो एक हमउम्र जब पाँच क़दम चल कर, मुझ अनजान तक पहुँच , कहती है – ‘एक्सक्यूज मी , पेन प्लीज़’ । सेकेंड के सौवें हिस्से में – मेरे मन में झंकार बिट्स बजने लगते है 😐 मैं मासूम छोरा – पेन की ढक्कन खोल ख़ुद को पृथ्वीराज चौहान समझ उनको अपना पेन समर्पित करता हूँ – इस घमंड के साथ की , बैंक में अन्य बीस मर्द भी थे पर उस मासूम ने मुझसे ही पेन माँगा है । जब तक वो अपने चेकबुक पर कुछ लिखती हैं – मेरे मन मंदिर में एक ही गाना बजता है – ‘यह पेन नहीं मेरा दिल है’ । इंसान ख़्वाबों में जीता है । मेरे मासूम मन में ख़्वाब जाग जाते है – जब वो क़लम वापस करेंगी , मैं उन्हें कॉफ़ी के लिए पूछूँगा , कॉफ़ी पर ही बातों का सिलसिला चल पड़ेगा , इस कॉफ़ी के ख़त्म होने के साथ , अगली मुलाक़ात का समय तय होगा । ख़्वाबों के सिलसिले भला कब रुकते हैं 😐 पर ऐसा हो न सका – टेलर से पैसे निकाल , लूई वेटन के लाल टोट बैग में पैसा रखते ही वो झुकी पलकें थोड़ी कठोर हो गयीं । बड़े ही कठोर निगाहों से उन्होंने मेरा पेन वापस किया – मेरे दिल ने कहा – काश आप ये क़लम रख लेती । पर अब तो पेन का काम ख़त्म हो चुका था , भला क्यों वो उसी अदा में रहतीं 😐 ताश के पत्ते की तरह सारे ख़्वाब बिखरते चले गए । अंतिम आस थी – काश वो थैंक यू कहती । पर मुझ जैसे नसीब के छोटे आदमी को थैंक्स भी नसीब नहीं हुआ । पेन लौटाते वक़्त वो निगाहें भी नहीं मिल सकीं । हाँ , वो वही क़ातिल निगाहें थी जिन्होंने बड़े मासूमियत से पेन माँगा था । एक झटके में वो बाहर निकल गयीं ….और मैं देखता रह गया …अपने टूटे दिल के बिखरते ख़्वाबों को समेटते हुये … फिर सोचा …कुछ देर और रुक जाऊँ …फिर कोई और पेन माँगनेवाली आ जाए …😐 ~ रंजन ऋतुराज / #Daalaan / 11.01.17 यह महज़ एक कल्पना है , हास्य है , एक व्यंग्य है – उन सोख हमउम्र हसीनाओं पर जो हज़ारों के लूई वेटन बैग में एक क़लम तक नहीं रखती हैं और काम ख़त्म हो जाने के बाद , क़लम वापस करते वक़्त – थैंक्स तक नहीं बोलतीं है । और हम पुरुष न जाने कितने ख़्वाब बुन लेते हैं – क़लम देने और वापस लेने के बीच 😕 लेकिन यह शुद्ध कल्पना भी नहीं है , यह दुर्घटना सितंबर , 2016 में नोएडा में हुई और चेक पर साईन करते वक़्त , मैंने उनका नाम भी पढ़ा और फेसबुक खोल उनका प्रोफाईल भी चेक किया , फ्रेंड रिक्वेस्ट का कोई ऑपशन नहीं दिखा – मर्द जात …कुकुर 😐 बड़का भारी कुकुर …हा हा हा ।
संभवतः यह सम्राट अशोक की प्रतिमा है । नीतीश कुमार सरकार द्वारा नव निर्मित ज्ञान भवन में यह प्रतिमा स्थापित है – अशोका द ग्रेट । टीनएज में सम्राट अशोक इस कदर मानस पटल पर छाए हुए थे की किताब और कॉपी में खुद को ‘रंजन द ग्रेट’ भी लिखा करता था :)) अमर चित्र कथा से ज्यादा कभी पढ़ा नही लेकिन यह बात समझ मे आ गयी कि महान ही याद किये जाते हैं । घोड़ों पर सवार ही योद्धा युद्ध कर सकता है और वही घुड़सवार एक दिन शांति का दूत भी बनता है । आखिरकार अशोक भी तो एक मनुष्य रहा होगा , आप हम जैसों की मानव प्रकृति उसके अंदर भी होगी । युद्ध से थका इंसान , शांति भी उसी तीव्रता से फैलाया जिस तीव्रता से वो युद्ध किया होगा । ” युद्ध और प्रेम दोनो इंसान की प्रकृति है । फर्क बस तीव्रता / ऊर्जा का है और मूलतः यही ऊर्जा आकर्षण का केंद्र बनती है और इसी तीव्र ऊर्जा के सहारे इंसान इतिहास में अमर होता है या फिर उसी इतिहास के गर्त में डूब जाता है । “ लेकिन सवाल यह है कि यह ऊर्जा ईश्वरीय देन है या फिर इंसान खुद से पैदा करता है ? खैर जो भी हो …अपने टीनएज के आदर्श ‘अशोका द ग्रेट’ की प्रतिमा को देख एक सुखद अनुभव हुआ – ऐसे जैसे सम्राट अशोक न्याय और दंड के रूप में बैठे हुए हैं – सम्राट वही न कहलायेगा जो न्याय कर सके … न्याय करना आसान है , क्या ? :))) ~ रंजन द ग्रेट 😉 पाटलिपुत्र , बिहार , भारत ।
सहरा की भिंगी रेत पर , मैंने लिखा आवारगी ~ मोहसिन की बेहतरीन पोएट्री । तस्वीर इसी मौसम और शायद इसी महीने की है , वर्ष था 2012 . सात साल पहले की है । शनिवार का दिन था और कॉलेज से हाफ डे के बाद मुझे अपने कॉलेज के दिनों के दोस्तों से मिलने जाना था । बेटी ने ब्लैकबेरी से मेरी तस्वीर उतारी । कई फोन आए और गए लेकिन जो रईसी ब्लैकबेरी में था – वो आईफोन में भी नजर नहीं आया । बेहतरीन लेदर के होल्डर में ब्लैकबेरी को रखिए और आराम से उस होल्डर से ब्लैकबेरी को निकालिए । शायद इस वक्त मेरे जेहन में कहीं से भी कुछ नहीं था कि अगले कुछ महीनों में ज़िन्दगी बदलने वाली है । राहु अपनी आयु के चरम सीमा पर था । खैर , जिंदगी बड़ी गुलज़ार थी । सुबह ठीक 7.35 में गाढ़ी और बासी दूध के चाय के साथ नींद खुलती थी । करीब 8 अख़बार लेता था । लेकिन सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया से ही होती थी । अख़बार और चाय के खत्म होते ही , तैयार होने की हड़बड़ी । ठीक 8.10 में तैयार ।घी से तरबतर पराठा और आलू गोभी की सब्जी । सालों भर गोभी चाहिए – जहां से आए , वो मेरा हेडेक नहीं रहता था । आराम से 8.45 में कॉलेज । 2009 में ही एसोसियेट प्रोफेसर बन चुका था सो क्लास भी कम । मुश्किल से एक क्लास प्रतिदिन । दोपहर 1 बजे वापस घर – दाल , भात , घी , अचार , नेनुआ का सब्जी , पापड़ , तीलौड़ी । डाइनिंग टेबल पर अकेले । फिर एक राउंड बाकी का अख़बार । फिर 2 बजे वापस कॉलेज । और 4.30 बजे वापसी । वापस लौट कर खुद चाय बनाते थे । बेहतरीन दार्जिलिंग चाय । बिन बैग पर पसर कर टीवी और अख़बार । मूड हुआ तो एक आध घंटे बाद , किसी दोस्त यार की महफ़िल में – टेनिस , बैडमिंटन हुआ । और देर शाम वापस । फिर लैपटॉप पर दे फेसबुक …दे फेसबुक । हा हा हा । रात 1.30 तक जागना । लेकिन तकिया के बगल में किताब का जरूर होना । लेक्चर भी मस्त होता था । पांच मिनट लेट घुसना , पांच मिनट जल्दी निकल जाना । दस मिनट अटेंडेंस । हां जी फलाना , तुम कल क्यों नहीं आए टाइप भाषण । एक घंटा के लेक्चर में – सिर्फ 35 मिनट पढ़ाते थे । वो 35 मिनट किसी परम आनंद से कम नहीं होता था । ऐसा लगता था कि जैसे झामझामा कर बारिश हो रही हो ।खुद को प्रफुल्लित महसूस करते थे । इज्जत बहुत थी । पेशा का असर था । एक तो प्रोफेसर ऊपर से दालान का लेखक । बीच में दाएं बाएं भी कमाए लेकिन उसको भी बड़ी इज्जत के साथ । लेकिन राहु कब तक इंतजार करता । 25 फरवरी , 2013 को माथा में घुस गया – चलो पटना , वापस । यहां कोई ज़िन्दगी नहीं है । हर एक इंसान असुरक्षित है । इस असुरक्षा की भावना में वो खुल कर किसी से हाथ भी नहीं मिला पाता है ।
आज ब्लैकबेरी का कनेक्शन हटवा दिया ! अच्छा नहीं लगा ! मन बहुत उदास हो गया ! अगस्त 2012 के प्रथम सप्ताह में लिया था ! टचस्क्रीन वाला मोडल है ! एक झटके में ले लिया था ! हाथ में ब्लैकबेरी , बढ़िया लगता था ! पर ऐसा लग रहा है जैसे आपकी सबसे प्यारी चीज़ बेजान हो गयी हो ! अब वो सिंपल फ़ोन की तरह काम करेगा ! अब उसपर कोई इमेल नहीं आएगा ! अब उसपर कोई बीबीएम टेक्स्ट नहीं आयेगा ! धीरे धीरे किसी रोज़ किसी दराज़ घुस जायेगा ! लेदर होल्डर में रखता था ! कितने आराम से उसको लेदर होल्डर से निकलता था ! जब तक कॉलेज में पढ़ाया , किताबों और डस्टर के बीच यह फोन भी पोडियम पर आ बैठ जाता – हक़ से ! बहुत प्यार से और संभाल के रखता था ! आज भी बिलकुल नया जैसा है ! हर दो तीन दिन पर उसको पोंछना ! न जाने कितनी अनगिनत तस्वीरें खींचा ! हर वक़्त शर्त के ऊपर वाले पॉकेट पर , पार्कर के सबसे महंगे वाले कलम के साथ यह लड़ता रहता था ! सोते वक़्त तकिया के बगल में रखना ! मेमोरी कम थी , इसलिए कभी कोई फ़ालतू का एप्प नहीं रखा , तस्वीरों से मेमोरी भर गया तब तुरंत सारी तस्वीरें डिलीट कर देता था , ऐसा लगता था जैसे मेरे ब्लैकबेरी का दम घूंट रहा है , ऐसा कैसे हो सकता है की मेरी सबसे प्यारी चीज़ का दम घूंटे ! *Action starts here वाला ऐड ! जैसे कुछ भी नया इन्फोर्मेशन आया – वो पिली बत्ती का ‘भूक भूक ‘ कर के हमको बता देना ! बहुत कुछ मिस करूँगा ! फुर्सत में कभी कभी फेसबुक को भी देख लेना ! ईमेल के जबाब के अंत में सिग्नेचर के साथ – sent from Blackberry ! दो साल हो गए दिल्ली / एनसीआर छूटे पर इस ब्लैकबेरी का नंबर नहीं बदला ! पटना में लोग टोकते थे – क्यों नहीं कोई लोकल नंबर ले लेते हैं , मुस्कुरा देता था ! यादों के फव्वारे के बीच यह फोन अभी लैपटॉप के बगल में चुप चाप बैठा हुआ है , जैसे हर वक़्त बैठा होता था – टुकुर टुकुर देख रहा है ! शायद दराज़ में घुसाने वाली बात उसके दिल को ठेस पहुंचा दी होगी , ऐसा नहीं होगा – जबतक मेरे अन्दर दम है यह साथ रहेगा – अपने उसी नंबर वाले सिम के साथ ! इतना हक तो उसका भी बनता है – वादा निभाना भी तो मेरा फ़र्ज़ बनता है …! ~ RR / 27.05.2015
स्व तारकेश्वरी सिन्हा जी देश की आज़ादी के वक़्त ‘लंदन स्कूल ओफ इकोनोमिक्स’, लंदन में थी । महज़ 26 साल में सांसद बनी और बाद में नेहरु मंत्रिमंडल में उप वित्त मंत्री भी । पटना पूर्वी / बाढ़ से चार बार सांसद भी रही । उनका यह लेख मैंने वर्षों पहले पढ़ा था । बेहतरीन वक़्ता थी और विचारक / लेखक भी । फ़ुर्सत हो तो यह लेख पढ़िए ।
इस आपाधापी के जीवन में जब कोई पूछ बैठता है कि संसद में नहीं रहने के बाद आप क्या कर रही हैं, तो जी चाहता है उत्तर दूँ कि ‘झख’ मार रही हूँ। तारकेश्वरी सिन्हा का जीवन अकसर लोग संसद के घेरे में ही देखते रहे हैं। जैसे, मैं कोई कबूतर हूँ जो संसद में ही घर बनाकर ‘गुटर गूँ’ करती रही हूँ। पर कबूतर का भी तो अपना जीवन होता है और संसद की मुँडेरों पर घोसला बना कर वह प्यार करता है, बच्चों को जन्म देता है, दाना–चारा लाकर बच्चों का पेट भरता है, उड़ना सिखाता है, और फिर एक दिन उन्हें उड़ाकर स्वयं भी घोसले को छोड़ देता है और भविष्य में नया घोसला बनाने का उपक्रम भी शुरू कर देता है।
फिर मैं क्यों संसद की सदस्य बनकर उड़ान भरने का हक नहीं रखती। संसद की सदस्य तो मैं थी, पर घर–परिवार को छोड़ा तो नहीं था, माँ बनकर माँ की जिम्मेदारी को भी निभाया था। पर यह प्रश्न तो कोई पूछता ही नहीं। जो मेरी जिंदगी में वर्षों तक छाये रहे, वो भी यही कहते हैं, “तारकेश्वरीजी, अब आप क्या कर रही हैं?” मैं यह तो कहने की जुर्रत कर नहीं कर सकती कि यह प्रश्न आप लोगों ने महात्मा गांधी से नहीं पूछा, जयप्रकाश नारायण से नहीं पूछा, अरूणा आसफ अली से नहीं पूछा कि संसद के तो आप लोग कभी सदस्य रहे नहीं, तो जीवन कैसे बिताया? फिर मुझ पर ही क्यों, आप लोग, अपने सितुए की धार तेज करते रहते हैं, जैसे मैं सिर्फ कद्दू का टुकड़ा हूँ।
वैसे राजनीतिज्ञ की जिंदगी अपने और गैरों का फर्क निरंतर मिटाने की कोशिश करती रहती है। पर क्या अंतर सिर्फ संसद के दायरे में उलझा रहता है? या फिर राजनीतिक जीवन की आपाधापी में, ‘संसद के बाहर’ उसका आधार सामाजिक परिवेश में, आर्थिक परिवेश में बहुत बड़ा होकर अपनी ही गहराइयों की तरफ खसकाता है और महसूस कराता रहता है –– सफर है, रास्ता है, फासला है कदम मंजिल, कदम ही रहनुमा है और निरंतर इन्हीं क्षणों में जीना, हमारी जिंदगी का अनूठा क्षण होता है। पर जब कोई पूछ बैठता है कि वह कौन–सा क्षण है, तो ऐसा लगता है जैसे, मैं समुद्र के किनारे बसे एक शहर के मकान की बालकनी में खड़ी हूँ और अपने सामने देख रही हूँ अनगिनत लहरों के थपेड़ों को, जो बीच से उमड़कर किनारे पर आते हैं और हलके से टकराकर न जाने कहाँ खो जाते हैं। न जाने कितनी बार उनकी गिनती की है, पर हिसाब नहीं रख पायी हूँ अब तक।
हाँ, देखा है कुछ हरे–मुरझाये पत्ते, कुछ कागज के टुकड़े, कुछ लकड़ियों के टूटे–फूटे हिस्से, कुछ बिखरे फूल और उन्हीं के बीच, जिंदगी का अहसास देती और इधर–उधर दौड़ती–सरसराती मछलियाँ। अगर मैं कहूँ कि मेरे जीवन के अनूठे अनुभवों का यही सिलसिला है –– तो क्या किसी को आश्चर्य होगा? उसी तरह की तो मेरी जिंदगी की झलकियाँ हैं –– जिनका संसदीय जीवन से कोई रिश्ता नहीं, पर मुझसे बहुत गहरा है।
अहसास मछलियों का
संसद के भवन में रहते–रहते, एक दिन महसूस हुआ कि मेरी जिंदगी भी समुद्र के तट की तरह है –– जहाँ मैं खुद एक बालकनी पर खड़ी हूँ। समुद्र की लहरों को रोज गिनती हूँ पर पकड़ नहीं पाती। और घर में रहनेवाले मेरे बच्चे उन मछलियों की तरह हो गये हैं जैसे, समुद्र में दौड़ती–सरसराती मछलियाँ। जिस दिन पहली बार यह महसूस हुआ, वही शायद मेरे जीवन का सबसे अनूठा संस्मरण है।
मेरे बड़े लड़के का इम्तहान था। उसने एक दिन मेरे कमरे में आकर कहा, “अम्मा! आप जरा मुझे नागरिक शास्त्र पढ़ा दें। मैं उसी दिन दिल्ली से बाहर जानेवाली थी। मैंने कहा कि तीन–चार दिन में लौटकर आती हूँ तो तुम्हें पढ़ा दूँगी। मैं जिस दिन सुबह लौटकर आयी, वह ऊपर के कमरे से दौड़ता हुआ किताब लेकर नीचे आया, तब तक कुछ लोग आ गये और मैं उनमें उलझ गयी। ऐसा उस दिन तीन बार हुआ। फिर वह मुझसे पढ़ने कभी नहीं आया। उस दिन से वह बहुत कुछ बदल गया। जब भी घर आता, सीधे ऊपर चला जाता अपने कमरे में, वैसे भी ज्यादातर वह बाहर ही रहता। एक बार मोटर साइकिल से गिरने से उसे बहुत सख्त चोट आयी थी। उस दिन भी उसने मुझसे कुछ नहीं कहा और सीधे ऊपर चला गया। जब मुझे मालूम हुआ कि उसे गहरी चोट लगी है, तो मैं भागकर ऊपर गयी। मुझे देखकर, लगा जैसे उसकी आँखें एकाएक अपरिचित–सी हो गयीं हैं।
उस दिन मैं बहुत ही डर गयी थी। इसलिए कि माँ, बेटे से बहुत दूर चली गयी थी। उस घटना को बरसों बीत गये हैं। अब वह लड़का काम करने लगा है दिल्ली से बाहर। दूरी में –– मैंने उसे शायद, फिर पा लिया है। उसकी चिठ्ठियों में वही प्यार और अपनापन झलकता है। पर अभी हाल में ही मैं उसकी पुरानी फाइलों को साफ कर रही थी। उसमें उसकी लिखी एक डायरी मिली। डायरी में लिखा था – ‘जब तक जीवित रहूँगा, अपनी माँ को कभी माफ नहीं कर सकूँगा। मेरी माँ संसद और राजनीति के समुद्र में खो गयी है। मैं अपने घर में भी बहुत अकेला महसूस करता हूँ, आखिर क्यों? माँ के पास सबके लिए समय है, संवेदना है, तड़प है –– पर इतनी फुरसत कहाँ कि मेरे और उनके दरम्यान उठती दीवार को वह तोड़ सकें। मैं भी बहुत चुप होता जा रहा हूँ। पर फिर भी अपने बारे में एक कविता लिख रहा हूँ।
अकेलेपन से ओतप्रोत उसकी वह कविता मेरे जीवन में, सबसे अनोखा अहसास बन गयी है और इसलिए जब–तब मुझे महसूस होता है कि मैं बालकनी में खड़ी हूँ, समुद्र के किनारे और गिन रही हूँ जिंदगी की लहरों में खोये हुए अहसासों को, मुरझाए हुए रिश्तों को और साथ ही कभी–कभी तैरती हुई मछलियों को, जिन्हें पकड़ पाना तो संभव नहीं, पर महसूस करना संभव है, इस अहसास के साथ, जैसे वो कह रही हों –– तुम हो जहाँ, बेशक वहाँ ऊँचाई है मगर इस सागर की कोख में गहरी खाई है …. ~ तारकेश्वरी सिन्हा
कभी कबड्डी खेले हो ? सामने से एक बंदा बड़ी तेजी से , अपनी दम साधे आता है , साँसों को रोक कर , तुम्हे छूता है और भाग खड़ा होता है । पकड़ भी लिया गया तो दम नही छोड़ता , साँसों को रोके रखता है । तुम उसे पकड़ भी लिए तो वो अपनी सांसे नही तोड़ता – खिलाड़ी जो है । कुछ इश्क़ ऐसे भी होते है , अपनी साँसों को रोक , सामने वाले को छू कर वापस अपने घेरे में आ जाना । दम टूटने पर अपनी हार और दम ना टूटे तो सामने वाले कि हार । और इसी ज़िद में एक पल वो तुम्हे छोड़ देता है , तुम जीत कर मुस्कुराते हो और वो हार कर मुस्कुराता है । और इसी मुस्कान में जो इश्क़ जवां होती है , बड़ी दूर तलक जाती है …बड़ी दूर … :)) कहां तक जाती है …दोनों को नहीं पता :)) तुम्हे भी पता था , उस पल के आगे तुम्हारी हार थी और उसे भी पता था , उस पल के आगे उसकी जीत थी । अब बताओ …जीता कौन …हारा कौन :)) खैर , एक सच तो है …न , भागते वक़्त हौले से तुमने उसे छू लिया , हां …उसी वक़्त जब तुम्हारी सांस भी टूट गई थी …वो एक पल तुम्हे भी याद होगा …और वो एक पल उसे भी याद है …
बड़े शहरों की अपनी कई खासियत है ! भावविहीन चेहरों के अन्दर सच में ‘भाव’ खाने की आदत नहीं होती ! किसी के पास पैसा है – वो बड़ी गाड़ी / बंगला ‘झमकाता’ तो जरुर है पर खुद की खुशी के लिए ना की खुद को बड़ा दिखाने के लिए ! कल ही एक मित्र जो विदेश में है – मैंने बातों बातों में पूछा – हॉस्पिटल आना जाना कैसे होता है – उसने अपने शहर के रेल की बात कही – फिर बोला ..यार अब इस रेल में सामने वाला अरबपति है या ख़रबपति – कोई फर्क नहीं पड़ता ! जैसे हम अपनी सीट पर बैठे हैं – वो भी बैठा हुआ है – छोटे शहरों के ‘अंटा घंटा’ से दूर हूँ – जिन्दगी में एक सहूलियत है ! दिल्ली में यही चीज़ लुभाती है – कोई अनजान आपको तौलता नहीं है – अगर आप सौ करोड़ के मालिक है तो सामने वाला दो सौ करोड़ का मालिक हो सकता है – और उसे भी पता है – वो तीसरा पांच सौ करोड़ का मालिक है ! सभी अपने काम और खेल में व्यस्त हैं ! सौभाग्यवश – अपनी परिधी को तोड़ते हुए – एक से बढ़ कर एक बड़े लोगों से मुलाक़ात हुई – कभी किसी को जटिलता में बंधा हुआ नहीं देखा – अब आप बड़े शहर में किसको क्या दिखाएँगे ? एक बहुत छोटा उदहारण देता हूँ – मेरे इंदिरापुरम आवास के दसवें तल्ले पर – एक सुप्रीम कोर्ट के जज का फ़्लैट था – हर इतवार वो पुरे परिवार आते थे – अपनी कैमरी कार से – कोई लटका झटका नहीं – नमस्ते अंकल ..नमस्ते आंटी …कैसे हो प्रोफ़ेसर …हो गया ! पहले तल्ले पर लोकसभा के काफी सीनियर पदाधिकारी का फ़्लैट – हमदोनों एक साथ निकलते थे – उनकी लाल बत्ती कार मेरे पार्किंग के ठीक पीछे – रोज वो अपने ड्राईवर को डांटते – हर रोज एक ही बात – कभी लोकसभा आओ – खुद से घुमायेंगे …:)) अब चलिए ..पटना …पिछले साल वहां के लिटरेचर फेस्टिवल …गुलज़ार अपनी नज़म पढ़ रहे हैं …उनके मंच के ठीक पास …सायरन बजाता ‘सर सिपाही’ का कार रुका …एकदम से अजीब लगा – किसको दिखा रहो हो ? एक अस्सी साल के नौजवान को क्या दिखाओगे …उसकी बोलती नज़्म के सामने तुम्हारी सायरन बहुत छोटी लगी …एक पल में तुम वहीँ पहुँच गए – जहाँ से उठ के आये थे …उसी अपने छोटे शहर के छोटे से गली में – जहाँ ‘रट्टू ‘ को ही तेज़ और पढ़ाकू माना गया ! अगले दिन अखबारों में आपके छोटेपन के किस्से भी छपे ! उसी दिन देर शाम – गुलज़ार के साथ विश्वप्रसिद्द ‘सुबोध गुप्ता’ – जिनकी कला पुरे विश्व में छाई हुई है – तुमसे गिडगिडा रहे थे – पटना मेरी जन्मभूमी है – मुझे कुछ जगह दे दो – अपनी कला यहाँ स्थापित करूंगा ! और तुम थे – अपनी कलम की जटिलता और सायरन से आगे बढ़ ही नहीं पाये – इंसान भी क्या करे – जहाँ का जन्मा होता है वह चीज़ उसको आजीवन नहीं छोड़ती ! इसलिए – मै हर एक युवा से कहता हूँ – जितना दम – उतने बड़े शहर में तब तक रहो – जब तक वो शहर तुम्हारे अन्दर ना घुस जाय – बड़ा शहर कुछ करे या न करे – तुम्हारे अन्दर के छोटेपन को समाप्त तो जरुर कर देगा ! ~ रंजन / दालान / 12.01.15