Archives August 2020

छाता …

आइये मेरे पटना में – बारिशों का मौसम है ..:)) जबरदस्त बारिश हो रही है – मेरे पटना में …
छाता ….पहले लकड़ी वाला छाता होता था …जैसा छाता वैसा उस इंसान का हैसियत …कलकत्ता से छाता आता था …एक फेमस ब्रांड होता था …नाम भूल रहा हूँ …स्प्रिंग एकदम हार्ड …सब अजिन कजिन उस छाता को खोलने का प्रयास …किसी का उंगली ‘चिपा’ गया …बाकी सब फरार ..:)) फिर आया ..स्टील वाला छाता …नेपाल से …बटन वाला ….कोई गेस्ट अगर वैसा छाता के साथ आ गया …इतना न उसका बटन ‘पुट-पुटाते’ थे …जैसे ही बटन दबाते वो छाता खुलता …चेहरे पर एक विजयी मुस्कान …:)) फिर उसको बंद करो …फिर बटन दबाओ …फिर उस छाते को गीली जमीन में उल्टा कर के धंसा देना …लगता था ..जैसे वहां कोई किला फतह कर लिए ..:)) फिर आया ‘लेडिज छाता’ फोल्ड वाला …लाल – नीला – अलग अलग रंग वाला ….घर में छाता नहीं मिल रहा …कोई हाथ में ‘लेडिज छाता’ थमा दिया …बहुत बेइज्जती जैसा लगता था ….हूँ…रोड पर लेडिज छाता लेकर जायेंगे …हुंह …कोई देखेगा तो क्या बोलेगा …हा हा हा हा …अब वो फोल्ड हो जाने वाला छाता काला मिलने लगा …यूनिसेक्स हो गया …एक ही छाता सब लोग यूज करने लगे …
सीढीघर में …रेलिंग के सहारे खडा वो छाता …बूँद – बूँद टपक रहा ..वो छाता …कोई आया है …मेरे गाँव से … :))

14.08.14

सुना है ….

सुना है …वो मेरे दालान पर आती है …चुपके चुपके …देर चाँदनी रात …लम्बे घूँघट में झुकी नज़रों के साथ …सावन की बूँदों सी पायल की रुनझुन के साथ …दबे पाँव आधी रात …:))
कुछ पढ़ कर …कुछ सुन कर …खिड़कियों को खटखटा कर …वो वापस चली जाती है …चुपके चुपके…देर चाँदनी रात …लम्बे घूँघट में झुकी नज़रों के साथ…दबे पाँव आधी रात…:))
मैंने भी कहलवा दिया है …कभी यूँ ही आँगन में भी आया करो …:))
~ RR / 2016
पेंटिंग साभार : माधवी संदूर

कहानी साइकिल की …

कहानी साइकिल की : ब्रांड रेलेे 😊
कोई राजा हो या रंक – हमारे समाज में उसकी पहली सवारी साइकिल ही होती है और साइकिल के प्रति उसका प्रेम आजीवन रहता है – भले ही वो चढ़े या नहीं चढ़े ।
अगर आप अपने बचपन को याद करें तो बड़े बुजुर्ग ब्रांड रेलेे की बात करते थे । सन 1885 के आस पास इंग्लैंड कि यह ब्रांड भारत के इंग्लिश राज में मंझौले रईसों की पहचान हो गई थी ।
हमारे सम्मिलित परिवार में सन 1975 के आस पास तक मोटर नहीं था , आया भी तो सरकारी । हाथी घोड़ा पालकी और समपनी थी लेकिन मोटर नहीं । लेकिन बाबा के पास फिलिप्स कंपनी की हरे रंग की साइकिल होती थी । दोपहर के भोजन और विश्राम के बाद उनकी साइकिल साफ होती , बाबा बेहतरीन खादी कुर्ता और धोती में – अपने मित्रो के साथ आस पास के बड़े बाज़ार निकल जाते । गांव गांव उसी साइकिल से घूमते । आजीवन साइकिल चलाए तो उनके श्राद्ध में मैंने खुद से पड़ोस के गांव से नया साइकिल कसवा कर दान भी दिया । ऐसे जैसे टॉर्च , छाता और साइकिल – यही पहचान ।
खैर , साइकिल पर चलने के अपने एटिकेट्स होते थे । जैसे अगर आप साइकिल से हों और सामने से गांव घर का कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति आ रहा हो तो आपको चंद मिनट के लिए साइकिल से उतर कर अभिवादन करना है । इस घटना को आपमें से कई नहीं देखे होंगे – लेकिन मैंने देखा और किया भी है । सब कुछ बदल गया तो ये भी संस्कार बदल गया ।
गांव में साइकिल मांगने की प्रथा होती थी । बाबा से कोई साइकिल मांगने आया तो महिन नेता आदमी – आंगन से पूछ लो कह के अपना इज्जत बचा लेते थे और जो साइकिल मांग दिया – मेरी दादी उसकी इज्जत उतार देती थी । हा हा हा । क्या मजाल की कोई दुबारा साइकिल मांगने आए 😉
परबाबा मुजफ्फरपुर ज़िला स्कूल पढ़ने गए तो उधर से रेलेे खरीदते आए – बाबा कहते थे – रेलेे साइकिल को देखने के दस कोस से लोग आया था । हा हा हा । शायद वह तब के सम्मिलित परिवार की पहली साइकिल रही होगी । सन 1920 के आस पास । तब से लेकर आज तक हर पीढ़ी के पास उसके हाईस्कूल के दौर से साइकिल खरीदना एक प्रथा है और शायद हर मिडिल क्लास में ।
मेरी पहली बाई साइकिल भी सातवीं कक्षा में खरीदी गई थी । शायद 18 इंच वाली । उसी नए साइकिल पर सीखे भी । गजब का थ्रील आता था – जैसे इस सड़क पर हम भी अब दू पैसा के आदमी हो गए हैं :)) शायद एवन थी । फिर हीरो और फिर ब्लू कलर की बीएसए एसएलआर । कॉलेज में फैशनेबल साइकिल रखे थे । कई स्कूटर और बाइक वाले मित्र मांग कर ले जाते थे – कैट टाइप 😎
अब फिर से साइकिल खरीदने का मन । बहुत हल्का नहीं लेकिन बेहतरीन ब्रांड । रेलेे । साइकिल खरीदने जाना और दुकान में उसको कासवाना फिर घर आना :)) साइकिल को सूती कपड़ा से हर रोज पोछना और कभी कभी कभार उसका ओवर हौलिंग करवाना । नारियल के तेल से उसका रिम साफ करना इत्यादि इत्यादि – सब याद है :))
टीन येज में साइकिल से पूरा पटना धांगे हुए हैं 😎 गॉगल्स पहन कर ।
बहुत कुछ छूट गया – बहुत कुछ लिख दिया – अब कुछ आप भी लिखें :)) अपनी साइकिल की यादें …!!!
~ रंजन / दालान / 29 मई 2020

प्रेम का आधार …

शायद मैंने पहले भी लिखा था और फिर से लिख रहा हूँ ! प्रेम का आधार क्या है ? मै ‘आकर्षण’ की बात नहीं कर रहा ! मै विशुद्ध प्रेम की बात कर रहा हूँ ! मेरी नज़र में प्रेम का दो आधार है – ‘खून और अपनापन’ ! बाकी सभी आधार पल भर के लिए हैं !
यहाँ थ्योरी ऑफ़ रिलेटीविटी भी काम करती है ! खून एक जबरदस्त आधार है ! कभी गौर फरमाईयेगा – फुआ , मौसी , चाचा , मामा से आप खुद को ज्यादा नजदीक पायेंगे ! वहीँ फूफा , मौसा , चाची , मामी इत्यादी से थोड़ी दूरी ! हो सकता है – मौसा या मौसी से परिचय आपका जन्म से ही है फिर भी मौसी आपसे ज्यादा नजदीक होंगी या आप खुद को पायेंगे ! इसी आधार पर मैंने एक बार लिखा था की आप यूरोप या अमरीका में किसी पाकिस्तानी को देखते है तो आप खुद को उसके ज्यादा नजदीक पाते हैं , उसी पाकिस्तानी को आप भारत में रहते हुए दिन भर गाली देते हैं ! ठीक उसी तरह जब आप मंगल गृह पर जायेंगे तो पृथ्वीवासी ही आपके सुख दुःख को समझ पायेंगे !
शायद यह खून ही है की आजीवन पति पत्नी आपस में लड़ते हैं लेकिन औलाद के लिए दोनों के अन्दर सामान प्रेम होता है ! कई बार पुरुष यहीं फंस जाते हैं – माँ या पत्नी ! महिलायें भी आजीवन अपने पति / प्रेमी में अपने पिता की छवी तलाशती रहती हैं !
दूसरा आधार है – अपनापन ! यह बहुत लम्बे समय साथ रहने से होता है ! जब आप सुबह से शाम तक किसी के संपर्क में रहेंगे – अपनापन हो ही जाएगा और वह भी एक जबरदस्त प्रेम का आधार बन जाता है पर शर्त रहती है की आप कितने करीब हो पाते हैं ! आप एक दुसरे के खूबी / कमी को कितना महसूस कर पाते हैं !
शायद खून ही एक आधार है जिसके कारण समाज में ‘जाति’ आज भी बरकरार है ! श्री लालू प्रसाद को देख कई लोगों में यह भाव आया – कोई मेरे जैसा , मेरा कोई अपना उस शिखर पर है ! सुन्दर पिचासी को गूगल के शिखर पर देख लोगों के अन्दर भाव आया – कोई मेरा भारतीय – हम जैसा – उस शिखर पर है वहीँ से एक प्रेम छलकता है !
मेरा तो यही दोनों आधार है ! बाकी ‘आकर्षण’ को बस स्टॉप पर भी हो जाता है – इस उम्र तक यह समझ तो ही गयी है – वह आकर्षण जितना आसानी से आता है उतनी ही तेज़ी से जाता भी है ! प्रेम का तो बस एक दो ही आधार है – खून और अपनापन ! तभी तो खून जब पुकारता है – लोग सात समुन्दर पार भी अपने माता पिता के लिए बेचैन हो जाते हैं ! खून आधार नहीं होता तो ‘सौतेली माँ’ शब्द ही नहीं बनता …और ना ही एकता ‘सास बहु ‘ का सीरियल बना करोडो कमाई होती :))
और जहाँ असल प्रेम है वहीँ वफादारी भी है :))

~13 अगस्त , 2015

कहानी साबुन की …

खस साबुन

इस छोटे से जीवन में तरह तरह का साबुन देखा और लगाया लेकिन आज भी गर्मी के दिनों में खस और जाड़ा में पियर्स का कोई जोड़ नहीं है ।
बाबा को लक्स लगाते देखते थे । दे लक्स …दे लक्स । ढेला जैसा लेकिन सुगंधित । किसी पर चला दीजिए तो कपार फुट जाए । बाबू जी का पसंदीदा होता था – मार्गो – नीम वाला । जब हम लोग टीन एजर हुए तो – जिसका टीवी प्रचार बढ़िया – उहे साबुन खरीदाएगा । लिरिल 😝 आज भी लिरिल के प्रचार का कोई बराबरी नहीं कर पाया । नींबू की खुशबू के साथ – लिरिल से नहा लीजिए तो तन से लेकर मन तक फ्रेश फ्रेश 😊 नहाते वक़्त उसका प्रचार भी याद कर लीजिए 😝 मन कुछ और भी फ्रेश । फिर सिंथॉल आया – घोड़ा लेकर विनोद खन्ना अंकल ऐसा दौड़े की सिंथॉल भी बाज़ार में दौड़ने लगा – लेकिन हम कभी नहीं लगाए 😐 पिता जी उम्र के विनोद खन्ना नहीं पसंद 😐 आज तक सिंथॉल नहीं लगाए 😝
एक आता था – मोती साबुन । वो और भी ढेला । तराजू के बटखरा जैसा । चंदन की खुशबू पहली बार मोती में ही सुंघे । फिर दक्षिण भारत गए तो मैसूर चंदन वाला – सरकारी साबुन । ऐसा लगता था कि नहाने के बाद अब सीधे पूजा ही करना है – चंदन का असर होता था । कभी कभार खरीद कर थोक में घर भी लाते । अलग अलग क्वालिटी । एक्सपोर्ट क्वालिटी खरीदते वक्त एनआरआई टाइप फिल होता था 😁
लाइफबॉय का नसीब देखिए । उसका जिंदगी टॉयलेट के पास ही कट गया । कटा हुआ लाइफबॉय । जब किसी के शरीर में चमड़े का कोई बीमारी होता था तो बाबू उसको सलाह देते थे कि लाइफबॉय लगाव । हम उनका मुंह देखते थे – कोई कैसे शरीर में लाइफबॉय लगा सकता है 😐 लेकिन बैक्टीरिया मारने का सबसे बेजोड़ साबुन लाइफबॉय ही होता था ।
उसी टीनएज डिंपल आंटी गोदरेज के किसी साबुन के प्रचार में आई । कुछ ग्लोरी टाइप । ऐसा ना जुल्फ झटकी की दो चार महीना वो भी खारीदाया । कोई दोस्त महिम बोल दिया – लेडिस साबुन है । डिंपल आंटी का प्रचार मन में रह गया और साबुन दूर हो गया ।
पार्क एवेन्यू भी दूध के स्मेल टाइप कुछ प्रोडक्ट लाया लेकिन हम नहीं लगाए । बेकार । पूरा शरीर दुधाईन महकता था । फिर कुछ ओव डोब आया – जनानी टाइप । लगा के नहाने के बाद , कितना भी तौलिया से देह पोंछिए – लगता था अभी भी साबुन देह में लगा ही हुआ है 😐
लेकिन 15 साल दिल्ली / एनसीआर रहा । नया नया में फैब इंडिया गया – जेएनयू टाइप फिल करवाने के लिए – वहां से भी खस खरीदा लेकिन अफ़ग़ान ऑटो खस जैसा कहीं नहीं मिला । उत्तर भारत में ही बनता है लेकिन बिहार में बिकता है । हर साल थोक में अफ़ग़ान ओट्टो खस साबुन पटना से खरीद कर नोएडा / इंदिरापुरम जाता था । अब इसका लिक्विड भी आया है । गर्मी के दिन में ठंडा पानी से नहाने के साथ खस लगा लीजिए – पूरा दिन मन ठंडा ठंडा रहेगा । अब ये भी पहले वाला जैसा नहीं रहा – अलोए वेरा और गिलिश्रिन मिला दिया है । अब एक साबुन केक का दाम – 40 है ।
नोएडा में मॉल संस्कृति आया तो ‘ द बॉडी शॉप ‘ खुला । 300 -400 वाला साबुन भी आया । स्ट्राबेरी और मालूम नहीं क्या क्या सुगंध । वह दुकान पटना के मौर्या होटल में भी है ।
फिर , भारत का सबसे महंगा साबुन – मिलेनियम । ₹ 850 प्रति केक । 12 % चंदन का तेल । लगा लीजिए तो ऐसे ही खुद को मैसूर महाराजा समझने लगिएगा । अखोर बखोर से बात करने का मन नहीं करेगा 😝 7-8 साल से यही साबुन । बाबू जी किसान के बेटा हैं – एक दिन धमका दिए – जमीन जायदाद बेच के साबुन लगाओ 😐
हद हाल है …अब जन्मकुंडली के केंद्र में शुक्र बहुत मजबूती से बैठे हैं तो मेरा क्या दोष 😐 अब यही सब पसंद आएगा – साबुन तेल पाउडर गीत ग़ज़ल इत्यादि इत्यादि 😝
खैर …इस गर्मी अफ़ग़ान ओट्टो खस का कोई जवाब नहीं :))
~ रंजन / दालान

कुछ यूं ही …

मेरे गाँव के पास से एक छोटी रेलवे लाईन गुजरती है – हर दो चार घंटे में एक गाड़ी इधर या उधर से – पहले भाप इंजन – छुक छुक …लेकिन अब डीजल इंजन है ..भोम्पू देता है ..बचपन में छुक छुक गाड़ी को देखने के बहाने रेलवे ट्रैक के पास जाते थे ..वहाँ ..पटरी के बगल में पत्थर होते थे …कोई बढ़िया ..सुन्दर थोडा बड़ा पत्थर उठा लाते थे …घर आकर सीधे ..पूजा पर ..कभी कोई टोका नहीं ..कभी कोई रोका नहीं …कुछ दिन बाद देखा …किसी ने उसको रोड़ी / चन्दन / सिन्दूर लगा दिया ….परदादी रोज सुबह हनुमान चालीसा पढ़ती थी …बगल में बैठ जाता …मै भी परदादी के साथ बुदबुदाता …फिर मै अपने उस पत्थर को देखता ….एक श्रद्धा के साथ ..एक विश्वास के साथ …समर्पण में ..पूजा में ..प्रार्थना में बड़ी ताकत है ….श्रद्धा / विस्वास / पूजा / समर्पण ..पत्थर को भी भगवान बना दे …वरना इंसान हीरे को भी …समुद्र में बहा दे …


~ 14 August 2012