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छठ पर गोवा की पूर्व राज्यपाल मृदुला सिन्हा जी का एक लेख …

अक्सर पिछले छह दशकों की वीथियों में घूम ही आती हूं। उन स्मृतियों में सब हैं, दादा-दादी, मां-पिताजी, भाई-बहन और ढेर सारे चाचा-चाचियां और सेवक-सेविकाएं। उन्हीं रिश्तों के बीच होली-दिवाली, दुर्गा पूजा, चौथचंदा, सरस्वती पूजा और व्रत-त्योहार। सबसे ऊपर रहती है छठ पर्व की स्मृति। कितना सुहाना, कितनी आस्था। दादी द्वारा कितने सारे निषेध। चार दिनों की पूजा होती थी। तैयारी तो दुर्गा पूजा के समाप्त होते ही प्रारंभ हो जाती थी। सबसे पहले बांस का डाला और डगरा तथा सूप खरीदे जाते थे। ज्यों-ज्यों दिवाली नजदीक आती, हम बच्चों का उत्साह बढ़ता जाता। दिवाली के बाद एक-एक दिन की गिनती। हम दादी को तंग करते, ‘कब होगी छठ पूजा?’ छह दिन, छह वर्ष की भांति बीतते। ढेर सारे फल। नारियल, केला, नारंगी के साथ मूली, ओल, ईख, और भी बहुत कुछ।

नए कपड़े। घर, आंगन, दरवाजा गोबर से लिपा हुआ। पूजा के लिए डाला पुरुष के सिर पर रखकर एक किलोमीटर जाना पड़ता। गंडक नदी में सामूहिक पूजा। पश्चिम दिशा में मुंह कर पानी में खड़ी महिलाएं, थोड़े से पुरुष भी, डूबते सूर्य की पूजा करते। आकाश में सूर्य का गोला लाल हो जाता। पकवान (ठेकुआ और कसार) व फलों से भरे सूप उठा-उठाकर सूर्य को व्रतीजन अर्घ्य देते। दो, चार, पांच, छह से लेकर किसी-किसी परिवार का 21-25 सूप भी होते। बांस का डाला, बांस का सूप। पकवान बनाने में शुद्धता और पवित्रता पर विशेष ध्यान होता। एक बार मेरे नन्हे पांव डाला में लग गए थे। दादी ने मेरे पांव में चपत लगाई। सूर्यदेव से माफी मांगी। 48 घंटे का उपवास (निर्जला) करती थी दादी। नहा-खा, खरना, संझिया अर्घ्य, भोरवा अर्घ्य। चार दिनों का व्रत। दूसरे दिन प्रात:काल सूर्य उगने से पूर्व नहा-धोकर घाट पर अंधेरे में ही सिर पर डाला के दीए की रोशनी के सहारे सारा गांव नदी किनारे इकट्ठा हो जाता। व्रतीजन पूरब मुंह पानी में खड़े होकर सूर्य के लाल चक्के की प्रतीक्षा करते। सूर्य के उगने पर पुन: एक-एक सूप उठा-उठाकर अर्घ्य देते। सूप पर थोड़ा-थोड़ा दूध भी डाला जाता। घाट पर ही दादी प्रसाद बांटना प्रारंभ करतीं।

घाट पर मांगने वाले भी बहुत होते थे। प्रसाद मांग कर खाना भी और प्रसाद बांटना भी धर्म का कार्य ही माना जाता था। दादी जब घर लौटतीं, मां-चाची उनके पांव धोतीं, उन्हें भोजन करातीं और उनके लेटने पर उनके पांव दबातीं। मान्यता थी कि व्रती औरतों की सेवा करने पर पुण्य मिलता है और हृदय से आशीर्वाद भी। दादी कभी-कभी गिनती करातीं कि उनके परिवार और संबंधों में कौन-कौन बच्चा उनके द्वारा छठ पूजा करते हुए सूर्यदेव से मांगा हुआ है। मैंने एक बार शिकायत की, ‘दादी आप तो केवल बेटा मांगती थीं।’
मंगल चाचा बोल पड़े- ‘तुम भी सूर्यदेव की मांगी हुई हो।’ दादी ने सिर हिलाया।

दादी के गीत की एक पंक्ति थी- अन्न, धन, लक्ष्मी हे दीनानाथ अहंईं के देल। (हे दीनानाथ! अन्न, धन, लक्ष्मी आप ही का दिया हुआ है।) बाबूजी इस पंक्ति के द्वारा मुझे सूर्य की महिमा समझाते थे।
समय बदला, नदी का पानी सूख गया, लोग अपने आंगन में और कुएं पर गड्ढा खोदकर पानी भरकर छठ करने लगे। फिर वह आनंद नहीं आता था, जो नदी में एक साथ सैकड़ों महिलाओं-पुरुषों को देखकर आता था। मुझे भी गांव छोड़ना पड़ा। मैं दिल्ली आ गई। दिल्ली में बिहार के कुछ लोग मिलने आते थे। मैं उनसे पूछती थी कि यहां छठ होता है या नहीं। उन्होंने बताया कि सब गांव (बिहार) चले जाते हैं। मैंने भी सोचा कि मैं भी गांव चली जाऊंगी। बिहार के कई लोग मिलने आते थे। उनमें से एक ने कहा, ‘आप कहें, तो हम यमुना किनारे व्रत शुरू करें!’ मैंने कहा, ‘अवश्य शुरू करें। मुझे भी छठ के गीत गाने आते हैं।’ 1978 से यमुना किनारे छठ मनाई गई। केवल 20-30 लोग थे। दो परिवारों ने व्रत किया। घाट पर जंगल ही जंगल था। महाराष्ट्र का गणपति, गुजरात का गरवा, पंजाब का वैशाखी, उत्तर-पूर्व का बिहू, केरल का ओणम, बंगाल का दुर्गा पूजा, सभी त्योहार देशभर में झमकने लगे थे। बिहार में छठ पूजा युगों-युगों से होती थी। बिहारियों का कदम दिल्ली की ओर बढ़ रहा है। यहां भी छठ को झमकाना चाहिए। धीरे-धीरे बात जमने लगी। कुछ संगठन इसके लिए काम करने लगे। उन्होंने घाट की सफाई, डगरा, सूप, दौरा सहित बहुत-सा सामान दिल्ली मंगवाना शुरू किया। धीरे-धीरे दिल्ली, मुंबई, जहां-जहां बिहारी गए, वहां-वहां उन्होंने छठ पर्व को झमका दिया। इससे अन्य राज्यों के लोगों को भी सूर्य पूजा की जानकरी हो गई।

दो महीने पहले मैं गोवा आई। पता चला कि यहां भी बिहार के लोग कम नहीं हैं। गोवा में कुछ लोग मिलने आए। वे छठ के लिए बिहार नहीं जाते हैं। पूछने पर पता चला कि कुछ लोग सागर बीच पर और कुछ लोग नदी में भी व्रत करते हैं। गोवा के राजभवन के किनारे खड़ी होकर प्रतिदिन मैं सूरज को समुद्र में डूबते देखती हूं। समुद्र और सूरज का गहरा संबंध है। मिथक कथा के अनुसार सूर्यवंशी सगर के सौ पुत्रों ने सागर की खुदाई की थी। त्रेता युग में सूर्यवंशी राम ने लंका जाने के लिए पुल बनाते समय जब सागर को ललकारा था- विनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब भय बिनु होई न प्रीति॥ सागर प्रकट हुआ। राम को उनका वंशज होने का स्मरण ही नहीं दिलाया, पुल बनाने का गुर भी बताया। सागर सामने पसरा है। उसे देखकर मन में यह विचार आता है कि कठौता भर ही जल क्यों न हो, जल में खड़े होकर ही सूर्य की पूजा करने का विधान स्मरण दिलाता है कि सूर्य और जल का अटूट रिश्ता है। इस बार गोवा में ही छठ मनाने का निश्चय किया। शाम और सुबह भी घाट पर जाऊंगी। दादी ने ढेर सारे गीत सिखाए थे। अब तक उन्हीं के लहजे में गुनगुनाती और गाती हूं। इस बार गोवा के घाट पर भी गाऊंगी। कितने अर्थवान हैं ये गीत। व्रती महिलाएं सूर्य से वार्तालाप करती हैं। सूर्य उनकी मांगपत्र को सुनकर प्रमाणपत्र देते हैं- एहो जे तिरिया सभे गुण आगर, सबकुछ मांगे समतुल हे। एक गीत में व्रती महिला के मांगने पर सूर्य भगवान उसे पुत्र देते हैं। परंतु आगाह करते हैं- देवे के त देलिअउगे बांझिन, गरव जनि बोल, गरव से बोलवे गे बांझिन, उहो लेबो छीन। गीतों में बेटी भी मांगी जाती है। छठ के समय स्वच्छता और पवित्रता पर विशेष ध्यान दिया जाता है। काश! हम उस स्वच्छता और पवित्रता को अपने जीवन का अभ्यास और संबल बना लेते।नदी, तालाब, कुआं और आंगन में छठ पूजा देखी थी। अब देखती हूं, समुद्र में छठ पूजा का कैसा आनंद आता है। आस्था कितनी गहराती है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

~ 28 अक्टूबर , 2014

मेरा गांव – मेरा देस – मेरी दिवाली :))

एक बार फिर दिवाली आ गया ! हर साल आता है ! यादों का मौसम एक बार फिर आया ! अभी अभी पटना से लौटा हूँ – कई लोग फिर से बोलने पूछने लगे – ‘दिवाली में भी आना है ?’ अरे ..मेरे भाई ..हम पेटभरुआ मजदूर हैं ..कहाँ इतना पैसा बचाता है कि ..हर पर्व त्यौहार में घर-गाँव जा सकें !
स्कूल में पढते थे ! कई दिन पहले से सड़क पर् ईट लगा के चौकी पर् ‘पड़ाका’ ( पटाखा ) बिकता था ! स्कूल से लौटते वक्त उन पडाकों को मन भर देखना – दोस्तों से तरह तरह के ‘पडाकों’ के बारे में बात करना – खासकर ‘बम’ ..एटम बम ..बीडिया बम.. हई बम ..हौऊ बम – सड़क पर् लगे चौकी पर् चादर बिछा कर पठाखे को देख उनको एक बार छूना …! फिर ..घर में पिछले साल के बचे पटाखे खोजना और उनको छत पर् चटाई बिछा करने धूप दिखाना ! उफ्फ़..वो भी क्या दिन थे !
दिवाली के एक दो दिन पहले से ही .खुद को रोक नहीं पाते ..कभी बालकोनी तो कभी छत पर् जा कर एक धमाका करना और उस धमाके के बाद खुद को गर्वान्वीत महसूस करना ! फिर ये पता करना की सबको पता चला की नहीं ..मैंने ही ये धमाका किया था 🙂 कार के मोबील का डब्बा होता था – उस तरह के कई डब्बों को दिवाली के दिन के लिये जमा करना और फिर दिवाली के दिन उन डब्बों के नीचे बम रख उनको आसमान में उडाना 🙂

धनतेरस के दिन दोपहर से ही ‘बरतन’ के दूकानदारों के यहाँ भीड़ होती थी – जो बरतन उस दिन खरीदाता वो ‘धनतेरस वाला बरतन’ ही कहलाता था ! अब नए धनीक बैंक से सोना का सिक्का खरीदते हैं – तनिष्क वाला डीलर धनतेरस के दिन राजा हो जाता है ! पब्लिक दुकान लूट लेता है !

दीया का जमाना था – करुआ तेल डाल के – स्टील के थरिया में सब दीया सजा के घर के चारों तरफ दीया लगाना  ! इस काम में फुआ – बहन लोग आगे रहती थीं – हमको इतना पेशेंस नहीं होता ! बाबु जी को कभी लक्ष्मी पूजन में शरीक होते नहीं देखा – मा कुछ आरती वैगरह करती थीं – हम लोग इतने देर बड़ी मुश्किल से खुद को रोक पाते ! पूजा के बाद लड्डू खाया और फरार !

कॉलेज गया तो – ‘फ्लश’ ! एक दोस्त होता है – पंडित ! बेगुसराय का पंडित ! बहतर घंटा लगातार ‘फ्लश’ का रिकॉर्ड – पंडित  के चक्कर में ! बहुत बड़ा करेजा था उसका ! अब तो रिलाइंस में मैनेजर है – लेकिन कॉलेज के ज़माने उसके दबंगई का कोई जोड़ नहीं ! दिवाली के दस दिन पहले से ही पंडित के यहाँ कॉलेज के सभी  वेटरन जुआरी सीनियर – जूनियर पंडित के कमरे में पहुँच जाते ! पब्लिक के जोर पर् ‘नेता’ भी शामिल होते ! हमारा पूरा गैंग ! हंसी मजाक और कभी कभी मामला काफी सीरिअस भी ! हारने पर् हम अपना जगह बदलते या फिर कपड़ा भी – यह बोल कर की – यह ‘धार’ नहीं रहा है ! 🙂 कई दोस्त इस दिन गर्ल्स होटल के पास मिठाई और पटाखे के साथ देखे जाते ! 🙂

बचपन में दीवाली की रात कुछ पटाखे ‘छठ पूजा’ के लिये बचा कर रखना – और फिर अगले सुबह छत पर् जा कर यह देखना की ..पटाखे के कागज कितने बिखरे पड़े हैं 🙂 अच्छा लगता था !

नॉएडा – गाजियाबाद आने के बाद – मुझे पता चला की – इस दिन ‘गिफ्ट’ बांटा जाता है ! अब मुझ जैसे शिक्षक को कौन गिफ्ट देगा 🙂 खैर , बिहार के कुछ बड़े बड़े बिल्डर यहाँ हो गए हैं और पिछले साल तक दोस्त की तरह ही थे – सो वो कुछ कुछ मेरी ‘अवकात’ को ध्यान में रखते हुए – भेज देते थे 🙂 घरवालों को भी लगता कि हम डू पैसा के आदमी हैं 🙂 लेकिन ..इस गिफ्ट बाज़ार को देख मै हैरान हूँ ! मेरा यह अनुमान है की कई ऐसे सरकारी बाबु हैं – जिनको दिवाली के दिन तक करीब एक करोड तक का कुल गिफ्ट आता है !  जलन होती है – पर् सब दोस्त ही हैं – सो मुह बंद करता हूँ 😉 वैसे इनकम टैक्स वाले अफसर भाई लोग को ‘१-२ लाख’ का जूता तो मैंने मिलते देखा है ! मालूम नहीं ये जूता कैसे चमड़ा से बनता है 🙁

इस बार मै भी धनतेरस में एक गाड़ी खरीदने का सोचा था ! डीलर भी उस दिन देने के मूड में नहीं था ! कोई नहीं – अगला साल ! पटना के फेमस व्यापारी अर्जुन गुप्ता जी जो मेरे ससुराल वालों के काफी करीबी हैं – कह रहे थे – नितीश राज में हर धनतेरस को लगभग ४०-५० टाटा सफारी बिकता है !

01.11.2010 / दालान

पोंच …

जाड़ा आ ही गया ! मेरे बिहार में जाड़ा के आते आते ही आपको गली – गली में हर चार कदम पर ‘अंडा’ का दूकान मिल जाएगा । – चार वर्ष का बच्चा से लेकर सत्तर साल के बुढा तक दुकानदार मिल जाएगा – इसी उम्र का खाने वाला भी ! एक ठेला पर सजा हुआ ‘अंडा’ – बगल में एक किरासिन स्टोव पर अलुमिनियम तसला में उबलता हुआ – ‘अंडा’ ! झप्पू भईया का हीरो हौंडा रुका – बाईक पर बैठल बैठल चार ठो ‘उबला हुआ’ अंडा का ऑर्डर ! अभी वो ‘अंडा’ छील ही रहा है – तब तक झ्प्पू भईया बोले – दू ठो ‘पोंच’ बनाओ ! अंडा वाला स्टोव में – दे पम्प – दे पम्प ! झ्प्पू भईया भी एक दम स्टोव की तरह ‘हाई कान्फिडेंस’ में ! अभी झ्प्पू भईया एक उबला हुआ अंडा खाए ही की उधर से ‘चिम्पू’ भी टहलता हुआ – दू ठो ‘पोंच’ उसके लिए भी ऑर्डर हुआ – अब वो झ्प्पू भईया के पैसा से ‘पोंच’ खा रहा था – मन ही मन खुश – कैसा जतरा है – मुफ्त में दू ठो ‘पोंच’ मिल गया ! अब उसका धर्म बनता है – झ्प्पू भईया का बड़ाई – अब चिम्पू पोंच का पैसा पैसा ..बड़ाई कर के चुकता करेगा – भईया ..आपका हीरो होंडा गजब …भईया आपका चप्पल गजब …भईया ..आपका घड़ी गजब ! झ्प्पू भईया भी समझ गए …चलते चलते …एक – एक और ‘पोंच’ का ऑर्डर हुआ !
मेरे बिहार में ‘पोंच’ का फैशन है – जिसको बाकी के भारत में ‘हाफ फ्राई’ कहते हैं ! ‘पोंच’ को एक मध्यम आकार के ‘कलछुल’ में घी या करुआ तेल में बनाया जाता है ! कई भाई बंधू जो एक बार में छः ‘पोंच’ खड़े खड़े डकार लें – उन्हें उनके मित्र मंडली में ‘पोंचवा’ की उपाधी दी जाती है ।
~ दालान / १२.११.२०१३

गोभी … :))

फूलगोभी की इस तस्वीर को देख आप मक्खन भूल जाएंगे । सीजन आ गया है । सुबह सुबह नहा धों कर , हल्का गीला गरम भात पर दो चम्मच घी और ‘ गरम गरम गोभी आलू ‘ का सब्जी । उसके बाद रोजी रोटी कमाने निकल जाइए ।


गोभी जबरदस्त कमजोरी है । सालों भर चाहिए । अब वो १०० रुपए किलो मिल रहा है या रुपैया का एक किलो – कोई फर्क नहीं पड़ने वाला ।
नया नया नोएडा गया था । सुबह सुबह नाश्ते में घी से लथपथ दो पराठा और छोटी थाली / छिपली में गरम गरम आलू गोभी का सब्जी , हरा धनिया डाला हुआ । मस्त नाश्ता के बाद । बजाज चेतक पर दे किक …दे किक ।
आलू गोभी की भुजिया भी बेहद पसंद । मेसरा में पढ़ता था – हॉस्टल नम्बर 5 के मेस में , साढ़े चार रुपया में , बड़का कढ़ाही से , छनौटा से गरम गरम फ्रेंच फ्राय जैसा भुजिया । भर पेट खाइए और चैन से सिंगल रूम में एक नींद । नवंबर के महीना में , भागलपुरी अंटी चादर ओढ़ । मेरे जेनेरेशन में कहा जाता था कि मणिपाल और मेसरा में लोग पढ़ने कम और खाने ज्यादा जाता था । हा हा हा ।
नॉन वेज छूट गया है । निल । बस कभी कभार अंडा , वो भी प्रोटीन के लिए । आजकल एकदम सात्विक भोजन का मन करता है ।
रात में गोभी पराठा । अभी गांव गया था तो एक रात मस्त पराठा । थोड़ा जला हुआ तावा पर – बड़का बड़का गोभी पराठा । इस सीजन आपके किचेन गार्डन में गोभी के फूल नहीं निखर रहे , फिर सब बेकार । सुबह सुबह किचेन गार्डन में टहलते हुए – हां जी , ये वाला फूल खिल रहा है , आज भात दाल पर इसी फूल का ‘ बचका ‘ बनेगा । एकदम सरसों के तेल में छनाया हुआ – गोभी का बचका । खाइए और खटिया धर लीजिए , बरामदा में । सब कुछ लौट आएगा लेकिन यह वक़्त / मौसम और मिजाज़ कहां से लौटेगा ।
वैसे भी 2019 खत्म होने में बस पौने दो महीना रह गया है । अब , सब नया काम 2020 से शुरू होगा ।
तब तक जाड़ा का आनंद लेने दीजिए … :))
~ रंजन / दालान / 07.11.2019

सोच …फुर्सत में अवश्य पढ़ें

लिखने से पहले ..मै यह मान के चल रहा हूँ …मेरी तरह आप भी किसी स्कूल – कॉलेज में पढ़े होंगे – जैसी आपकी चाह और मेरिट या परिस्थिती ! अब जरा अपने उस ‘क्लास रूम’ को याद कीजिए – चालीस से लेकर सौ तक का झुण्ड – कुछ सीनियर / जूनियर को भी याद कर लीजिये ! “एक क्लासरूम में लगभग एक ही मेरिट के विद्यार्थी – पर सबका मकसद अलग अलग ..:)) “
किसी को पढने में मन लगता है तो वह अपने मन लगाने के लिए पढ़ रहा है – किसी के खानदान में सभी पढ़े लिखे हैं – इसलिए वो पढने आ गया – नहीं पढ़ेगा तो लोग क्या कहेंगे – किसी को पढ़ लिख के नौकरी पकड़ना है – इसलिए वो पढ़ रहा है – कोई अपने परिवार का प्रथम जो ग्रेज्युएट होने जा रहा – इसलिए वो भी है – किसी को टॉप करना है तो वो प्रथम बेंच पर बैठा हुआ है – कोई ज्ञान के लिए पढ़ रहा है – भले पास करे या फेल -कोई मेरी तरह भी-नहीं पढ़ेगा तो बढ़िया कुल खानदान में बियाह नहीं होगा टाईप 😂
मेरिट एक – वातावरण एक – बस मकसद / सोच अलग अलग – पुरी ज़िंदगी की दिशा और दशा ही बदल गयी – वही पढ़ाई पढ़ के कोई कम्युनिस्ट का नेता बन गया तो कोई टाटा संस में वाईस प्रेसिडेंट ( विनोद मिश्र और गोपालकृष्णन दोनों आईआईटी – खड़गपुर से सत्तर के दसक में साथ साथ पढ़े ) ! कई बार वो मकसद / सोच जिन्दगी के बीच राह में बदल भी जाती है ! एक बहुत ही करीबी मित्र से यूँ ही गप्प हो रही थी – बहुत ही बढ़िया कूल खानदान का और विश्वस्तरीय स्कूल कॉलेज से पढ़ाई – कहने लगा ‘शौक’ के लिए पढ़ा – पढ़ते वक़्त कभी लगा ही नहीं – पैसा भी कमाना लक्ष्य है – जिस प्रथम दिन नौकरी के लिए जाना था – बाथरूम में फूट – फूट कर रोया !
अपने जीवन की एक छोटे हिस्से की बात बताता हूँ – बंगलौर में नौकरी करता था – यह पता था – आज नहीं तो कल वापस लौटना है – और जब लौटना ही है – फिर क्यों न वह ज़िंदगी जी लो – जो शायद पटना में नहीं मिले – सुबह कंपनी – दोपहर कर्नाटका सेक्रेटेरियेट में भोजन – शाम एमजी रोड – और वीकएंड सुबह इंडियन कॉफ़ी हॉउस में डोसा ..जी भर जिया …आज से 18-19 साल पहले – जितनी मेरी क्षमता उससे बड़ी ज़िंदगी मैंने जी – उस हद तक जी की अब कोई प्यास नहीं ! मकसद ही अलग था ! दिल्ली गया – पिता जी का दबाब – फिर से नौकरी करो – जब वहां गया – एक ही महिना में खुद के लिए फ़्लैट खोजने लगा – बीआईटी – मेसरा की बढ़िया नौकरी छोड़ दी – लगा वापस रांची चला गया – दिल्ली या आसपास अपना फ़्लैट नहीं हो पायेगा – चाईल्ड साइकोलोजी – बड़े लोगों का महानगर में अपना फ़्लैट होता है ! जिस साल रजिस्ट्री करवाया – दिल्ली से आधा मोहभंग – और जिस दिन लोन चुकता किया – पूरा मोहभंग – मकसद ही अलग था – कभी किसी को यह नहीं बताया – मै नॉएडा के एक बेहतरीन कॉलेज में प्रोफ़ेसर हूँ – मकसद प्रोफ़ेसर बनना था ही नहीं !
कौन गलत है और कौन सही है – कहना मुश्किल है ! दरअसल हम इतनी छोटी दुनिया से आते हैं और अपने हाथ में एक सामाजिक स्केल लेकर बैठ जाते हैं और उसी स्केल से हर किसी को नापने लगते हैं ..
उसी पद पर बैठ – लालू / राबडी ने सामाजिक न्याय का रथ चलाया – उसी पद पर बैठ नितीश विकास की बात सोचे – उसी पद पर बैठ वर्तमान मुख्यमंत्री अलग बात कह रहे हैं – सबका मकसद अलग अलग – कल कोई और आएगा – उसका मकसद अलग होगा !
और यह मकसद – उसके आंतरिक व्यक्तित्व से निकलता है …:))

मुझे ऐसा लगता है – ज़िंदगी या किसी भी अन्य चीज़ के लिए ‘सोच’ के तीन आधार है – १) ईश्वरीय देन २) परिवेश / खून ३) वर्तमान – अब इन तीनो में जो कुछ आपके उस सोच पर हावी होगा – वैसे ही आपके एक्शन या प्लान होंगे !
यह ईश्वरीय देन है जिसके कारण एक ही परिवेश / एक ही कोख से जन्मे / एक ही वर्तमान में जी रहे
दो लोग ज़िंदगी के प्रती अलग अलग सोच रखते हैं या अपना मकसद बनाते हैं ! हर एक इंसान को ईश्वर एक अलग सोच देकर इस धरती पर भेजता है ! उस सोच को आप बदल नहीं सकते – अगर आपको लगता है – आपकी कोई एक ख़ास सोच गलत है – फिर उसको बदलने के लिए बहुत ही कठोर साधना की जरुरत होती है – जिसे हम मन का निर्मलता भी कह सकते हैं ! जैसे अलग अलग जानवर अपनी अलग अलग विशेषता के लिए जाने जाते हैं – ठीक वैसे ही इंसान भी है – अब ईश्वर ने आपकी सोच भेड़िया वाला बना के भेजा है फिर आप शेर की तरह वर्ताव नहीं कर सकते – ईश्वर ने आपका दिल चूहा वाला दिया है – फिर आप हमेशा एक डर में जियेंगे – यह कोई समाज या परिवेश नहीं बदल सकता है – यह इंसान अपनी असीम ‘विल पावर’ से बदल सकता है – इसी तरह सकरात्मक सोच भी होते हैं – जिसका फायदा इंसान अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक उठाता है !
दूसरा महत्वपूर्ण है – परिवेश – आप किस परिवेश में पले बढे हैं – मेरी बड़ी दादी कहती हैं – आदमी कहीं भी चला जाए – जहाँ का जन्मा होता है वह उसके साथ हमेशा रहता है ! मेरे एक दोस्त है – काफी वर्षों से बाहर ही सेटल है – बचपन का नहीं पर बचपन जैसा ही है – जब कभी पटना आएगा – मै फोन करूंगा – मुलाक़ात होगी ? उधर से जबाब – गाँव जा रहा हूँ – बेटी को बकरी / देसी गाय का दर्शन करवाना है – उसके पिता भी भारत सरकार से रिटायर है – किताबों के जबरदस्त शौक़ीन – घर में ट्रंक के ट्रंक किताब – एक दिन पूछा – तुम्हारे ..पापा का क्या हाल है …दोस्त का जबाब आया …गाँव गए हुए हैं ..तोडी / सरसों तुडवाने …:)) अब सोचिये …एक इंसान प्रिंस स्टाईल जीवन …खेतों में घुसा हुआ – यह परिवेश ..खून का असर है …मै जिस समाज से आता हूँ – वहां का लड़का हारवार्ड में भी टॉप करके – अगर बिहार आया तो वो एक नज़र अपने खेतों को जरुर देखना चाहेगा – अगर नहीं देख पाया तो उसका हिसाब किताब जरुर लेना चाहेगा …:))
जीवन के सोच को लेकर – परिवेश का बहुत महत्व है – कई बार मै उस तरह के इंसान से बहुत नजदीक हो जाता हूँ – जिसका परिवेश / लालन पालन मुझ जैसा हुआ हो – जिसको हम ‘बेसिक क्लास’ कहते हैं – आप कहीं भी चले जाएँ – आपका बेसिक क्लास क्या है – वही क्लास आपके संबंधों को मधुर या ज़िंदा रखेगा और इस बेसिक क्लास का आपके वर्तमान वैभव से / वर्तमान कठिनाई इत्यादी से कुछ नहीं लेना देना होता है !
एक और अनालौजी देना चाहूंगा – मै जब नॉएडा में पढ़ाने लगा तो देखा एक क्लास में तीन तरह के विद्यार्थी हैं – प्रथम जो दिल्ली या आस पास के हैं – दूसरी या तीसरी पीढी दिल्ली में सेटल है – दुसरे लखनऊ या आस पास बड़े शहर से हैं और तीसरे जो पूर्वी हैं ! अब तीनो ग्रुप एक ही क्लास – एक ही शिक्षक – एक ही सिलेबस – पर तीनो ग्रुप का जीवन के लिए अलग अलग गोल ! पहला ग्रुप – सेकेण्ड ईयर से ही अमरीका / यूरोप के बेहतरीन कॉलेज में पीजी में एडमिशन के लिए तैयारी – लखनऊ या आस पास बड़े शहर वाले – किसी मल्टीनेशनल में किसी तरह से नौकरी हो जाए – मिल गया – शर्ट का दो बटन खोल कैपस में घूम रहा ! तीसरा पूर्वी वाला – पब्लिक सेक्टर / सरकारी नौकरी के लिए बेचैन – हर बार समझाया – यार ..मेरिट है …फुल स्कॉलरशिप मिल जायेगी – जीआरआई दो – अब वो ऐसे परिवेश से आते थे – उनकी हिम्मत नहीं हो पाती – अब अगर उनको कैम्पस में किसी मल्टीनेशनल में नौकरी मिल गयी – वो उदास है – क्यों भाई ..क्यों उदास हो …पिता जी को क्या बोलेंगे …नौकरी सरकारी थोड़े न है …हा हा हा हां ….:))
आपका परिवेश …आपका जड़ ..आपकी सोच को किस हद तक प्रभावित करता है …कभी सोचियेगा .:)

मैंने बहुत पहले दालान ब्लॉग पर लिखा था – आखिर वो कैसी घड़ी रही होगी – जब एक बैरिस्टर ‘मोहन दास करम चंद् गांधी’ को “महात्मा गांधी” बनने को मजबूर किया ! ट्रेन से सामान फेंकने की घटना तो न जाने कितने और अश्वेत के साथ भी हुई होगी – पर सब के सब तो महात्मा गांधी नहीं बन पाए !
वाल्मीकि / गौतम बुद्ध / गैलेलियो / अरिस्टो / प्लेटो / महात्मा गांधी और वो सभी जो काल की सीमा तोड़ अपनी पहचान बना सके – सबके के उस वर्तमान जीवन में कोई न कोई ऐसी घटना जरुर हुई जो उनकी पुरी दिशा बदल दी ! पर असल सवाल यह उठता है – ऐसी घटना तो बहुतों के जीवन में भी होता आया होगा या है – सब तो वो नहीं बन पाते !
अब अगर मै एक आधी रात उठ – सत्य की तलाश में – घर छोड़ निकल जाऊं – क्या मै भी गौतम बुद्ध बन सकता हूँ ? …:)) क्या मै भी हजारों साल तक ज़िंदा रह सकता हूँ ?…:))
फिर वो क्या चीज़ है ..जो इनको महान बनाया ! इस बात पर एक मित्र से बात किया – उसने कहा जो मेरा भी मानना है – जिज्ञासा ! आपके अन्दर कितनी जिज्ञासा है और वो कैसी जिज्ञासा है ! सेब तो किसी के भी माथे पर गिर सकता है – पर वो सेब नीचे ही क्यों गिरा – यह एक जिज्ञासा न्यूटन को अमर कर दिया ! ट्रेन से सामान कितनो का फेंका गया – पर ऐसा क्यों – महात्मा गांधी बना दिया ! हर कोई पाप करता है – अपने परिवार के भरण पोषण के लिए – कोई अंगुलीमाल डाकू से ऋषी नहीं बन पाया !
कोई एक घटना – मामूली ही – इतने जोर से अन्दर धक्का देती है – जैसे ज्ञान का फव्वारा खुल पड़ता है – पर याद रहे – जैसे – एक बंद पाईप से पानी बह रहा है – और आप उस पाईप को कहीं से छेद कर दे या काट दें – फव्वारा वहीँ से खुल जाएगा – शर्त है …उस पाईप के अन्दर पानी बहता होना चाहिए …..:))
हाँ …जिसके अन्दर वो जिज्ञासा शुरू से होती है …उसी को कोई घटना …उसकी समझ खोल सकती है …अगर जिज्ञासा नहीं है …फिर बड़ी से बड़ी घटना भी जीवन के छोटे से रहस्य को खोल नहीं सकती …
थैंक्स ….:)))
~ रंजन ऋतुराज / 3,4,5 नवम्बर 2014

रंजन ऋतुराज / नवंबर , 2016

मिर्च ही मिर्च …

तीखी मिर्ज …

मिर्च की इतनी वैराईटी देख मन खुश हो गया । मां की याद आई । उनके खाने में आग में सेका हुआ मिर्च अवश्य होता था । फिर अपना बचपन याद आया – रगड़ा चटनी । लहसुन और हरा मिर्च का चटनी । आह । दिन में चावल दाल के साथ रगड़ा चटनी ।
मेरे ससुराल में मिर्च की जबरदस्त खेती होती है। अजीब किसान है – मंगरैला , सौंफ , मिर्च यही सब की खेती । लेकिन उनके हाता में सूखते लाल मिर्च अच्छे लगते थे। मेरे अनुज है – बॉबी बाबू , सिविल सर्वेंट है । आ गए नोएडा – बोले – भाई जी , आज मटन हम बनाएंगे । हरा मिर्च और लहसुन का जबरदस्त पेस्ट बनाए और मटन बनाते बनाते गरम मसाला डालना भूल गए । हा हा हा ।
मिर्च के बारे में कहा जाता है – जो जितनी छोटी , वो उतनी ही तीखी । अब लोग अपने गमले में मिर्च लगाने लगे हैं । हम कभी बाज़ार गए तो सब्जी विक्रेता से पूछते है – यह मिर्च कितनी तीखी है । उसने कहा – बहुत तीखा । हम बोलते है – रहने दो । हा हा हा । अब बताइए – मिर्च की विशेषता तो इसी में है न …वो कितनी तीखी है ।
हम मिर्च का आँचार बढ़िया बना लेते है। एक हॉर्लिक्स का खाली बोतल / डब्बा लीजिए । उसको दे सर्फ ..दे सर्फ बढ़िया से साफ कीजिए । फिर हरे मिर्च का पेट हल्का काट के उसको उस डब्बे में डालिए । दो चार नींबू को काट कर उसमे डालिए । फिर थोड़ा अदरक । धूप में पांच छह दिन सूखा दीजिए । मस्त सेक्सी हरे मिर्च का अंचार तैयार । दाल भात पर मस्त खाइए ।
कभी कभी सोचते हैं – नौकरी चाकरी नहीं रहेगा तो मिर्च का अचार बना के बेचेंगे । घर घर – दिन में ।
हा हा हा … अब किसान परिवार से आते हैं तो यहीं सब न फोटो डालेंगे ।
खैर , आज भी प्रतिदिन मेरे मुख्य भोजन में एक हरा मिर्च अवश्य होता है ।
~ रंजन / दालान / 04.11.2019

इंदिरा जी …

आज स्व श्रीमती इंदिरा गांधी की शहादत दिवस है ! आज से ठीक २९ साल पहले श्रीमती गांधी की हत्या कर दी गयी थी ! तब हम हाई स्कूल में होते थे – घर में कोंग्रेसी वातावरण होता था ! घर के “दालान” में श्रीमती गांधी के अलावा महात्मा गांधी / नेहरू / राजेन बाबू इत्यादी की तस्वीरें होती थी – फ्रेम की हुई ! चाईल्ड साइकोलॉजी – यही आदर्श बन गए – तब जब उनमे से एक उस वक़्त देश का प्रधानमंत्री हो ! मै उनका बहुत ही बड़ा फैन हुआ करता था – उसकी एक वजह थी – एक बचपन से अपने दादा जी की साइकिल हो या लाल बत्ती कार – जब तक स्कूल में रहा – खूब घुमा – जब बाबा के साथ राजनीतिक लोगों के यहाँ जाता – लोग नेहरू – इंदिरा का उदहारण देते और मै खुद में श्रीमति गांधी की छवी देखता – “पिता का पत्र पुत्री के नाम ” एवं “वानर सेना” की कहानियां बहुत लुभाती थी – जो हम स्कूल में पढ़ते थे !
सन चौरासी के फरवरी महीने में कांग्रेस के सीनियर लोगों की एक मीटिंग होने वाली थी – दिल्ली में ! अपने बाबा के साथ मै भी हो चला ! तब हम सभी २६ , महादेव रोड ठहरे थे – वह जगह थी हमारे इलाके के लोकसभा सांसद शहीद नगीना राय का डेरा – अगले दिन मीटिंग थी – सुबह से हम भी ज़िद पद अड़ गए – कई लोग समझाए – तुम उब जाओगे फलाना ढेकना – अब हम कहाँ मानने वाले – दिल्ली आये ही थे – प्रधानमंत्री से मिलने – बिना मिले कैसे चले जाएँ 🙁 खैर सभी लोग मान गए – जबतक लोग तैयार होते – हम भाग के प्रगति मैदान से एक सौ रुपैया में कैमरा खरीद लाये – ब्लैक & व्हाईट इंदु फिल्म्स के साथ ! तब बड़े बड़े लोकसभा सांसद इत्यादी भी अपनी कार नहीं रखते थे – सभी लोग ऑटो से मीटिंग के तरफ निकले ..:))
वहाँ पहुँचने पर अद्भुत नज़ारा था – बाबा सभी बड़े कोंग्रेसी से परिचय करा रहे थे – सबको पैर छू कर प्रणाम कीजिये – आशीर्वाद लीजिये ! पोर्टिको में खड़ा थे – तब तक तीन ऐम्बैसडर कार तेज़ी से आयी – सभी लोग सतर्क हो गए – अंतिम कार से अपने सर साड़ी का पल्लू को सम्भालते श्रीमती इंदिरा गांधी – मैंने अपना पूरा रील वहीँ खाली कर दिया और वो जैसे ही पास आयीं – पैर छू एक आशीर्वाद लिया …:)) एक हाईस्कूल के बच्चे के साफ़ दिमाग में जो खुछ घुस सकता था – घुस गया – आजीवन के लिए :))
उसी साल उनसे दूसरी मुलाकात हुई पटना में – उनकी मृत्यु से ठीक पंद्रह दिन पहले – पटना के श्री कृष्ण मेमोरियल हॉल में – तब जब बिहार के प्रथम वित्त मंत्री श्री अनुग्रह नारायण सिंह के छोटे पुत्र श्री सत्येन्द्र बाबू वापस कांग्रेस ज्वाइन कर रहे थे – दिन था – सोलह ओक्टूबर – हम कहाँ मानने वाले थे – स्टेज से बिलकुल सटे हुए कुछ कुर्सीयां रखी हुई थी – बाबा अन्य नेताओं के साथ पीछे बैठे थे – और हम सांसदों के बैठने वाली कुर्सी पर – किसकी मजाल जो मुझे उठा दे ..:)) अबोध मन …लगा …जब श्रीमती गांधी के नज़दीक रहूंगा – वो शायद पहचान लेंगी – यह वही लड़का है …जो फरवरी में मुझसे मिला था …:)) सचमें ..एक मन क्या क्या सोच लेता है …:))
इस मुलाक़ात के पंद्रह दिन बाद उनकी हत्या हो गयी …उसके बाद राजनीति में बहुत बदलाव आया …इसपर क्या टिपण्णी करूँ …पर मेरा यह पुरजोर मानना है …चाईल्ड साइकोलॉजी पुरे जीवन पर शासन करती है …
श्रीमति गांधी को श्रद्धांजली !!

रंजन , दालान

31.10.2013

आम्रपाली …

वैजयंती माला

“इतने बड़े महल में , घबराऊँ मैं ‘बेचारी’ ” ।
इस गीत में जब लता मंगेश्कर की आवाज़ वैजयंती माला के होंठ से , तब जब वो जिस अदा से ‘बेचारी’ बोलती हैं , कसम से दिल पर कोई छुरी नही चलती है , लगता है जैसे इस मासूम दिल को कोई रेंत रहा है …उफ्फ्फ । ऐसे जैसे दिन भर ये दिल रेंत वाने को ही बना है । रेंत लीजिए , आपका ही दिल है । रख लीजिये , आपका ही दिल है टाईप फीलिंग आने लगता है ।
सिनेमा के रिलीज़ के वक़्त मेरे पिता जी प्लस टू में रहे होंगे और अभी मेरे बच्चे प्लस टू में आ गए लेकिन मेरे मन से ये गीत न कल गया , न आज गया और न कल जायेगा ।
निर्देशक लेख टंडन महान थे , इस सिनेमा की कॉस्टयम डिजाईनर भानु अतथैया ने कॉस्टयम डिजाईन को समझने के लिए कई दिन अजंता और एलोरा की गुफाओं में गुजारा । शायद एक महिला ही दूसरे महिला की खूबसूरती को समझ सकती है , वर्ना हम पुरुष तो यूँ ही बदनाम रहते हैं ।
बाकी थोड़ा बहुत ‘गुन्डा’ तो हर पुरुष होता है लेख टंडन , रंजन ऋतुराज ही हो गए तो कौन सा पहाड़ टूट गया । जो बिल्कुल भी गुन्डा नही है , वह पुरुष नही मउगा है , ऐसा हम नही हर एक ‘बेचारी’ वैजयंती माला के होंठ कहते है ।

~ रंजन / दालान / 24.10.2017

हवाई यात्रा नहीं किए हैं …

हम आज तक हवाई जहाज़ पर नहीं चढ़े हैं 😐 आपकी क़सम । जब कोई फ़ेसबुक पर हवाई अड्डा पर चेक इन करता है – कैसा कैसा दो मन करने लगता है । हमारे जैसा आदमी के अंदर हीन भावना आती है । 😐 फिर हम कल्पना करने लगते है…
बचपन में छत से एकदम ऊँचा हवाई जहाज़ नज़र आता था । छत से ही टाटा करते थे – मन भर देख भी नहीं पाते थे – दौड़ कर अजिन कज़िन को बुला कर दिखाने के चक्कर में ही हवाई जहाज़ आसमान से ग़ायब हो जाता था 😐 तब तक कोई बड़ा अजिन कज़िन का हवा शुरू – कैसे उसके नाना जी हवाई जहाज़ पर चढ़े थे , मन एकदम से चिढ़ जाता था । जलन होती थी । यहां पांच पीढ़ी में कोई हवाई जहाज पर नहीं चढ़ा और उसके नाना जी हवाई जहाज पर ही घूमते है ।
मेरा जन्म भी मिडिल में भी मिडिल और उसके भी मिडिल क्लास में हुआ 😐 ब्रह्मा जी पिछला जनम में मेरे ‘गुंडागर्दी’ से परेशान रहे होंगे , धर के बिहार के मिडिल क्लास में टपका दिए 😟 स्कूल में भी ‘बस यात्रा , रेल यात्रा , चाँदनी रात में नौका विहार ‘ इत्यादि पर लेख लिखने को आता था लेकिन कोई शिक्षक ‘हवाई यात्रा’ पर पैराग्राफ़ तक लिखने को नहीं बोला । हिन्दी स्कूल का यही दिक्कत । अंग्रेजी वालों के यहां पैराग्राफ लिखने को आता होगा । मालूम नहीं । यहां तो रेलयात्रा पर ही निबंध लिखने में हाईस्कूल खत्म हो गया ।
कॉलेज में कुछ दोस्त यार हवाई जहाज़ वाले थे । सेमेस्टर परीक्षा के बाद सबसे अंत में होस्टल छोड़ते थे और हवाई जहाज से सबसे पहले अपने घर पहुँच जाते थे । ब्रह्मा जी पर ग़ुस्सा आता था । जेनरल बॉगी में सूटकेस पर बैठ कर यात्रा करना होता था 😐

कभी कभी किसी को एयरपोर्ट पर सी ऑफ करने जाते हैं तो मन मे उदासी की कैसा दोस्त है , कभी तो बोलेगा – चलो रंजन , इस बार तुम भी हवाई जहाज पर चढ़ लो । मुंह मारी ऐसा धनिक लोग का ।
कभी कभी चार्टेड से पटना दिल्ली करने का मन । एकदम सफ़ेद ड्रेस में , सफेद बुशर्ट , सफेद पैंट और सफेद जूता और हरा ग्लास वाला गॉगल्स । घस्स से पटना हवाई अड्डा पर स्कॉर्पीओ रुका – फट फट गेट खुला , खट खट बंद हुआ । लेदर वाला पतला ब्रीफ़केस , अरमानी का गागल्स , सीधे चार्टेड के अंदर । चेला चपाटी टाटा किया । एक मुस्कान एयर होस्टेस को 😎 सीधे दिल्ली वाया लखनऊ !
~ रंजन ऋतुराज / दालान / 26.10.2016

सेंधमारी , चोरी और डकैती …

सेंधमारी , चोरी और डकैती :
बचपन का गाँव याद आता है । भोरे भोरे एक हल्ला पर नींद ख़ुलती थी । बिना हवाई चप्पल के ही बाहर भागे तो पता चला रमेसर काका के घर सेंधमारी हुआ है । 😳 नयकी कनिया के घर में अर्धचंद्रकार ढंग से दीवार तोड़ – उनका गहना ग़ायब । कोई देवर टाइप मज़ाक़ कर दिया – आया होगा कोई पुराना आशिक़ 😝 सेंधमारी का अपना अलग औज़ार होता था – बिना आवाज़ के मोटा दीवार तोड़ देना कोई मज़ाक़ नहीं । अब सेंधमारी नहीं होता है , कला विलुप्त हो गयी है । लेकिन सेंधमारी को कभी सिरीयस नहीं लिया गया । इस कला को ना तो इज़्ज़त मिली और ना ही धन ।
एक होता है – चोरी । सेंधमारी से थोड़ा ज़्यादा हिम्मत । छप्पर छड़प के घर में ‘हेल’ गए । मुँह में नक़ाब लगा कर – थोड़ा ‘मऊगा’ टाइप । अधिकतर चोर हल्की फुल्की सामान चोरी करते हैं । परीक्षा में भी चोरी । ताक झाँक से लेकर पुर्ज़ा तक । वक़्त सिनेमा में राजकुमार टाइप चोर भी – निगाहें मिलाते मिलाते रानी साहिबा का हार ग़ायब ! दिल का भी चोरी , चोर जैसा चुपक़े चुपके आहिस्ता आहिस्ता । लेकिन चोरी कैसा भी हो – कितना बड़ा भी चोरी हो – उसे सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिली । चोर अपने आप में एक गाली है – क्या ‘चोर’ जैसा मुँह बनाए हुए हो ।
एक होता है – डकैती । सुनील दत्त टाइप घोड़ा पर सवार । काला टीका । बंदूक़ के नाल पर रूपैया रख – ठाएँ । माँ भवानी किया और बीच बाज़ार उठा लिया । अब बैठ कर गीत गाते रहिए – रात है कुछ मध्यम मध्यम , वहीदा रहमान टाइप । डकैत ले गया – सब कुछ । डकैती का क़िस्सा भी थोड़ा स्टेटस वाला , स्कूल में हवाबाज़ी – मेरे घर डकैती हुआ था , बेंच पर हाथ मुँह रख ख़ूब चाव से सुनते थे । डकैत आया और दिया दो तबड़ाक ‘पुत्तु चाचा’ को । 😝 डकैत संस्कार वाले होते हैं । न्याय देते हैं । डकैती को सामाजिक इज़्ज़त है – सर सिपाही भी घबराते हैं । डकैत का ललाट चमकता है । डकैती गाली नहीं है । डकैत को गोली लगती है और चोर बँधा के पिटाता है और सेंधमार कभी पकड़ा नहीं जाता है 😎
लेकिन सेंधमारी , चोरी और डकैती तीनों का मंज़िल एक ही है – अब आप क्या करते है – यह आपके आंतरिक व्यक्तित्व पर निर्भर करता है 😝
~ रंजन ऋतुराज / दालान / 2016