धरा ने वसंत को पूरी तरह जिया भी नहीं की पतझड़ की आहट होने लगी है । अचानक से धूप तीखी हो गयी है । ऐसे जैसे मार्च अपने वक़्त से पहले आ कर – फ़रवरी का हिस्सा छिन रहा हो । ग़लत बात लगती है , किसी के हिस्से में प्रवेश करना । ऐसा होगा तो एप्रिल भी मार्च के हिस्से में घुस जाएगा , तब मार्च किस अदालत का दरवाज़ा खटखटाएगा । महीनो के इस झगड़े में धरा चुप हो जाती है । पर मार्च तो मार्च है – होली को क़ब्ज़े में रखता है , इसी घमंड में कभी फ़रवरी में घुस जाता है तो कभी एप्रिल में । हाँ , जिसके हिस्से होली आती हो – वो थोड़ा मनबढ़ू हो ही जाता है । बेचारा फ़रवरी – महज़ अठाईश दिनो का । प्रकृति को तरस आयी तो फ़रवरी के हिस्से वसंत को दे दिया । पर मनबढ़ू मार्च को पड़ोसी बना दिया , वसंत की ख़ुशी में फ़रवरी थोड़ा इतराया नहीं की मार्च के उकसाने पर सूर्य ने तिरछी नज़र कर ली 😐 फ़रवरी भागता रात के पास – रात ने कहा , घबराओ मत , वसंत अभी ज़िंदा है – गुलाबी जाड़े के शक्ल में :)) फ़रवरी सुन इतरा जाता है – रात के आग़ोश गुलाबी जाड़े के संग सो जाता है …:)) ~ रंजन / #Daalaan / 21.02.2017
ये इश्क़ है , मेरी जाँ … दरवाज़े बंद कर दो , खिड़कियाँ बंद कर दो । चाहो तो ख़ुद को किसी क़ैदखाने में क़ैद कर दो । भले इस जहाँ को छोड़ किसी और जहाँ चले जाओ । ये इश्क़ है , मेरी जाँ … रात के किसी पहर ख़यालों में आ जाएगा । तेरे इंकार पर भी , तेरी सारी वफ़ा ले जाएगा । ये इश्क़ है , मेरी जाँ … बड़ी मासूमियत से हवाओं में घुल तुमको छू जाएगा । ये इश्क़ है , मेरी जां … उसे आने दो … पल भर को हुस्न के घमंड को तोड़ जाने दो । अपनी मियाद पूरी कर जाएगा … अपनी उम्र पूरी कर स्वतः ख़त्म हो जाएगा … सच्चा हुआ तो तुमको मज़बूत कर जाएगा … झूठा हुआ तो सबक़ दे जाएगा । ये इश्क़ है , मेरी जाँ … उसे आने दो … ~ रंजन / दालान
माँ ( 8th May 1949 – 5th Feb 2013 ) माँ , आज शाम माँ अपनी यादों को छोड़ हमेशा के लिए उस दुनिया में चली गयीं – जहाँ उनके माता पिता और बड़े भाई रहते हैं ! पिछले बीस जनवरी को माँ का फोन आया था …मेरी पत्नी को …रंजू से कहना …हम उससे ज्यादा उसके पापा को प्रेम करते हैं …हम माँ से मन ही मन बोले …माँ ..खून का रिश्ता प्रेम के रिश्ते से बड़ा होता है …वो हंसने लगी ..अगले दिन भागा भागा उनके गोद में था …जोर से पकड़ लिया …माँ को रोते कभी नहीं देखा …उस दिन वो रो दीं …! आजीवन मुझे ‘आप’ ही कहती रहीं ….कई बार टोका भी …माँ ..आप मुझे आप मत बुलाया कीजिए …स्कूल से आता था …शाम को …चिउरा – घी – चीनी …रात को चिउरा दूध …मीठा से खूब प्रेम …तीनो पहर मीठा चाहिए …छोटा कद ..पिता जी किसी से भी कहते थे …एकदम मिल्की व्हाईट …रंजू के रंग का ….पटना पहुँचता था …खुद से चाय …कई बार बोला ..माँ आप कितना चाय पीती हैं …मुझे भी यही आदत …आठ साल पहले …गर्भाशय का ओपरेशन …होश आया …जुबान पर …रंजू …पापा को चिढाया था …माँ आपसे ज्यादा मुझसे प्रेम ….शादी के पहले और शादी के बारह साल तक ..कभी प्याज़ लहसुन नहीं ….पापा अपनी गृहस्थी बसाए …पहले ही दिन मछली …माँ रोने लगीं ..कहने लगीं …मछली की आँखें मुझे देख रही हैं …करुना …यह सब मैंने आपसे ही सिखा था ….माँ…आपसे और क्या सिखा …बर्दास्त करना …मन की बात जुबान तक नहीं लाना …किसी भी समस्या के जड़ पर पहुँच …सामने वाले को माफ़ कर देना …माँ ..आप मुझे हिंदी नहीं पढ़ाई …पर खून को कैसे रोक सकती थी …बहुत मन था …जो लिखता हूँ …आप पढ़ती …फिर अशुद्धी निकालती ….फिर मेरी सोच देख बोलतीं …रंजू आप कब इतने बड़े हो गए …आपका तानपुरा …शास्त्रीय संगीत …कुछ भी तो नहीं सिखाईं …खून ..आ गया …बिना सीखे ..संगीत की समझ ….मेरी शादी के दिन आप कितना रोयीं थी ….आप उस दिन बड़ी हुई थीं …आज आपको खोकर मै बड़ा हो गया …माँ ..जाने के पहले एक बार भी मन नहीं किया …रंजू से बात कर लें …हमदोनो कितना कम बात करते थे …याद है …आपके साथ कितना सिनेमा मैंने देखा है …जुदाई / आरज़ू / दिल ही तो है..जया भादुड़ी …अभिमान का रिकोर्ड ..रोज सुबह बजाना .. …सिर्फ आप और हम …पापा को आप पर कभी गुस्साते नहीं देखा …बहुत हुआ तो …रंजू के महतारी ..एने वोने सामान रख देवे ली …पापा तो सब कुछ छोड़ दिए आपके लिए …आप उनको अकेला क्यों छोड़ दीं …बोलिए न ….इस प्रेम के रिश्ते में बेवफाई कहाँ से आ गई… कई सवाल अभी बाकी है …कल सुबह पूछूँगा …
~ 5 फ़रवरी , 2013
हर किसी की एक ‘माँ’ होती है – मेरी भी माँ थीं …पिछले साल आज के ही दिन वो मुझे छोड़ अपने माता – पिता – भाई के पास चली गयीं …..यादों के फव्वारे में जब सब कुछ भींग ही गया …फिर इस कलम की क्या बिसात …माँ ने जो खिलाया ..वही स्वाद बन गया ..जो सिखाया वही आंतरिक व्यक्तित्व बन गया …’माँ’ विशुद्ध शाकाहारी थी – दूध बेहद पसंद – दूध चिउरा / दूध रोटी और थोड़ा छाली ..हो गया भोजन 🙂 सुबह चाय – शाम चाय – दोपहर चाय – जगने के साथ चाय – सोने के पहले चाय ..चीनी और मिठाई बेहद पसंद …बचपन में मेरे लिए चीनी वाला बिस्कुट आता था – दोनों माँ बेटा मिल कर एक बार में बड़ा पैकेट ख़त्म 🙂 बिना ‘मीठा’ कैसा भोजन …:)) मात्र आठ – नौ साल की उम्र में वो अपने पिता को खो बैठीं – जो अपने क्षेत्र के एक उभरते कांग्रेस नेता थे – श्री बाबु के मुख्यमंत्री काल में – श्री बाबु के ही क्षेत्र में – उनके स्वजातीय ज़मींदार की हत्या अपने आप में बहुत बड़ी घटना थी – परिवार से लेकर इलाका तक दहल चूका था – मैंने ‘माँ’ के उस अधूरे रिश्ते को बस महसूस किया – कभी हिम्मत नहीं हुई – ‘माँ’ आपको तब कैसा लगा होगा …यह बात आज तक मेरे अन्दर है – कभी कभी माँ हमको बड़े गौर से देखती थीं – फिर कहती थी – ‘रंजू ..आपको देख ‘चाचा’ की हल्की याद आती है’ …वो अपने पिता जी को चाचा ही कहती थीं …हम सर झुका कर उनके पास से निकल जाते थे …प्रेम की पराकाष्ठा…स्त्री अपने पुत्र में ..पिता की छवी देखे …माँ तो माँ ही हैं …किस पहलू को याद करूँ या न करूँ …एक सम्पूर्ण प्रेम …फिर एक पुरुष आजीवन उसी प्रेम को तलाशता है …जहाँ कहीं ‘ममता की आंचल’ की एक झलक मिल गयी …वह वहीँ सुस्ताना चाहता है …माँ ..आप हर पल जिंदा है ..मेरे अन्दर …!!! मेरा खुद का भी पिछला एक साल बेहद कमज़ोर और उतार चढ़ाव का रहा है …वो सारे लोग जो जाने अनजाने मेरी मदद को आगे आये..कमज़ोर क्षणों में भी मेरी उँगलियों को पकडे रहे …उन सबों को …मेरी ‘माँ’ की तरफ से धन्यवाद …! और क्या लिखूं ….:)))
~ 5 फ़रवरी , 2014
माँ , कहते हैं – माँ अपने बच्चे को कभी अकेला नहीं छोड़ती – कभी गर्भ में तो कभी गोद में – कभी आँचल में तो कभी एहसासों में – कभी आंसू में तो कभी मुस्कान में ! औलाद भी तो कभी अपने माँ से अलग नहीं होती – कभी आँचल के निचे तो कभी ख्यालों में – कभी जिद में तो कभी मन में …! माँ…बचपन में मेरे कान में दर्द होता था …सारी रात एक कपडे को तावा पर गरम कर के …आप मेरे कानो को सेंकती रहती थी ..अब मेरे कानों में दर्द नहीं होता …क्योंकी अब आप नहीं…माँ…आज आपका सारा पसंदीदा गाना सुना …आम्रपाली का वो गीत …’जाओ रे ..जोगी तुम जाओ रे …’ ऐसा लगा आप बोल उठेंगी …रंजू …फिर से दुबारा बजाईये ..न …कोई बोला नहीं …मैंने भी फिर से दुबारा बजाया नहीं…पर उस गीत के साथ आपकी गुनगुनाहट मैंने सुनी …वहीँ धुन …वही राग …माँ…सारा दिन आपके यादों से सराबोर रहा…पापा ठीक से हैं…अपने काम धाम में व्यस्त …हाँ …घर से निकलते वक़्त …आपकी तस्वीर को देखना नहीं भूलते …जैसे अब आप बस उस तस्वीर में ही सिमट के रह गयी हैं…आपके जाने के बाद ..आपके आलमीरा को मैंने नहीं खोला …पापा को देखता हूँ…वही खोलते हैं …शायद आपकी खुशबू तलाशते होंगे …आपके पीछे में भी आपको ‘रंजू के महतारी’ ही कहते हैं …उनके लिए आपका कोई नाम नहीं है…क्या…सिवाय चिठ्ठियों के…माँ…कभी कभी लगता है …आप कहाँ होंगी …किस रूप में होंगी …कैसी होंगी …एक बार और …फिर से …आपको देखने का मन करता है…सच में …बस एक बार और…
~ 5 फ़रवरी , 2015
माँ , माँ , आज आपको गए आज तीन साल हो गया । आज सुबह आपका काला शाल नज़र आया । ओढ़ लिया – बहुत सकून मिला । माँ , तीन साल हो गए लेकिन अभी भी उस शाल से आपकी ख़ुशबू नहीं गयी । फिर वापस रख दिया – आपके तकिए के नीचे । माँ , जब मन बहुत बेचैन होता है – वहीं आपके पलंग के आपके जगह पर सो जाता हूँ – दिन में नहीं सोता फिर भी सो जाता हूँ । हर साल कश्मीरी आता है – हर साल पूछता है – आंटी नहीं हैं – हर साल बोलता हूँ – नहीं हैं । भूल जाता है – इस बार नहीं पूछा – चुपके से एक काला शाल मेरे हाथों में रख दिया । शाम हो गयी गई है – चाय की याद आयी – मन किया आपके लिए भी एक कप बना दूँ – बिना चीनी वाली । आपके जाने के बाद – आपका आलमिरा नहीं खोला – हिम्मत नहीं हुई । शायद लॉक ही है – पापा को भी उस आलमिरा को खोलते कभी नहीं देखा । आपका एक पोंड्स ड्रीमफ्लावर पाऊडर कई महीने वहीं टेबल पर रखा नज़र आया , फिर लगता है – किसी ने उसे आपके आलमिरा में रख दिया । माँ , आपके जाने के बाद – ज़िंदगी पूरी तरह बदल गयी या जहाँ आप छोड़ कर गयीं – वहीं ठहर गयी – कुछ नहीं कह सकता । अब आप बेवजह परेशान होने लगी ….रुकिए …जया भादुड़ी का एक गीत अपने यूटूब पर सुनाता हूँ …नदिया किनारे हेरा आई …