Archives August 2020

दो दुनिया …..

दो दुनिया

बिलकुल दो दुनिया होती है ! एक अन्दर की , एक बाहर की ! एक स्त्री की , एक पुरुष की ! एक निश्छल की , एक छल की ! एक प्रेम की , एक नफरत की !  एक साधू की , एक चोर की ! एक भगवान् की , एक हैवान की ! एक हमारी , एक आपकी ! एक नेता की , एक जनता की ! एक जल की , एक थल की ! एक मैदान की , एक मरुभूमि की ! एक लिविंग रूम की , एक बेडरूम की ! एक ओफ्फिस की , एक घर की ! हमारे आपके साथ भी दो दुनिया हर वक़्त साथ चलती है – एक दिल की , एक दिमाग की !   
बहुत बचपन की एक याद है , बाबा राजनीति में सक्रीय थे ! सुबह सुबह वो खुद से पान बनाते और एक बड़ा लोटा लेकर खेतों की तरफ निकल जाते ! एक सैर कर आते ! एक घंटा का सैर ! जब तक वो वापस दरवाजे पर आते तब तक दरवाजा पर सौ पचास लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी ! कोई पैदल आता , कोई साईकील से , तो कोई मोटरसाईकल से ! जिसकी जैसी सामाजिक हैसियत वह अपना जगह खोज बैठ जाता ! कोई दालान में रखे बड़े चंपारण कुर्सी पर तो कोई चौकी पर , कोई यूँ ही ओसारा पर , तो कोई भुईयां पर ! बाबा बड़े आराम से , खादी के हाफ सफ़ेद वाली चेक बनियान और धोती में , एक मोटा जनेऊ और उंगली में बेहतरीन इटालियन मूंगा , वैसा मूंगा आजतक कहीं नहीं देखा  ! लोग उनको घेर लेते थे ! सुबह नींद खुल गयी तो मै भी दरवाजे / दुआर / दुरा पर चला जाता था ! मुझे यही लगता था , मेरे बाबा जैसा कोई नहीं ! फिर थोड़ी देर बाद , बाबा आँगन में आते , एकदम आहिस्ता आहिस्ता , पैर को दबा के ! लबे हैं , बेहद आकर्षक हैं , चेहरे पर एक मस्सा ! बहुत दबे पाँव आँगन में आते थे ! अपनी बाहरी दुरा / दुआर की दुनिया से आँगन की दुनिया में , दादी की दुनिया में ! दादी को हमसभी ‘दीदी’ कहते थे ! दीदी अपने भंसा में व्यस्त ! बाबा चुपके से आँगन के ओसारा के उस कोना में बैठ जाते थे जहाँ उनका ‘पान’ एक लकड़ी के डोलची में भिंगा कर रखा होता था , वहीँ अपने पैरों पर बैठ जाते , धीरे धीरे पान लगाते ! खूब आराम से , कत्था , रत्ना चाप ज़र्दा , कला पंजुम ! हम भी वहीं बाबा के पास बैठ जाते ! ‘दीदी’ भंसा घर में व्यस्त और कुछ हलके गुस्से में , भुनभुनाती हुई , बाबा अपनी तिरछी नज़र से भंसा घर की तरफ देखते ! दीदी भंसा घर से निकलते हुए ! बाबा एकदम हलके से , धीरे से भोजपुरी में बोलते – ‘दरवाजा पर कुछ लोग आये हुए हैं , कुछ कप चाय भेजवा दीजिये’ ! अचानक से दीदी का पारा गरम हो जाता और दीदी गुस्सा में कुछ कुछ बोलने लगती थीं ! हम बच्चे आँगन के पाए के इर्द गिर्द खेलते हुए , दीदी की बातों को सुनते ! बाबा फिर चुपके से अपने पान को चबाते दरवाजा / दुआर / दुरा पर निकल जाते ! दीदी फिर चाय बनवा कर दरवाजा पर भेज देती , साथ में बाबा के लिए खूब बड़ा फुलहा / कांसा के कटोरा में चिउरा – दही भी ! दीदी गुस्सा तो जरुर होती थी लेकिन थोड़ी ही देर बाद बाबा का मन रख लेती थीं ! मेरी माँ अपने सास ससुर के बारे में कहती थीं – ‘बाबु जी तो दीदी को रानी की तरह रखते हैं’ ! मै सोचता था – हम कोई राजा रजवाड़ा तो हैं नहीं, फिर ये रानी शब्द कहाँ  से आया ? 🙂 दीदी भी जब आँगन से बाहर जाती – बाबा के जमघट पर एक नज़र दूर से – सर पर पल्लो रखते हुए – किसी किचेन हेल्पर से पूछती – ‘मालिक को कुछ जरुरत तो नहीं’ !  यह पूछते वक़्त दीदी का गुस्सा कहाँ चला जाता था – आज तक समझ में नहीं आया !तब भी लगता था और आज भी लगता है , बाबा जिनसे मिलने के लिए दरवाजा पर सैकड़ों लोग खड़े हैं , वही इंसान आँगन में घुसते ही शक्तीविहीन , कोमल ! जो दीदी आँगन में इतना गुस्सा वही बाहर झांकते हुए इतना शांत !

बिलकुल दो दुनिया थी , बाहर की दुनिया जहाँ के बादशाह बाबा होते थे और अन्दर की दुनिया जहाँ की रानी दीदी होती थीं ! दोनों एक बैलेंस बना के रखे थे ! 
जब आँगन की दुनिया में कुछ गड़बड़ी , दीदी का सारा गुस्सा बाबा पर ! बाबा एकदम चुपचाप सुनते थे ! जब बाहर की दुनिया में कुछ गड़बड़ , बाबा एकदम गुस्सा में फनफनाते हुए आँगन में आते थे और दीदी एकदम शांत ! 
क्या बैलेंस था …उफ्फ्फ ! किसने सिखाया होगा , ये बैलेंस !मैंने एक कोण से दो दुनिया की एक झलक पेश करने की कोशिश की है ! न जाने ऐसी कितनी ‘दो दुनिया’ होती है ! 


कमेन्ट कीजिएगा …:))

~ रंजन / दालान / 13.06.2016

ताजिया …

आज तजिया है ! शहर शहर , गाँव गाँव तजिया निकला होगा ! मेरे गाँव में भी ! बचपन यादों की गली से झाँक रहा है ! कई दिन पहले से तजिया को सजाने का काम शुरू हो जाता था ! लम्बे और खूब ऊँचे तजिया !
“हसन – हुसैन” करते टोली आती थी ! दरवाजे पर ! भाला , लाठी , तलवार से सजाये हुए तजिया ! बाबा के गोद में बैठ दरवाजे पर उन तजिया को देखना ! लाठी भांजने वाले वो युवक ! कभी कोई चाचा / बड़ा भाई भी लाठी भांजता था ! भाले को चमकाना और तलवार युद्ध ! बहुत रोमांच पैदा करता था !
आँगन से दादी आती थी जिस लोटा से शिव को जल , उसी लोटा से तजिया को भी जल ! कोई धर्म नहीं पता , कोई इतिहास नहीं पता ! बस यही पता की आज तजिया है ! हसन हुसैन के शहादत का दिन !
‘शौर्य और शहादत” का दिन ! भोग तो सिर्फ अपना मन और तन लेकिन त्याग / शहादत को कई सदी पुजती है !
शाम होते होते सभी ताजिया का गाँव के पास वाले उस आम के बगीचा वाले खेत में जमा होना , वहीँ किसी ठेला से जिलेबी खाना और फिर इस घमंड से अपने घर वापस आना की – मेरे गाँव वाले तजिया को सबने सबसे बढ़िया कहा !
ज़िन्दगी कहाँ से कहाँ आ गयी लेकिन जब बचपन यादों की गलिओं में झांकता है- न जाने कितने अनमोल खजाने खोज लाता है !
हां , बिहार के मुजफ्फरपुर इलाके में वहां की एक हिन्दू जाति ‘भूमिहार’ भी इस शहादत में बड़े गर्व से अपने तजिया निकालती है या उस जुलुस में उसी परंपरा से शामिल होती है ! टाईम्स ऑफ़ इण्डिया ने कई बार इसकी चर्चा भी की है ! पश्चिमी उत्तरप्रदेश के त्यागी ब्राह्मण / पंजाब के मोह्याल ब्राह्मण को ” हुसैनी ब्राह्मण ” भी कहा जाता हैं क्योंकि यही लोग करबला में हसन हुसैन की रक्षा के लिए गए थे ।
शौर्य / वीर गाथा / शहादत के किस्से – धर्म , जाति , परिवार से ऊपर उठकर – उनके गीत गाये जाते हैं !
सलाम ………हसन हुसैन …!!!!
~ रंजन
“ अयाचक , सैनिक , हुसैनी और सामंती “

ताजिया का ही अपभ्रंश है तज़िया 🙏

2016

घड़ी ….

अविनाश / ब्लैक डायल

बहुत दिनों तक हाथ में घड़ी पहन सोने की आदत बनी रही – इस बीच कई बार घड़ी स्लो हो जाती और देर से नींद खुलती – बहुत अफ़सोस और कुछ खोया खोया सा महसूस होता था – अब इस ग्लानी से ऊपर उठ चूका हूँ – लगता है – पाया ही क्या हूँ जो खोने का गम रखूं !
करीब पचीस साल पहले – अपनी पहली घड़ी खरीदी थी – बाबु जी पैसे दिए थे – साइकिल से हांफते हुए – एक दम से – पटना के हथुआ बाज़ार पहुँच गया था – अकेले ! बाबु जी हिदायत दिए थे – ‘एच एम टी ‘ का ‘जनता’ खरीदना – सफ़ेद डायल वाला ! मुझे वो पसंद नहीं पड़ा – अविनाश ले लिया काला डायल वाला ! एक बार वो चोरी भी हो गया – घर में जो पोचारा ( रंग ) करने आया था – उसी ने चोरी कर लिया – फिर दो चार हाथ दिए तो पायजामा से निकल के टेबुल पर रख दिया !
घर में एक परंपरा थी – ऐसी प्रथम घड़ी पुरुष या महिला अपनी शादी के वक्त छोटों को दे देते थे – बाबू जी भी अपनी घड़ी छोटे चाचा को दिए थे – ‘जनता’ ! पर चाचा अपनी शादी के वक्त अपनी पुरानी घड़ी मुझे नहीं दिए – परंपरा टूट गयी !
प्लस टू के बाद चाचा कुछ पैसे दिए – बस पकड़ बीरगंज ( नेपाल ) पहुँच गया – भर दम शौपिंग किया – एक और घड़ी ले लिया – उसके अंदर ‘लाल दिल’ बना हुआ था – क्वार्ट्ज़ घड़ी – बाबु जी बहुत गुस्साए – बोले – ‘छुछुन्दर’ जैसा लग रहा है – पर हम छुपा लिए – कॉलेज में कुछ ही दिन पहने – जिस दिन मुझे लगा – सचमुच में छुछुन्दर जैसा लग रहा है – होस्टल के मेस वाले को दे दिए – फेंकने में दर्द हो रहा था ! चावी वाला ‘अविनाश’ हाथ में बंधा रहा !
शादी के बाद गोल्डन टाइटन मिला – पहला दिन से ही पसंद नहीं आया – मौका के तलाश में था – पत्नी ने एक बार कुछ तीखा बोला – हम एक पल बिना गवाएं -ससुराली घड़ी सीधे खिडकी से बाहर वाले गड्ढे में – जाओ ..अब ऐश करो !
अब सस्ते घड़ी पहनने लगा – सौ रुपैये वाले – डेढ़ सौ रुपैये वाले – कई लोग टोके – कोई फर्क नहीं – एक मित्रवत शिक्षक और मेरे विद्यार्थी ‘हज’ करने गए तो एक महंगी घड़ी लेकर आ गए – आदत नहीं थी – पापा को दे दिया और उनसे उनका बयालीस साल पुराना ऑटोमैटीक सीको ले लिया – अलमीरा में रखा हुआ है !
कुछ साल पहले सास इंदिरापुरम आयीं थीं – ससुराल से मिला घड़ी का पूछताछ चालू हुआ – फिर वो थोडा ताव में आ गयीं – एक काफी ज्यादा महंगी घड़ी खरीद दीं – कोई फायदा नहीं – वो भी आलमीरा में बंद है !
छोटी बहन की शादी के समय – मन था – अपने बहनोई को खूब बढ़िया घड़ी दूँ – मना कर दिए – अरमान अरमान ही रह गए और अब मै देने से रहा !
अब मोबाईल या टैबलेट या लैपटॉप पर ही समय देखने का आदत हो गया है – वो भी क्या दौर था – जब मै ‘अविनाश’ पहन के नहा भी लेता था – अंदर पानी चला जाता – फिर धुप में उसको सुखाओ :))
~ 27 August / 2012

हाफ पैंट

हाफ पैंट भी गजब का ड्रेस है – हम जैसे छोटे शहर से आये लोग इसको पहनते ही ‘फुल्ल कॉन्फिडेंस’ में आ जाते हैं ! कार भी स्टाईल से चलाने लगते हैं – क्या कहें ..हम ! आज कल ठेहुना तक वाला फैशन में है – यूनी सेक्स – दस पॉकेट तो होगा ही ! बाज़ार में गाड़ी पार्क किये – पार्किंग टिकट किस पॉकेट में रखे – पता नहीं 🙁 गाड़ी वापस लेते वक्त – कुत्ता की तरह सब पॉकेट खोजिये – हाँफते हुए – मालूम नहीं कहाँ गया ! बचपन में ब्लू चेक लूंगी लोगों को पहनते देखे थे – अब वैसा ही चेक वाला हाफ पैंट आ गया है !
बबलू दिल्ली आया था – कलक्टर बनने – मगध ट्रेन से आता था – जाता था ! स्टेशन पहुँचते ही हाफ पैंट और रात में भी नकली रेबैन और कान में वाक् मैन – मैडोना का कैसेट पहली दफा उसके पास ही देखे थे – बस देखते रह गए थे – बोला ..कभी आओ ..दिल्ली ..मुखर्जी नगर ..और बढ़िया बढ़िया गाना सुनायेंगे – कैसेट दिखायेंगे ! बाबु जी से बोले – हमहू जायेंगे – दिल्ली – हाफ पैंट में – मगध से ! मालूम नहीं क्या हुआ – बबलू को हाफ पैंट पहनते पहनते – किसी हाफ पैंट वाली से मुहब्बत हो गया – कलक्टरी गया तेल लेने – अब वो मोमो खाने लगा ! पटना आता था – मोमो के किस्से – हम समोसा ( सिंघाडा ) वाले उब गए थे सुनते सुनते ! सुने हैं – अब उसका अपना खुद का वहीँ कहीं ‘मोमो का ठेला’ लगता है – दोनों हाफ पैंट में ही मोमो बेचते हैं – लाल खूब तीखा चटनी के साथ !
वूडलैंड ने तो और कहर ढाया हुआ है – उसका हाफ पैंट में कॉन्फिडेंस तो बहुत है – लेकिन बुलेट से भी भारी – भादों में धो दीजिए तो कातिक में सूखेगा ! सब ठीक है – लेकिन जब चिम्पू भी उसको पहन लेता है – क्या कहें …उसको देख ..चिम्पू का दो बरतुहार ( लडकी वाला – शादी हेतु ) भाग गया ! चिम्पू ..अब उसी हाफ पैंट में …प्रगति मैदान में …मेला के टाईम ‘घुघनी – चिउरा’ बेचता है …हाथ में कलछुल लिए हुए …!!!

~ रंजन / 25.08.12 / दालान ब्लॉग

सोशल मीडिया के लोग ….

लाईकबाज , कमेंटबाज़ , शेयरबाज़ और पोस्टबाज़ :
इस फेसबुक पर तरह तरह का आइटम लोग नज़र आता है , कुछ लोग लाईकबाज होता है । आप कुछ भी पोस्ट कीजिये , भाई जी का लाईक जरूर से रहेगा । आप सड़ा अंडा , टमाटर , कद्दू कुछ भी लिख दीजिये , भाईजी का एक लाईक टप से आ गिरेगा । ऐसे आइटम लोगों को इससे कोई मतलब नही की आप क्या लिखे हैं । उन्हें यह लगता है कि फेसबुक पर लाईक करना उनका धर्म है । शांतप्रिय लोग है ये । आलतू फालतू कमेंट कर कभी आपका मन नही दुखाते । बस लाईक किये और चल दिये ।
दूसरे लोग होते हैं ‘कमेंटबाज़’ ! आप कुछ भी लिखिए , इनका एक कमेंट अवश्य ही रहेगा । हर घंटे 58 मिनट ये ऑनलाइन होते हैं । जब तक ये अपने दोस्तों के वाल पर कमेंट नही करेंगे , रात में इनको नींद नही आती है । कभी कभी आधी रात नींद तोड़ कर भी ये कमेंट करते है । कई दफा दोस्तों का पोस्ट सूंघ कर भी ये कमेंट कर देते है । इनको पोस्ट के विषय वस्तु से मतलब नही होता । कभी कभी पता चलता है कि कहीं किसी अपने दोस्त के वाल पर अपने कमेंट के अस्तित्व की रक्षा में …दे रिप्लाई …दे रिप्लाई । ऐसे लोग अपने कमेंट की रक्षा को लेकर काफी सजग रहते हैं ।
शेयरबाज़ : ऐसे लोग के अंदर अहंकार मात्र भर भी नही होता । ये कुछ भी शेयर कर सकते हैं । सन्नी लियोन की तस्वीर से लेकर बाबा भोलेनाथ की तस्वीर तक । इन्हें इससे मतलब नही होता कि इनके शेयर करने से किसी को ज्ञान की प्राप्ति हुई या नही हुई । बस शेयर करना इनका नैतिक कर्तव्य होता है । हाथ मे मोबाईल आया नही की …दे शेयर …दे शेयर । ऐसे ही जीव जंतु व्हाट्स एप्प पर सुबह सुबह गुलाब के फूल के बीच अपना नाम और गुड मॉर्निंग फारवर्ड करते है । इनके 300 – 400 के बीच मित्र होते है और इनके द्वारा किये गए शेयर को एक भी लाईक नही मिलता । औसतन एक दिन में करीब 10 से 20 शेयर मिलता है । सोशल मीडिया पर एक बहस भी है कि जो लोग प्रतिदिन 10 से कम शेयर करते हैं , उन्हें शेयरबाज़ की श्रेणी में रखा जाय या नही ।
दे शेयर …दे शेयर …दे शेयर ।
पोस्टबाज़ : अधिकतर हिंदी पत्रकार टाइप । सुबह नींद खुलते ही इनको यह भ्रम हो जाता है कि देश की जनता एक हाथ मे लोटा और दूसरे हाथ मे मोबाईल लेकर इनका ‘फालतू’ पोस्ट पढ़ने को तैयार है । फेसबुक की प्राचीर से ये अपना भाषण शुरू कर देते हैं । अखबार पढ़ कुछ आलोचना , कुछ तीखा मीठा । इनका कोई अपना विचार नही होता । बेविचार होते हैं । जो करेंट टॉपिक मिला उसी पर कुछ घिस दिए । इनके पांच हज़ार दोस्त और करीब हज़ार दस हज़ार फॉलोवर होते हैं । अगर दिन में दो तीन पोस्ट नही करें तो रात में कै दस्त की दिक्कत होने लगती है । इनको रात में भुतहा सपना आने लगता है । मित्र उठो जागो , फेसबुक की प्राचीर से तुमको देश को संबोधित करना है । जनता तकिया पर माथा रख , हाथ मे मोबाईल लेकर तुम्हारे पोस्ट का इंतज़ार कर रही है । जागो वत्स , जागो । ले …अब ये आधी रात …एक पोस्ट टपका देते हैं । कुछ फालतू लोग आधी रात भी लाईक / कमेंट कर देते हैं । इन्हें मैं ‘बेचैन आत्मा’ ही कहना पसंद करूंगा । इनको घर परिवार में कोई टोकता भी नही । परिवार वाले भी सोचते होंगे – जे बलाय , फेसबुक पर बिजी है – इसको डिस्टर्ब मत करो ।
और बाकी आप जैसे निर्लज्ज भी होते है जो पोस्ट पढ़ मजा लेते है , मुस्कुराते हैं लेकिन एक लाईक / कमेंट / शेयर नही करते हैं । इन्हें लगता है कि लाईक / कमेंट / शेयर से पोस्टवाला कहीं मशहूर न हो जाये ।
जय हो …;)
~ रंजन ऋतुराज ‘पोस्टबाज़’ । 25.08.18 / दालान ब्लॉग

दालान लिट्रेचर फेस्टिवल की कहानी

अंजू की गुड़िया : एक कहानी
गर्मियाँ आते ही, मैं और मेरे तमाम, हमउम्र भाई-बहन, टाइमपास के नये-नये तरीके ढूँढते ! उन्ही में से एक खेल होता गुड्डे-गुड़िया का ! सिर्फ़ एक घर नही, पूरा मोहल्ला ही बरामदे में बसा लेते हम ! जो बरामदे से निकलता, हाँक देता- “हटाओ ये टीम-टाम!” ! गर्मी की उन लंबी दोपहरियों में, बिना पंखे के, घंटों गुड्डे-गुड़ियां खेलते रहते ! गर्मी-सर्दी का एहसास बच्चों को नही, बड़ों को होता ह !| बचपन कहाँ सर्दी-गर्मी के एहसास का मोहताज होता है?
और हां, छोटा भाई बनता, गुड़िया का नौकर ! “जाओ जाके गुड़िया को घुमा के लाओ”- उससे जान बचाने के लिए हम कहते, पर वो महाशय यूँ गये और पलक झपकते ही वापिस हाजिर ! अंजू के गोरे गुलाबी गुड्डे की शादी, मेरी सफेद बालों वाली गुड़िया (या कहें बुढ़िया से!), सिर्फ़ एक शर्त पर होती, कि दहेज में मुझे अपनी गुड़िया की पुश्तैनी, कुंडे-लगी, मरून कपड़े से मॅढी, दिग्गज अटैची, और हरी साड़ी ज़रूर देनी पड़ती; वरना शादी कैंसेल !
अंजू गुडियों के मामले में मुझ से बहुत धनी थी ! शोभना दीदी गुड़िया बनाने की कला में माहिर थी, कपड़े की ऐसी जीवंत गुड़ियाँ बनती, कि बस प्राण फूकनें की कसर रह जाती ! कभी जार्जेट के सफेद दुपट्टे काट कर, तो कभी पुरानी सिल्क साड़ियों के बॉर्डर से तैय्यार की गईं गुडियों की वो साड़ियाँ, मन को लुभाती भी, और जलाती भी ! उन्ही में से एक थी, खूबसूरत पीली साड़ी ! जार्जेट के सफेद दुपट्टे को पीले रंग में रंग कर, ऊपर से लाल छीटें मार कर बनी वो साड़ी ! साड़ी क्या थी, आँखों की किरकिरी! कई बार अंजू की मनुहार करती, आपसी विनिमय से बात बनाने की कोशिश करती, कि किसी तरह वह साड़ी मुझे दे दे, मगर सब बेकार !
गाँव में भागवत होना तय हुआ था ! ताई के साथ, अंजू, प्रीति और मैं भी गाँव गई ! हम जब भी गाँव जाते, दो ही चीज़ों का सहारा होता- गुड्डे-गुड़ियाँ, और गाँव में रखी ढेरों पॉकेट बुक्स, जिसमें होती राजा-रानी, और परियों की मन को बाँध लेने वाली कहानियाँ !
सावन का महीना था, भागवत की आरती के बोल, सुबह-शाम माहौल को गुंजायमान करते, पर मेरा मन आरती में नही, गुड़िया की उस साड़ी के पल्लू में बँधा पड़ा रहत|!| देखते ही देखते, हफ़्ता निकल गया; शाम को हम सब शहर वापिस आने वाले थे ! धीमी-धीमी पानी की फुहारें पड़ रहीं थी ! दोपहर में यूँ भी उस बड़ी दो-मंज़िली हवेली में, सूना हो जाया करता, नौकर-चाकर भी ना होते उस समय; अजीब-सा सन्नाटा तना रहता ! मैने चुपचाप गुड़िया के सामान से साड़ी निकाल ली थी, दबे पाँव सीढ़ी चढ़कर, गोल कमरे को पार कर, पीछे की बाउंड्री से झाँक कर देखा- गढ़ी चढ़ने का रास्ता साफ दिखाई दे रहा था ! मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा ! गला सूखने लगा ! पानी तेज हो गया था, मैनें देर नहीं की ! साड़ी को मुट्ठी में दबा कर, ज़ोर-से झटका दिया और नीचे फेक दिया ! ये क्या, वह तो झाड़ी में ही अटक गई थी ! गीले मन और आँखों से आखरी बार साड़ी को जी-भर के देखा ! झाड़ी के उपर खुल के बिखरी हुई कितनी सुंदर लग रही थी! चुप-चाप सीढ़ी से नीचे उतर आई थी मैं, पर अंजू को तो पता चलना ही था, सो चल गया ! बहुत ढूँढा, रोई भी बेचारी, मगर साड़ी होती तो मिलती? “जल्दी चलो! वापिस नही जाना क्या?” ताई चिल्ला रहीं थी, गाड़ी तैय्यार थी; अंजू को दिलासा दे कर, मैं तेज़ी से गोल कमरे की सीढ़ियाँ चढने लगी ! बाउंड्री से झाँक कर नीचे देखा, साड़ी अभी भी हवा में लहरा रही थी ! मगर यह क्या? रंग कहाँ गये इसके सारे? पानी से साड़ी बदरंग हो चुकी थी ! बरसात के पानी ने, ना लाल रंग को छोड़ा, ना पीले को ! गाड़ी में बैठ गई थी मैं- ना बरसात थमने का नाम ले रही थी, ना ही आँसू !


~ श्रीमती रत्ना सिंह , एमए ( अंग्रेज़ी साहित्य एवं साइकोलोजी ) , स्कूल एवं कॉलेज में पढ़ाने का अनुभव – दालान की प्रशंसक !


दालान लिटरेचर फेस्टिवल सावन – 2015 के दौरान प्रकाशित मौलिक कहानी ।

ख्याल …

एक भोर से देर रात तक में – न जाने कितने ख़याल आते हैं – अलग अलग रंग की भावनाओं में रंगे हुए – तेज़ प्रवाह वाली नदी की तरह , छप्पर उड़ा देने वाली आँधी की तरह । ये ख़याल आते हैं और चले जाते हैं । मन के पटल पर कुछ निशान छोड़ जाते हैं – वो ख़याल , वही अलग अलग रंगों वाले ।
हाथ में कलम और मुँह में उस क़लम की ढक्कन – मैं उन ख़यालों को रोकने की कोशिश करता हूँ – रुक गए तो वो लेखनी बन गए , नहीं रुके तो न जाने किधर निकल गए ।
बढ़ती उम्र ने रोज आते जाते उन ख़यालों और उन भावनाओं को समझना शुरू कर दिया है । अब पता चलने लगा है – किन्हे रोकना है और किन्हे जाने देना है ।
शायद कुछ ऐसा ही तुमने एक बार मुझसे कहा था …सुनो ..मुझे तेरी हर बात याद क्यों रहती , क्यों मैं इस ख़याल को रोक रहा हूँ …तकिए के नीचे …घड़ी के पास । ख़याल वक़्त के साथ रहेंगे बड़े हो जाएँगे ।
सुनो…तुम कुछ पेंटिंग क्यों नहीं करते …अलग अलग ख़यालों को अलग अलग भावनाओं के रंग में …गुल्लक को कभी पेंट किया है ? गुल्लक भर जाते हैं तो …हम फोड़ देते हैं …।
डरते हो …ख़यालों को पेंट करने से …बहुत डरपोक हो । डरो मत …कुछ गुल्लक कभी नहीं फूटते …कहीं किसी आलमिरा के कोने में चुपके से पड़े रहते हैं । वार्डरॉब में उस टंगे हुए पुराने सूट के पीछे । आधे भरे – आधे ख़ाली गुल्लक । सुनहरे रंग से पेंट किए हुए – वक़्त पर काम आने का विश्वास दिलाते हुए ….ख़्वाबों के शक्ल में भावनाओं से रंगे गुल्लक …
~ दालान , 11.37 PM / 20अगस्त , 2016

गुलज़ार …

Gulzar – Happy BirthDay Sir 🙂

‘खट्टी मीठी आँखों की रसीली बोलियाँ
बोलिए सुरीली बोलियाँ ‘

  • गृहप्रवेश का यह गीत एक तड़के सुबह से आँखों में गूंज रहा है ! जब आप आगे लिखते हैं – ‘रात में घोले चाँद की मिश्री – दिन के गम नमकीन लगते है – नमकीन आँखों की नशीली बोलियाँ’ !
    बस उसी वक़्त दिन ठहर जाता है और न जाने कब दिन घुल के सांझ और फिर रात हो जाता है ! एक बात कहता हूँ – मैंने कभी आपको सुना नहीं , सच में ! हर बार – आपको महसूस किया !
    कोई मुझसे पूछे की गुलज़ार कौन है ? मै तो यही कहूँगा – पिछले चालीस सालों से उम्र के उसी पडाव में खड़ा एक इंसान ! कई बार सोचता हूँ – कोई कैसे एक ख़ास उम्र में तमाम उम्र जी सकता है – चालीस वाले उम्र में ! जब आप चालीस के पहले थे तब भी आप उसी उम्र में लिखते थे और अब जब 83 वसंत ,पतझड़ , सावन देख चुके हैं – तब भी आप चालीस के लिए ही लिखते हैं :))
    कोई मुझसे पूछे की गुलज़ार कौन है ? मै तो यही कहूँगा – जीवन के इस सफ़र में गुलज़ार नाम की एक गली है , जहाँ कई बार ज़िन्दगी रुक सी जाती है ! तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी भी तो एक नज़र इस गली को देखती ही होगी ! और हम जैसे तो बस उस गली में ही अपना बसेरा बना लेते है 🙂 हाँ , वही गली जहाँ गुलज़ार अपनी नज़्म पेश करते हैं , जैसे कोई पास आया तो इलाईची दाना की तरह लेकिन उनके नज़्म हाथ कहाँ लगते हैं , बस दिल में घुल जाते हैं और बस घुलते रहते हैं 🙂
    अब मै क्या लिखूं , पिछले पांच – छः सालों में आपको सुना , देखा पढ़ा और महसूस किया !
    लेकिन आप आये भी तो मेरी चालीस में , या तो आप खड़ा मेरा इंतज़ार कर रहे थे या वक़्त ने मुझे आप तक पहुंचा दिया ! जो भी हो , आपका आना बढ़िया लगा और आपका ठहरना तो और बढ़िया ..:))
    मेरे और मेरी लेखनी की तरफ से आपको शुभकामनाएं और प्रणाम …:)
    ~ रंजन ऋतुराज / दालान ब्लॉग / १८.०८.२०१७

इस धूप में लैला की रूह नज़र आती है – कभी तिलमिलाती है – कभी मुस्कुराती है
चुप चाप मीठी धूप मेरे घर तक टपक गयी – टुकुर टुकुर देखा और प्यार हो गया :)))
~ गुलज़ार

अटल जी की स्मृति में …

अटल जी

आंखें बंद हो गयी होंगी । धड़कने रुक गयी होंगी । पर काल के कपाल पर लिखी हुई स्मृति भला कब बंद होती हैं या रुकती हैं ।
सन 1957 में लोकसभा और उनके भाषण से मंत्रमुग्ध नेहरू जी और वहीं से एक भविष्यवाणी – देश का होने वाला प्रधानमंत्री । कितना ओजस्वी वो भाषण रहा होगा कि महज 30 – 32 के एक नौजवान में देश का तत्कालीन प्रधानमंत्री आने वाले समय का प्रधानमंत्री घोषित करता है । अदभुत ।
नमन है उस मिट्टी को , नमन है उस कोख को । नमन है उस लोकतंत्र को जहां ऐसे नेता को भी पनपने का मौका मिला । नमन है उनके उस व्यक्तित्व को जिसे उन्होंने सर्वमान्य बनाया । व्यक्तित्व में राजनीतिक ओछापन नही था । सन 1977 में मोरारजी भाई के नेतृत्व वाली सरकार में विदेश मंत्री बने । साउथ ब्लॉक के गलियारे से नेहरू जी की तस्वीर हटा ली गयी – वाजपेयी जी को बहुत बुरा लगा और उन्होंने पुनः नेहरू जी की तस्वीर को साऊथ ब्लॉक के गलियारे में लगवाया । व्यक्तित्व में बडपन्नता थी – तभी तो वो जनसंघी होते हुए भी सर्वमान्य थे ।
सर्वमान्य थे तभी तो सन 1992 में कांग्रेस राज में भी उन्हें पद्म विभूषण मिला । यह किसी से खैरात में नही मिली थी – यह एक विपक्षी नेता की अपनी खुद के विशाल व्यक्तित्व की कमाई थी ।
उनके दौर में ही हमारे वर्तमान मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार को विकास की राजनीति का पाठ मिला । बतौर प्रधानमंत्री देश को चौड़े सड़कों से बांध देने की कल्पना उनकी ही थी – उनके इस कार्य करने की कला का छाप साफ साफ श्री नीतीश कुमार पर दिखता है ।
गोधरा कांड से दुःखी थे – वहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री को ‘ राजधर्म ‘ की सलाह दे दी । आडवाणी बीच मे आ गए वरना ‘राजधर्म’ क्या होता है – देश का प्रधानमंत्री एक मुख्यमंत्री को बताने को तैयार बैठा था ।
कंधार घटना उनके काल मे हुई लेकिन यह सर्वविदित है कि इस घटना में भी वो मजबूर किये गए थे । कारगिल को जीत उन्होंने पाकिस्तान को अपने तेज व्यक्तित्व का परिचय दिया । पोखरण में परमाणु विस्फ़ोट कर विश्व को फिर से चकित भी किया ।
देश किस दिशा में घूम रहा है – वाजपेयी जी वर्षों पहले मौन हुए और मौन ही निकल गए ।
राजनीति कोई भी कर सकता है लेकिन नेतृत्व एक विशाल व्यक्तित्व ही करता है – वो घर हो , मुहल्ला हो , गाँव हो या राज्य – देश । नेतृत्व किसी पद की मोहताज नही होती और मुझे यह निश्चित पता है कि अश्रुपूर्ण जनता उन्हें एक प्रधानमंत्री पद से भी ऊंचे पद के रूप में स्वीकारी है ।
अलविदा । राष्ट्र हमेशा आपका ऋणी रहेगा ।
~ रंजन ऋतुराज / 16.08.2018

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं

पिछले कुछ साल में – इंटरनेट के माध्यम से हज़ारों लोगों के बात चीत और उनके मनस्थिती को समझते हुए यही पाया हूँ की – देश या इस देश के इंसान अभी भी व्यक्तिवाद के पीछे पागल है ! मेरी यहाँ पर दूसरी राय है !
मैंने हमेशा संस्था को महत्वपूर्ण समझा है ! उस संस्था के शिखर पर बैठा इंसान का बहुत हद तक महत्व नहीं है क्योंकि जब वह संस्था मजबूत होगी – कोई भी आये या जाए – बहुत फर्क नहीं पड़ता है !
परिवार से लेकर विश्व तक – हर एक नेतृतव का यह धर्म है की वह संस्था को मजबूत बनाए ! अम्बेडकर नहीं हैं लेकिन उनके द्वारा बनाई गयी संविधान ही है की – कभी एक अर्थशास्त्री भी देश का मुखिया बन जाता तो कभी एक घोर दक्षिणपंथी ! आप पुरे देश को गौर से देखियेगा तो – यह देश इतना मजबूत ही की नेतृतव परिवर्तन से बहुत हद तक बहुत फर्क नहीं पड़ता ! अगर आस पास के दुसरे देशों को देखें तो वहां नेतृतव परिवर्तन के साथ एक भूचाल आ जाता है ! कारण यह है की – संस्था मजबूत है !
कई बार एक मजबूत नेतृतव संस्था को मजबूत बनाने के बदले उसे कमज़ोर भी करने लगता है – कई राज्य जहाँ ऐसे मुख्यमंत्री बने वह इसके गवाह है ! पर संस्था इतनी मजबूत होती है की – एक हद के बाद वह खुद नेतृतव को बदल देती है !
हम आज है – कल नहीं ! देश कल भी था , देश आज भी है और देश कल भी रहेगा ! सवाल यही है – हमारा योगदान कितना है – हम इसे कितना मजबूत बना पाते है ! वही इतिहास होगा – वही भविष्य होगा !

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं …!!!

जय हिन्द 🙏