Archives May 2021

सभ्यता और संस्कृति …

दिनकर लिखते हैं :
हर सुसभ्य आदमी सुसंस्कृत ही होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता; क्योंकि अच्छी पोशाक पहनने वाला आदमी भी तबीयत से नंगा हो सकता है और तबीयत से नंगा होना संस्कृति के खिलाफ बात है। और यह भी नहीं कहा जा सकता कि हर सुसंस्कृत आदमी सभ्य भी होता है, क्योंकि सभ्यता की पहचान सुख-सुविधा और ठाट-बाट हैं। मगर बहुत-से ऐसे लोग हैं जो सड़े-गले झोंपड़ों में रहते हैं, जिनके पास कपड़े भी नहीं होते और न कपड़े पहनने के अच्छे ढंग ही उन्हें मालूम होते हैं, लेकिन फिर उनमें विनय और सदाचार होता है, वे दूसरों के दुख से दुखी होते हैं तथा दुख को दूर करने के लिए वे खुद मुसीबत उठाने को भी तैयार रहते हैं।
यहीं एक यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि संस्कृति और प्रकृति में भी भेद है। गुस्सा करना मनुष्य की प्रकृति है, लोभ में पड़ना उसका स्वभाव है; ईर्ष्या, मोह, राग द्वेष और कामवासना-ये सबके सब प्रकृत के गुण हैं। मगर प्रकृति के ये गुण बेरोक छोड़ दिए जाएँ तो आदमी और जानवर में कोई भेद नहीं रह जाए। इसलिए मनुष्य प्रकृति के इन आवेगों पर रोक लगाता है और कोशिश करता है कि वह गुस्से के बस में नहीं, बल्कि गुस्सा ही उसके बस में रहे; वह लोभ, मोह, ईर्ष्या द्वेष और कामवासना का गुलाम नहीं, बल्कि ये दुर्गुण ही उसके गुलाम रहें और इन दुर्गुणों पर आदमी जितना विजयी होता है, उसकी संस्कृति भी उतनी ही ऊँची समझी जाती है।
संस्कृति हमारा पीछा जन्म-जन्मान्तर तक करती है। अपने यहाँ एक साधारण कहावत है कि जिसका जैसा संस्कार है, उसका वैसा ही पुनर्जन्म भी होता है। जब हम किसी बालक या बालिका को बहुत तेज पाते हैं, तब हम अचानक कह उठते हैं कि यह पूर्वजन्म का संस्कार है। संस्कार या संस्कृति असल में शरीर का नहीं, आत्मा का गुण है और जबकि सभ्यता की सामग्रियों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छूट जाता है, तब भी हमारी संस्कृति का प्रभाव हमारी आत्मा के साथ जन्म-जन्मान्तर तक चलता रहता है।
निष्कर्ष यह कि संस्कृत सभ्यता की अपेक्षा महीन चीज होती है। यह सभ्यता के भीतर उसी तरह व्याप्त रहती है जैसे दूध में मक्खन या फूलों में सुगन्ध। और सभ्यता की अपेक्षा यह टिकाऊ भी अधिक है, क्योंकि सभ्यता की सामग्रियाँ टूट-फूटकर विनष्ट हो सकती हैं, लेकिन संस्कृति का विनाश उतनी आसानी से नहीं किया जा सकता।

कहानी साइकिल की …

कहानी साइकिल की : ब्रांड रेलेे 😊
कोई राजा हो या रंक – हमारे समाज में उसकी पहली सवारी साइकिल ही होती है और साइकिल के प्रति उसका प्रेम आजीवन रहता है – भले ही वो चढ़े या नहीं चढ़े ।
अगर आप अपने बचपन को याद करें तो बड़े बुजुर्ग ब्रांड रेलेे की बात करते थे । सन 1885 के आस पास इंग्लैंड कि यह ब्रांड भारत के इंग्लिश राज में मंझौले रईसों की पहचान हो गई थी ।
हमारे सम्मिलित परिवार में सन 1975 के आस पास तक मोटर नहीं था , आया भी तो सरकारी । हाथी घोड़ा पालकी और समपनी थी लेकिन मोटर नहीं । लेकिन बाबा के पास फिलिप्स कंपनी की हरे रंग की साइकिल होती थी । दोपहर के भोजन और विश्राम के बाद उनकी साइकिल साफ होती , बाबा बेहतरीन खादी कुर्ता और धोती में – अपने मित्रो के साथ आस पास के बड़े बाज़ार निकल जाते । गांव गांव उसी साइकिल से घूमते । आजीवन साइकिल चलाए तो उनके श्राद्ध में मैंने खुद से पड़ोस के गांव से नया साइकिल कसवा कर दान भी दिया । ऐसे जैसे टॉर्च , छाता और साइकिल – यही पहचान ।
खैर , साइकिल पर चलने के अपने एटिकेट्स होते थे । जैसे अगर आप साइकिल से हों और सामने से गांव घर का कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति आ रहा हो तो आपको चंद मिनट के लिए साइकिल से उतर कर अभिवादन करना है । इस घटना को आपमें से कई नहीं देखे होंगे – लेकिन मैंने देखा और किया भी है । सब कुछ बदल गया तो ये भी संस्कार बदल गया ।
गांव में साइकिल मांगने की प्रथा होती थी । बाबा से कोई साइकिल मांगने आया तो महिन नेता आदमी – आंगन से पूछ लो कह के अपना इज्जत बचा लेते थे और जो साइकिल मांग दिया – मेरी दादी उसकी इज्जत उतार देती थी । हा हा हा । क्या मजाल की कोई दुबारा साइकिल मांगने आए 😉
परबाबा मुजफ्फरपुर ज़िला स्कूल पढ़ने गए तो उधर से रेलेे खरीदते आए – बाबा कहते थे – रेलेे साइकिल को देखने के दस कोस से लोग आया था । हा हा हा । शायद वह तब के सम्मिलित परिवार की पहली साइकिल रही होगी । सन 1920 के आस पास । तब से लेकर आज तक हर पीढ़ी के पास उसके हाईस्कूल के दौर से साइकिल खरीदना एक प्रथा है और शायद हर मिडिल क्लास में ।
मेरी पहली बाई साइकिल भी सातवीं कक्षा में खरीदी गई थी । शायद 18 इंच वाली । उसी नए साइकिल पर सीखे भी । गजब का थ्रील आता था – जैसे इस सड़क पर हम भी अब दू पैसा के आदमी हो गए हैं :)) शायद एवन थी । फिर हीरो और फिर ब्लू कलर की बीएसए एसएलआर । कॉलेज में फैशनेबल साइकिल रखे थे । कई स्कूटर और बाइक वाले मित्र मांग कर ले जाते थे – कैट टाइप 😎
अब फिर से साइकिल खरीदने का मन । बहुत हल्का नहीं लेकिन बेहतरीन ब्रांड । रेलेे । साइकिल खरीदने जाना और दुकान में उसको कासवाना फिर घर आना :)) साइकिल को सूती कपड़ा से हर रोज पोछना और कभी कभी कभार उसका ओवर हौलिंग करवाना । नारियल के तेल से उसका रिम साफ करना इत्यादि इत्यादि – सब याद है :))
टीन येज में साइकिल से पूरा पटना धांगे हुए हैं 😎 गोग्गलस पहन कर ।
बहुत कुछ छूट गया – बहुत कुछ लिख दिया – अब कुछ आप भी लिखें :)) अपनी साइकिल की यादें …!!!
~ रंजन / दालान / 29.05.20

अंचार….

आपके डाइनिंग टेबल या आपके भोजन पर बेहतरीन अंचार अवश्य होना चाहिए । अब खाना बढ़िया नहीं बना है , यह कहने का हिम्मत बहुत कम लोगों को होता है तो उसकी भरपाई वह अंचार करता है 😝
दस बजिया स्कूल में पढ़े है । मतलब सुबह दस से शाम चार वाला । टिफिन ले जाना थोड़ा शान के खिलाफ भी होता था सो 4 बजे घर लौटते ही – सब्जी खत्म – दाल खत्म इत्यादि इत्यादि फिर दिन का बचा हुआ चावल और बोईआम से निकला हुआ बड़का आम के फांक वाला अंचार और उसका मसाला । भात में सान दीजिए और भर दम खा लीजिए 😎 उसके बाद क्रिकेट / फुटबॉल / लट्टू – जो मन करे ।
अंचार को लेकर थोड़ा सेंसिटिव हूं । दिन के प्रथम भोजन में बिल्कुल नहीं चाहिए लेकिन बाकी के सभी भोजन में चाहिए ही चाहिए टाइप ।
तरह तरह का अंचार देखा , जाना और चखा लेकिन मेरे इलाके में मुख्यत आम का , मिर्च का , कभी कभी कटहल का , भोज में आलू का भी । करौंदा का भी – कभी कभार थोड़ा महिन परिवार के भौजाई के यहां या फिर जो दक्षिण भारत ट्रैवल कर के आया हो तो – तनी टेस्ट कीजिए न रंजू बाबू , हैदराबाद से लाए हैं टाइप 😝
अंचार बहुत शुद्धता से बनाया जाता है । बचपन में देखते थे – आम आया , फंहसूल से कटाया , मसाला तैयार हुआ , तेल पेराया , बड़का बड़का सीसा वाला बॉईआम साफ हुआ । आम सुखाया गया , उसके फांक में मसाला डाला गया – सरसों के तेल में सम्पूर्ण स्नान इत्यादि के साथ उसको धूप दिखाया गया । फिर उसको सीसा के मर्तबान में रखा गया । जिस आम के अंचार से टप टप तेल नहीं टपका – मतलब कहीं कुछ कंजूसी हुआ है 😐
खैर , हमको भी अंचार बनाने आता है 😝 हॉर्लिक्स का एक सीसी ले लीजिए । उसको सर्फ के घोल से साफ कर के धूप में सूखा दीजिए । आधा किलो हरा मिर्च खरीद के लाइए । हर एक मिर्च का पेट काट दीजिए । फिर उसको हॉर्लिक्स वाले सीसी में रख कर छह नींबू का रस उसमे डाल दीजिए और थोड़ा अदरक का महिन पिस । स्वादानुसार नमक और अगर घर में आम का अंचार या भरवां मिर्च का अंचार बन रहा हो तो उसका मसाला इस हरे मिर्च वाले में डाल दीजिए । थोड़ा दो चार दिन धूप दिखा दीजिए ।
फिर जब गैर खून नजदीकी संबंधी ने बढ़िया स्वादिष्ट खाना नहीं बनाया हो फिर इस आपके हरे मिर्च वाले अंचार को भोजन के साथ लेे । ना शिकायत होगी और ना ही भूखे पेट एक दूसरे के कूल खानदान और सभ्यता पर कोई श्लोक बाजी 😝
दिन सुखमय रहेगा 😐
~ रंजन / दालान / 25.05.20