Archives September 2020

राष्ट्रकवि दिनकर की जयंती

दिनकर जी

आज राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर की जयन्ती है – जिनकी रचनाओं की धूम पुरे विश्व में रही हो – उनपर मै क्या लिखूं या न लिखूं – सिवाय इसके की – उनकी शब्दों को ही दोहराऊँ – वीर रस में डूबे उनके शब्द तो हमेशा से हमारे आपके मन को एक शक्ती देते आये हैं – अनायास ही उनकी जयन्ती की पूर्व संध्या पर उनकी बेहतरीन रचना जिसके लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला – “उर्वशी” को पढ़ा – बड़े इत्मीनान से सारी रात पढ़ा – ‘पुरुरवा’ और ‘उर्वशी’ के बीच के संवाद को – ‘पुरुरवा’ की विशालता को देख …’उर्वशी’ पूछ बैठती हैं – “कौन पुरुष ..तुम” …यह एक वाक्य का संवाद अपने आप में एक नारी के मन को कह देता है ….अद्वितीय रचना …जहाँ कल्पना भी रुक जाती है …थक हार कर शब्दों के साथ बह जाती है …और उस विशाल सागर में मिल जाती है …कभी फुर्सत में पढ़ें …’उर्वशी’ ….:))

वहीं से कुछ …दिनकर जी की श्रद्धांजलि में ….

पर, न जानें, बात क्या है !
इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है,
सिंह से बाँहें मिलाकर खेल सकता है,
फूल के आगे वही असहाय हो जाता ,
शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता.

विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से.
………
“रूप की आराधना का मार्ग
आलिंगन नहीं तो और क्या है?
स्नेह का सौन्दर्य को उपहार
रस-चुम्बन नहीं तो और क्या है?”

सिर्फ शब्दों के हेर फेर कर देने से कविता नहीं बन जाती – किसी भी कविता में अपनी कल्पना को उसके हद से भी आगे ले जाना पड़ता है – शब्दों से एक चित्र बनानी पड़ती हैं – और उसे अपने जीवन दर्शन से सजाना पड़ता है …जो भी देखे मंत्रमुग्ध हो जाए ….
फिर से एक बार फिर ….इस महान साहित्यकार को नमन !
~ 23 Sep 2013 / RR / #Daalaan #DaalaanBlog

एक लेखक – चिंतक से ज़्यादा आकर्षक कोई और व्यक्तित्व नहीं होता , उसके चेहरे पर चिंतन की आभा केंद्रित हो जाती है और वो जबरदस्त आकर्षण पैदा करती है । बात रंग , रूप , कद , काठी या बाहरी आवरण की नही है – बात उस आभा की है जो उस चेहरे पर विद्यमान होती है … :)) और जब वह चिंतन पद्द या गद्द के रूप आमजन के बीच आता है , फिर उन शब्दों की जादू वर्षों ही नही बल्कि सदियों कायम रहती है ।

दिनकर उर्वशी के परिचय के अंत में लिखते हैं –
“किंतु, उस प्रेरणा पर तो मैंने कुछ कहा ही नहीं जिसने आठ वर्ष तक ग्रसित रख कर यह काव्य मुझ से लिखवा लिया।
अकथनीय विषय !
शायद अपने से अलग करके मैं उसे देख नहीं सकता; शायद, वह अलिखित रह गयी; शायद, वह इस पुस्तक में व्याप्त है। “

~ रामधारी सिंह दिनकर , पटना
23 जून, 1961 ई.

खोजता पुरुष सौन्दर्य, त्रिया प्रतिभा को,
नारी चरित्र-बल को, नर मात्र त्वचा को।
श्री नहीं पाणि जिसके सिर पर धरती है,
भामिनी हृदय से उसे नहीं वरती है।
पाओ रमणी का हृदय विजय अपनाकर,
या बसो वहाँ बन कसक वीर-गति पा कर ।
~ दिनकर

श्रद्धा और विश्वास …एक छोटी कहानी …

शायद काफी पहले …करीब पचीस – छब्बीस साल पहले …दूरदर्शन पर हर शुक्रवार एक सीरियल जैसा ही आधे घंटे का प्रोग्राम आता था – कथा सागर ! विश्व की बेहतरीन कहानीओं पर आधारित – श्याम बेनेगल भी कई एपिसोड डाइरेक्ट किये थे – कई कहानी आज तक याद है – रेनू की कहानी ‘पञ्चलाईट’ पर भी एक एपिसोड बना था !
एक कहानी थी – कुछ अनपढ़ लोग ईश्वर के भक्त हो जाते हैं – कुछ जप तप करने लगते हैं – पर उनको सही ढंग से नहीं पता – गलत उच्चारण – जैसे तैसे – पर पुरी श्रद्धा से – उनकी परीक्षा कुछ ज्ञानी लोगों द्वारा ली जाती है – उनको एक लबालब नदी से आर पार करना होता है – अपने जप तप की शक्ती से – सभी ज्ञानी को यही लग रहा था – ये अनपढ़ क्या नदी पार करेंगे – डूब जायेंगे – पर वो नदी पार ही नहीं किये – बल्की नदी को ऐसे पार किये जैसे वो किसी सड़क पर चल रहे हों – यह देख ज्ञानी अचरज में पड गए – भगवान् के पास गए – बोले – ये क्या – जिसे मंत्र का उच्चारण भी नहीं पता – उसमे इतनी शक्ती कैसे ? भगवान् ..मुस्कुराए …बोले …श्रद्धा है …अन्दर से …और हम वहीँ रहते हैं …वही देखते हैं !

~ रंजन / दालान / 19.09.2012

आदर्श …

मुझे नहीं लगता – हम अपने आदर्श ‘भगवान् बुद्ध’ / ‘महात्मा गांधी’ जैसे महापुरुषों में खोजते हैं – आदर्श हमेशा से आस पास के लोग ही होते हैं – भगवान् बुद्ध के साथ घूम रहे उनके चेलों के लिए ‘बुद्ध’ आदर्श रहे होंगे – नेहरु / पटेल के लिए महात्मा गांधी आदर्श रहे होंगे – पर हमारे लिए – वैसे ही लोग – जिन्हें हम देखे हों !
माता पिता के अलावा भी कई ऐसे लोग होते हैं – जिनकी खुबीयाँ हमको आकर्षित करती हैं – जैसे दादा / दादी , नाना / नानी , कोई गुरुजन , कोई सीनियर बॉस ….कोई भी ! एक ख़ास समय में ..जब हमें जरुरत हो ..उनके द्वारा उसी समय कही गयी कोई बात या उनका आचरण हमें इस कदर प्रभावित करता है – हम आजीवन उसको कैद रखते हैं फिर धीरे धीरे उनकी बात या उनका आचरण हमारे जीवन में प्रवेश करने लगता है !
मै कोई गलत या सही आचरण की बात नहीं कर रहा हूँ – बात है – आप किस वातावरण में पल बढ़ रहे हैं – अगर आपके इर्द गिर्द ‘बाहुबली’ लोग ही हों – और अगर आपका झुकाव भी उस तरफ हो – फिर उन बाहूबलीओं में ही आप अपने आदर्श खोजेंगे – उनकी जीवन शैली को अपनाने की कोशिश ….कुछ भी !
आपका आदर्श कैसा है …कौन बने …इसकी भी बहुत सारी वजहें होती हैं …आप कैसे पले – बढे से लेकर …आपको क्या लुभाता है …से लेकर ..आप किस चीज़ की कमी महसूस करते हैं …कई वजहें हैं …जिन्हें हम व्यक्तिगत जीवन की मान्यताएं कह सकते हैं …
बहुत कुछ है …समझने – सोचने को …व्यक्तित्व निर्माण एक कठिन एवं जटिल प्रक्रिया है …जो किताबों में नहीं मिलती ..:))
~ #ranjanrituraj #daalaan 18.09.2013
तस्वीर साभार ~ रंजन ऋतुराज / 18.09.2017

धर्माधिकारी …

आज से बहुत साल पहले की बात होगी – तब हम ग्रेजुएशन में थे – अचानक अखबार में छपी एक खबर आँखों के सामने आयी – खबर थी – विश्व प्रसिद्द “मनिपाल ग्रुप” के पाई बंधुओं में संपती को लेकर विवाद ! तब और आज भी ‘मनिपाल ग्रुप’ बहुत फेमस है ! खबर आने लगी – दोनों भाई के बीच उनका ‘शीपिंग’ के बिजनेस को लेकर कुछ लफड़ा था – तब ही हमको पता चला बड़े लोग अपने शीप ( समुद्री जहाज ) रखते हैं – उसके पहले हॉलीवुड स्टार को ही अपने नौका के बारे में सुना था – अब तो एक साधारण सा नदी वाला नाव बनाने में दस पंद्रह लाख तक का खर्च है !
खैर …बड़े अचरज की बात सामने आई – पाई बंधू किसी कोर्ट कचहरी में नहीं गए – बल्की उड़पी के पास के ही एक ‘धर्माधिकारी’ के पास गए और रातों रात बंटवारा हुआ और दोनों खुश ! शायद इसके कुछ समय पहले ही – धर्माधिकारी नाम से राजेश खन्ना की एक सिनेमा भी आयी थी – हालांकी मैंने नहीं देखा था – पर कानों में वो शब्द पड़े थे !
पर हम थोड़े परेशान हो गए – लगा – आखिर उस धर्माधिकारी में कौन सी बात इतनी ख़ास की देश का इतना बड़ा ग्रुप उसके पास – वो ना तो डॉक्टर है – ना ही कोई वैज्ञानिक – ना कोई वकील – ना कोई राजनेता – आखिर उसका व्यक्तित्व कैसा होगा – क्या न्याय उसकी स्वभाव हो गयी ?
दरअसल आपके व्यक्तित्व निर्माण में आस पड़ोस / घर परिवार के अलावा भी कई ऐसी घटनाओं / व्यक्ती का अनजाने में योगदान होता है बशर्ते आप कितना गौर फरमाते हैं !
क्रमशः
Rajesh Kumar Singh writes :

Only Dharmadhikari of that area is, Dr. D Veerendra Heggade, Dharmadhikari of sri Kshetra Dharmasthala. I have studied in SDM (Sri Dharmasthala Manjunatheshwara) institutions, controlled by this Man, a Jain who ironically presides over the most famous Shiva Temple of Southern India.He is also nicknamed ‘Rajarshi’ for Dharmasthala is a Kingdom in reality, owning thousands of acres of land, hundreds of Institutions and thousands of crores. Beside the temple, you will find a Car Museum which exhibits hundreds of imported cars, his personal selection! Several Prime Ministers and Presidents of India have paid visit to that village deep in Western Ghats forests to have his blessings. Political leaders of all affiliations in Karnataka swear by his acumen and visit him to have his advice. All over South Canara, North Canara, Mangalore, Udupi and Hubli-Dharwad districts of Karnataka you will find a picture of Heggadeji in almost every home.

23.04.2013 / दालान

इंजीनियर्स डे …

आज सर एम विश्वेसरैया जी का जन्मदिन है ! आज के दिन उनकी याद में भारत में ‘इंजीनियर्स डे ‘ भी मानते हैं ! उनको किस किस पदवी से नहीं नवाजा गया – कहना मुश्किल है ! मैसूर राज्य के दीवान / भारत रत्न और भी बहुत कुछ ! मैसूर का फेमस वृन्दावन गार्डेन / स्टेट बैंक ऑफ़ मैसूर ..यूँ कहिये ..कर्नाटका / मैसूर ही नहीं …पुरे दक्षिण भारत यहाँ तक की ग्वालियर तक उनकी बेमिसाल सीविल इंजीनियरिंग की झलक मिल जायेगी ! विरले लोग ऐसे पैदा होते हैं – करीब १०२ साल तक वो जिंदा रहे और समाज को अपना योगदान देते रहे !
अब इंजिनियर नहीं बन रहे – पढ़े फारसी बेचे तेल – चार साल पढ़ा – मैकेनिकल – नौकरी क्या कर रहा है – आईटी – मिडिल क्लास की मजबूरी भी है – छः साल तक साईंस पढ़ा – सब बेकार – दो साल एमबीए किया – चल दिया साबुन तेल बेचने 🙁
अभी पढ़ रहा था – ब्रिटेन की रोयल एकेडमी ऑफ़ इंजीनियर्स ने नोबेल प्राईज़ के तर्ज़ पर पुरे विश्व में इंजिनीअरिंग के बढ़िया डिजाईन को पुरस्कार देगी – ज्यूरी में अपने दुसरे मैसूर वाले – नारायण मूर्ती भी हैं – इन्फोसीस में भी – इंजीनियरिंग डिजाईन को लेकर कुछ साल पहले कुछ काम किया था – नारायण मूर्ती बोले – सब बेकार – कुछ नहीं मिला – कोई नहीं मिला !
जब तक डिजाईन नहीं – इंजीनियरिंग नहीं – डिस्कवरी / नेशनल जिओग्राफी पर कुछ कुछ आता है – देखेगा कौन – स्मार्ट फोन में तो फेसबुक लोड है 🙁
~ 15 September 2012

एक कहानी …

एक बहुत ही अमीर परिवार होता था । बहुत बड़ा महल था । लेकिन एक दिक्कत थी , महल के ठीक बगल वाले ज़मीन में एक गरीब परिवार हंसी खुशी रहता था । वो गरीब परिवार दिन भर की मेहनत मजदूरी कर के एक रुपया कमाता था और शाम तक उस परिवार का वो एक रुपैया खा पी के खत्म हो जाता था । फिर वो गरीब परिवार आधी रात तक ढोल बजाता , नृत्य करता और आसमां के खुले आंगन में सो जाता था । एक खास बात थी , वह गरीब परिवार पूरे दिन में एक ही रुपैया कमाता था ।
महल वाला अमीर परिवार जब सोने जाता , उनके कानों में पड़ोस वाले गरीब परिवार के ढोल – बताशा की आवाज़ आती , जिससे अमीर परिवार के नींद में खलल पड़ती । एक दो दफा अमीर परिवार के मुखिया ने उस गरीब परिवार के आदमी को बुला कर डांटा फटकारा भी लेकिन कोई असर नही हुआ , गरीब परिवार दिन भर में एक रुपया कमाता और आधी रात तक ढोल बताशा और नृत्य करता ।
एक दिन अमीर परिवार के मुखिया को एक आईडिया आया और उन्होंने गरीब परिवार के आदमी को बुलाया । और बोला – तुम लोग हर रात बहुत बढ़िया ढोल बताशा बजाते हो , हम सभी बहुत खुश हैं और ईनाम में 99 रुपैया दे रहे हैं । गरीब परिवार का आदमी बहुत खुश हुआ और 99 रुपये लेकर अपनी झोपड़ी में लौटा, परिवार वाले बहुत ही खुश हुए , वो बेचारे तो महज एक रुपैया ही कमाते थे , कभी एक साथ 99 रुपये नही देखे थे । अचानक उस गरीब परिवार का एक काबिल लड़का बोला , काश ये 99 रुपये , 100 के नम्बरी नोट में बदल जाते । उस गरीब आदमी को बात पसंद आई । लेकिन दिक्कत थी – पूरा परिवार मिल के पूरे दिन में एक रुपया ही कमाता , कभी किसी दिन एक पैसा भी नही बचता था । अब 99 सिक्के रुपैया को 100 के नोट में कैसे बदला जाए ।
एक दो दिन बाद पूरा गरीब परिवार इस चिंता से ग्रस्त रहने लगा कि कैसे 99 सिक्के को 100 के नम्बरी नोट में बदला जाए ।
ढोल बताशा , नृत्य सब बंद हो गया ! अब इस गरीब परिवार को 99 का चक्कर लग गया ।
अमीर परिवार को देर रात पड़ोस से ढोल बताशा की आवाज़ आनी बंद हो गयी , और वो चैन से सोने लगे 😉
~ बचपन मे सुनी हुई एक कहानी , 15.09.2017

हिन्दी दिवस …

आज हिंदी दिवस है – बचपन में ईकार को लेकर बड़ी मार पडी है – शब्दों के स्त्री लिंग / पुलिंग को भी लेकर – बताईये तो महाराज – एक बच्चा क्या क्या समझे 🙁 ? ये बात हम पूछते भी तो किससे पूछते 🙁 जिससे पूछते – वही दो चटकन देने को तैयार रहता – “घी, दही हाथी , मोती , पानी ” – ये सब पुलिंग हैं …बाकी के वो सारे शब्द जो दीर्घ ईकार से बने हैं – सभी स्त्रीलिंग – लीजिये , फोर्मुला आ गया ! मैट्रीक में सबसे कम नंबर हिंदी और अंग्रेज़ी में आये – गणीत / विज्ञान / संस्कृत में बहुत ज्यादा – हिंदी / अंग्रेज़ी में जस्ट पास …:( पूरा परसेंटेज घींच के निचे 🙁
भाषण देना और लेख लिखना – बढ़िया लगता था – डॉ वचन देव कुमार से तनिक भी कमज़ोर लेख नहीं लिखते थे – व्याकरण से कोई लेना देना नहीं – बचपन में सिखाया गया – ” भाषा और सभ्यता दोनों हर चार कोस पर बदल जाती है ” – फिर ये व्याकरण कहाँ से आया ..भाई ? जब हर चार कोस पर बदल ही जाना है – फिर काहे को इतना हेडेक लें …हर समझदार भाषा लचीली होती है …समय / जगह के हिसाब से खुद में बदलाव – शुद्ध भाषा होना मतलब – अपने अस्तित्व पर ही खतरा !
अपनी अंग्रेज़ी को ही देखिये – समुन्दर है – हर साल टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में एक खबर – ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी वालों ने फलाना – फलाना शब्द जोड़ लिए ..संस्कृत / लैटिन / अरबी ..संभवतः अपने आप में एक पूर्ण भाषा हैं …
ज्यादा हमको जानकारी नहीं है ..भाई …आठवां – नौवां में हिंदी पढ़े थे ..बस …जी भर पढ़े …उसके बाद ..जो बोलते हैं…वही लिखते हैं …
पर अब …थोडा बढ़िया ..बोलना – लिखना चाहते हैं …:))

रंजन / दालान / १४.०९.२०१३

हिंदी की जिम्मेदारी किन कन्धों पर होनी चाहिए – यह महत्वपूर्ण है ! सबसे ऊपर हैं – हिंदी के पत्र पत्रिका और पत्रकार – ये वो हैं जिन्हें हम हर रोज सुनते पढ़ते हैं – हिंदी को आकर्षक बनाने की जिम्मेदारी इन कन्धों पर है – जब तक यह आकर्षक नहीं बनेगी तब तक यह जन मानस को अपील नहीं करेगी और समाज हमेशा अपनी खूबी और गन्दगी दोनों ऊँचे तबके से लेता है – “बहाव हमेशा ऊपर से निचे होता है “- हिंदी को समाज के उस तबके में अपनी पैठ बढानी होगी ! कई बेहतरीन पत्रिका बिलकुल नीरस हो चुकी हैं – कालिदास / दिनकर / निराला / जयशंकर प्रसाद को लोग हर रोज नहीं पढ़ते हैं –
दूसरी बात – साहित्य / सिनेमा इत्यादी हमेशा काल को दर्शाता है – आज के दौर के बच्चों को प्रेमचंद के किस्से की कल्पना में ढालने में बहुत दिक्कत होगी – जुम्मन शेख जैसे पात्र जब तक उनके आँख के सामने नहीं आयेंगे – वो कहानी का मर्म नहीं समझ पाएंगे – समाज का एक बड़ा तबका शहरों और विदेशों में पल बढ़ रहा है – यह वही तबका है जो हर चीज़ों का मापदंड निर्धारीत करता है – दुसरे भी उसी को फौलो करते हैं – निराला / दिनकर इत्यादी के अलावा भी कई साहित्यकार हैं जिन्हें पढ़ा जाता है – उनको जमाने के हिसाब से अपनी कथाएं लिखनी होंगी ..लिखी भी जा रही हैं …पर मौलिकता के चक्कर में वो कभी कभी गंदी भी दिखने लगती हैं ….
कई बार समाज लिड करता है – कई बार समाज को दिशा दिखानी पड़ती है – हिंदी अखबारों के पत्रकारों के लिए यह बहुत आसान है – पर दुःख है – अंग्रेज़ी की नक़ल में वो बड़े बेढंगे दिखते हैं और तब एक दर्द होता है ! जो बढ़िया लेख हैं – समाज में जो कुछ असल में हो रहा है वो सब उसी रूप और रंग में हिंदी में भी नज़र आनी चाहिए !
हाँ …पढने वालों को भी अपनी परीपक्वता बढानी होगी …और मेरा यह मानना है …परिपक्वता पढ़ते पढ़ते बढ़ जायेगी ….
~ 14 September 2014 / दालान

हिंदी पत्रिकाएं अपने बूते नहीं चलती और फलतः बीच रास्ते में ही दम तोड़ देती हैं। अपने बचपन को जब याद करते हैं तो चंदामामा की पहली याद आती है। फिर मित्र प्रकाशन की मनमोहन।१९५५-५६ में पराग का प्रकाशन आरम्भ हुआ जिसकी अतिथि संपादक कामिनी कौशल जी थी। पराग के देखा-देखी नंदन का प्रकाशन आरम्भ हुआ। चुन्नू-मुन्नू,बालक आदि का प्रकाशन बच्चों को ज्ञान वर्धन के लिए मील का पत्थर साबित होने वाली थी। किन्तु आपसी स्पर्द्धा के कारण शिव पूजन सहाय तक बालक को युवा नहीं बना सके। देखा-देखी कई समाचार प्रकाशकों ने हिंदी क्षेत्र में बाल पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया,जिसमें कलकत्ता से प्रकाशित अमृत बाज़ार पत्रिका ने आनंद मेला ने पकड़ मजबूत की। एक बात गौर करने वाली है कि अधिकाँश बाल पत्रिकाएं गैर हिंदी संगठनों ने आरम्भ किया क्योंकि उन्हें इनमें लाभ नज़र आया। चंदामामा दक्षिण भारत से निकलती थी। मनमोहन मित्र प्रकाशन (बंगाली परिवार) से निकलती थी। आनंद मेला भी बंगाल से ही निकली। इसी प्रकार कई प्रकाशन लाभ के कारण पत्रकारिता जगत में आये और फिर कुछ दिनों में समेट कर निकल पड़े। इसी प्रकार हिंदी की अन्य पत्रिकाएं भी ,यथा धर्मयुग,साप्ताहिक हिंदुस्तान,सारिका आदि ,दम तोड़ कर ख़त्म हो गयी। एक पत्रिका कहानी नाम की निकलती थी, जिसकी कहानियाँ कलेजे को छूती थी। ज्ञानोदय,नवनीत जैसी ना जाने कितनी साहित्यिक पत्रिकाएं हिंदी पाठकों के बीच अपनी पैठ जमा ली थी,पर वह भी चली गयी। कुछ समय उपरांत नया ज्ञानोदय नाम से छपने लगी किन्तु मासिक से द्वै मासिक हो गयी ,पर रुक-रुक कर निकलती है। प्रेमचंद जी की हंस का पुनर्प्रकाशन उनके पुत्र अमृत राय ने आरम्भ किया और हिंदी साहित्य जगत को काफी उम्मीदें थी,पर संभवतः अमृत राय और श्रीपत राय के आपसी मनमुटाव में उसके प्राण पखेरू तिलमिलाने लगे तो राजेन्द्र यादव नें हंस का संपादन अपने हाथ में ले लिया। हंस ठीक ही चल रहा था पर फिर उसका भी अवसान हो गया। इसी प्रकार ना जाने कितनी पत्रिकाओं ने जन्म लिया और ना चल पाने के कारण बंद कर दी गयी। हमने तो बड़े चाव से इन पत्रिकाओं को सहेज कर रखा था।वर्ष १९५५ से धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दूस्तान ,सारिका आदि का संग्रह मैंने १९७१ के फरवरी महीने तक रखा।मार्च में मेरी बदली झरिया हो गयी तो माँ ने सारी पत्रिकाएं रद्दीवाले को बेच दी। बाद में जब पता चला तो मन मसोस कर रह गया। माँ के अनपढ़ होने का नुकशान मुझे उठाना पड़ा। इसके बाद मैंने संग्रह करना बंद कर दिया। बस खरीदता,पढता और बेच देता। लेकिन मन के एक कोने में साहित्य का कीड़ा जमा रहा और वह पिछले पांच-छह वर्षों पूर्व निकला। किन्तु इस बीच हिंदी की पत्रिकाओं की दुर्दशा देखता रहा, पर कुछ कह और कह नहीं सका था ।आज रंजन जी ने प्रसंग छेड़ा तो मन बिफर गया और अपनी यादों की पिटारी से कुछ नामचीन पत्रिकाओं को स्मरण कर लिया। धन्यवाद रंजन जी।
~ बालमुकुंद द्विवेदी / 14.09.2015 / कमेंट के रूप में

छवि …

दिन की थकान और देर शांत रात – मन में हलचल पैदा करती है – वहीं से मिज़ाज के हिसाब से विचार उत्पन्न होते हैं ।
मैंने कुछ दिन पहले ‘छवि’ को लेकर लिखा था । कई बार लिखा और सोचता हूँ – कोई भी इंसान एक ख़ास छवि में कैसे हर वक़्त बँधा रह सकता है । यह मेरी सोच वर्षों पुरानी है – जब मैं प्लस टू में था और छवि को लेकर एक संघर्ष था ।
जब प्रकृति ही एक छवि में रहने को इजाज़त नहीं देती है – समाज एक इंसान को अलग अलग छवि में रहने को कहता है फिर सामने वाला उससे एक ख़ास छवि की डिमांड क्यों करता है । कुछ अजीब नहीं लगता ?
आप एक ख़ास नक़ाब कब तक पहन रखेंगे ? चरित्र का वेग इतना तेज़ होता है कि वह नक़ाब को ज़्यादा देर बर्दाश्त नहीं कर पाता । चरित्र उभर कर आ ही जाता है – क्योंकि वह ईश्वरीय दें है ।
मैं एक शिक्षक था – स्वभाव से मज़ाक़िया । दिन भर कॉलेज में एक आदर्श व्यक्तित्व का नक़ाब ओढ़े ओढ़े थकान हो जाती थी तो दोस्तों के साथ समय :)) ऐसा हर किसी के साथ होता है ।
क्योंकि सबसे ऊपर है – इंसान का मिज़ाज । अब आप किस मिज़ाज में उसे देखते हैं – और आप वहीं से उसके लिए एक छवि बना लेते हैं । पर यह ग़लत है । मैंने अपने एक पुराने लेख में – अमिताभ बच्चन के पटना दौरा का वर्णन किया था – कैसे वो बिना हेयर ड्रेसर के नीतीश से नहीं मिले – मुख्यमंत्री आवास के अंदर वो अपने कार में तब तक बैठे रहे जब तक की उनका हेयर ड्रेसर नहीं आया । वो अपने बाल बिना सँवारे भी जा सकते थे ।
एक बार पढ़ा – हिंदी सिनेमा के कलाकार – राजकुमार गंजे थे – एक सुबह उनका नौकर उन्हें बिना बिग का देख – बेहोश हो गया ।
हर किसी की चाहत की हमें एक सच्चे इंसान से दोस्ती हो – पर क्या हम उस सच्चे इंसान को बर्दाश्त कर सकते हैं ? जब मेरे अंदर हर तरह की भावना – वैसा ही उस इंसान के साथ होगी ।
पर हम सभी को एक फ़ेक / नक़ाब वाला इंसान चाहिए । तभी उर्वशी के परिचय में – दिनकर लिखते हैं – समाज बिना नक़ाब के इंसान को बर्दाश्त नहीं कर पाता है ।
हेलो….एक बढ़िया नक़ाब मुझे भी देना …शरीफ़ वाला …:))

12.09.2016 / दालान

एक कविता …

अहंकार तुम्हारा शस्त्र है
उसके बगैर जीना व्यर्थ है …

शस्त्र के साथ हर जगह नहीं …
इसके बगैर भी हर जगह नहीं ….
अहंकार अग्रज के साथ नहीं ….
कुचल दिए जाओगे …
अहंकार अनुज के साथ नहीं …
घृणा के पात्र बन जाओगे ….
अहंकार प्रेम में नहीं …
दफ़न हो जाओगे ….
अहंकार गुरु के साथ नहीं …
कफ़न में लिपट जाओगे ….

आत्म सम्मान पर जब चोट लगे …
सब भूल जाओ …
अहंकार को कवच बना
खुद को जलाओ …

मानव ही धरती को रौंदता है …
है हिम्मत तो शेर भी डरता है …
यह जीवन बार बार नहीं आता है …
है हाथ में लगाम तो आसमान भी झुकता है …

जीवन अगर युद्ध है …
तुम्हारा अहंकार ही वो अश्व है …

जब अश्व पर चाबूक लगेगा …
हवा के संग बातें करेगा ….
जीने की कला सिखाएगा ….
कुचले हुए आत्म सम्मान को उठाएगा ….

कहाँ शस्त्र उठाना है ….
कहाँ शस्त्र गिराना है …..
यही सिखना जीवन है …..
प्रेम और युद्ध दोनों के बगैर जीवन अधूरा है ….


~ RR / 11.09.2014 / दालान

बेगूसराय …

बेगूसराय

बेगूसराय :
~ इस इलाके कि पहली याद यह है कि बहुत बचपन में रांची से मुज़फ्फरपुर के रास्ते सुबह चार बजे मोकामा राजेन्द्र ब्रिज पर , परिवहन निगम के लाल डब्बा बस पर , मां हमे जगा दिया करती थी – बरौनी रिफाइनरी का जगमगाता टाउनशिप । आधी नींद में बस की खिड़की से झांक उन रोशनियों को देखना । बहुत बढ़िया लगता था :))
~ बेगूसराय की दूसरी छवि यह है कि यहां के लोग बिहार के दूसरे ज़िले से ज्यादा उद्यमी हैं । कारण स्पष्ट है – खेत था , खलिहान था और आज़ादी के तुरंत बाद ही औद्योगिकरण हुआ । गंगा पार मोकामा भी एक औद्योगिक नगर बसाया गया । और कुछ खून और मिट्टी का भी असर । बोली मगही और मैथिली की मिक्स है और व्यक्तित्व में अग्रेषण है , जिसका फायदा भी इन्हें मिलता है और नुकसान भी । महिलाओं को अन्य ज़िले से ज्यादा सामाजिक महत्व और बराबरी का दर्जा है ।
~ बिहार में कम्युनिस्ट क्रान्ति का गढ़ बेगूसराय रहा है । बीहट के लाल – कॉमरेड चन्द्रशेखर बाबू से ज्यादा इज्जत शायद ही कोई बिहारी कम्युनिस्ट पाया हो ।
~ अग्रेशन का हाल यह है कि लोग कहते हैं कि सन 1957 में ही बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्री बाबू के पक्ष में यहां के रामदीरी गांव में मतदान केन्द्र हाइजैक कर लिया गया था ।
~ यहीं के थे – इंटरनेशनल सम्राट कामदेव सिंह । बिहार में जब 1986 में टाइम्स ऑफ इंडिया लॉन्च हुआ तो अपने पहले पन्ने पर कामदेव सिंह के किस्से का सीरीज कई दिनो तक छापा गया । ये वही कामदेव सिंह थे जिनकी छवि उस दौरान रॉबिनहुड की थी और कहते हैं गरीबों की बेटी की शादी में खुलकर अपना सहयोग करते थे और बिहार नेपाल बॉर्डर के हर एक सर सिपाही को सरकार के बराबर का तनख़ाह कामदेव सिंह के तरफ से मिलता था । इंदिरा गांधी के स्वागत में उन्होंने रजिस्ट्रेशन नंबर 1 से 40 तक सफेद एम्बेसडर की लाइन लगा दी थी । तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा को अपने बिरादरी के सभी आईपीएस को कामदेव सिंह को मारने में लगा देना पड़ा था । कभी विस्तार से कामदेव सिंह की चर्चा होगी :))
~ बहुत शुरुआत में ही शहर के औद्योगिकरण होने के कारण , यहां बिहार के अन्य जिलों की तरह पैसा कमाना जुर्म नहीं माना जाता । हर घर ट्रक और एक ठीकेदारी करता नवयुवक मिल जायेगा । बिहार के कई बड़े ठीकेदार इस ज़िले से हैं ।
~ एक बात और है । यहां के लोगों में क्षेत्रवाद जबरदस्त है । विश्व के किसी भी कोना में एक बेगूसराय वाला दूसरे बेगूसराय वाला को बस बोली से पहचान मदद को तैयार हो जाता है । पांच लोगों के बीच अगर चार बेगूसराय वाले हैं तो पांचवा खुद ब खुद इग्नोर महसूस करेगा । मिथिला का यही एकमात्र असर यहां है ।
~ बाकी , बेगूसराय तो बेगूसराय ही है । सांसद अपनी मिट्टी के लोगों से नहीं चुनते हैं । मेरा स्कोप भी बनता है 😎
रंजन ऋतुराज / दालान / जिउतिया / 10.09.20