मुझे ऐसा लगता है – जो कोई भी लेखक है – किसी भी रूप में – साहित्यकार हो या फ़िलॉसफ़र । मूलतः वो अपने ‘काल’ से ही अपनी रचना को सजाते हैं । शेक़सपियर हों या कालिदास या फिर प्रेमचंद । सभी ने अपनी रचना के मूल में ‘मानव स्वभाव’ को रखा और उसको अपने काल / दौर से सजाया । जब से इंसान इस धरती पर आया – हर काल में उसकी भावना एक ही रही है – काल / दौर बदल जाता है । क्रोध , प्रेम , जलन – या जो कोई भी भावना हो – वह तो वही रहेगी ।
दिनकर की रचना ‘उर्वशी’ बेहद पसंद है । वह दूसरे काल को ध्यान में रखकर की गयी काव्य नाटक है लेकिन उसके मूल में प्रेम है – उर्वशी और पुरु का । वह इतना शक्तिशाली है की हम काल को भूल जाते हैं ।
पर सभी लेखक अपने काल के इर्द गिर्द ही लिखे हैं । और लिखना भी चाहिए । हम पूर्व के काल की रचनाओं को इतना पढ़ चुके होते हैं की वर्तमान के लेखक को उस दबाव में डाल देते हैं । हिंदी मतलब प्रेमचंद जैसी गाँव की बातें । हिंदी का मतलब इंफ़ोसिस के परिसर में प्रोजेक्ट मैनेजमेंट को लेकर चल रही बहस आधारित कहानी क्यों नहीं ? प्रेम सिर्फ़ कालिदास की शकुंतला ही क्यों ? प्रेम का मतलब पेरिस के बिस्ट्रोस में कॉफ़ी के मग के साथ जीवन की गुत्थी सुलझाते दो प्रेमी क्यों नहीं । समाज और उसके नियम बहुत तेज़ी से बदल रहे हैं – लेखकों को उस बदलाव के साथ मूल को ज़िंदा रखना चाहिए ।
: रंजन / 14.01.2016
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