सरौता …कहां भूल आए … :))

” सरौता कहां भूल आए …प्यारे नंदोइया “
~ पद्म विभूषण गायिका स्व गिरिजा देवी जब इस गीत को बेहद सलीके अंदाज़ से गाती थी ,समा बन्ध जाता था :))
हम शायद उस पीढ़ी से आते हैं , जहां बचपन कि स्मृतियों में सरौता बसा हुआ है । पुरुष के महिन चाल चलन का यह भी एक परिचायक होता था कि वो कितनी महिनी से अपने सरौता से सुपारी काटता है । बाएं हाथ में सुपारी और दाहिने हाथ में सरौता । बेहतरीन सफेद धोती और मलमल का कुर्ता । मुख में पान , लाल होटों से रिसता पान का पिक । शीशम के बड़े कुर्सी पर बैठा ।
बाबा के पास हर तरह का सरौता होता था । छोटा वाला पॉकेट में । एक दादी ( दीदी ) के दराज में । एक दो इधर उधर । खानदान की परम्परा – सरौता से सुपारी काटना पहले सीखो :)) उस सरौता से उस बचपन में सुपारी काटते वक्त जो एहसास होता था , वह सचमुच में सुखद होता था ।
एक बहुत गलत परम्परा भी थी – दरवाजे पर इस जाड़े बड़े बुजुर्ग जब अपने अपने शाल को ओढ़ … दे गप्प …दे गप्प करते थे । इसी बीच हम बच्चों को ऑर्डर होता था – जाओ आंगन से पान बना कर लाओ । लोग अन्य धूम्र पान में बड़े बुजुर्ग का लिहाज करते थे लेकिन पान के मामले में ऐसा कुछ नहीं था । दरवाजे पर बैठे बाबा , चाचा सभी एक साथ पान की फरमाइश कर देते थे । किसी को पीला पत्ती तो किसी को काला किसी को काला – पीला दोनों । यहां काला मतलब – लखनउ वाला पंजुम और पीला मतलब मुजफ्फरपुर का रत्ना छाप 300 . पान बनाते वक़्त चुना और कत्था का सही मिश्रण । वक़्त लगा था – कई फटकार के बाद सीखने में । हर एक कुर्सी के बगल में , पीतल का दो फीट ऊंचा पीकदान । नक्काशी किया हुआ ।
घर की महिलाएं भी पान खाती थी । पुरुषों के जरदा खत्म हो जाने पर , महिलाओं से जर्दा मांगा जाता था ।
पन्हेरी टोला था । वहां से एक बुजुर्ग हर सुबह बाबा के पान वाली डलीया में पान रख जाते थे । पुराने सड़े पान फेंक दिया जाता था । हर सुबह का रिवाज ।
तीसरी कसम का एक गीत है – पान खाए सैयां हमारो …मलमल के कुर्ते पर छींट लाल लाल …तब शायद यही गीत पुरुष का परिचायक होता था । अब तो सीधे वोदका और मालूम नहीं क्या लिखा जाता है ।
कहते हैं – जब तक राजकपूर जिंदा होते थे और उनके पार्टी के अंतिम पेशकश ” मगही पान ” होता था :))
खैर , बात सरौता से शुरू होकर कहां आ गई और आप भी पूरा पढ़ लिए ।
” पान खाए सैयां हमारो …मलमल के कुर्ते पर छींट लाल लाल ” 🙂
है न बढ़िया गीत …
~ रंजन / दालान / 09.12.2019

इलेवन मिनट्स …

वर्षों पहले की बात है । विश्वविद्यालय के तरफ़ से प्रायोगिक परीक्षाएँ में परीक्षक बन मुझे आगरा जाना हुआ । आस पास के दो तीन कॉलेज में प्रायोगिक परीक्षा समाप्त करवा मैंने एक टैक्सी ले ली । आगरा में ही ‘इलेवन मिनट्स’ किताब ख़रीद ली । उम्र कम थी – किताब बस दो घंटे में , रास्ते में ही ख़त्म कर दिया । वक़्त के साथ सब भूल गया लेकिन उस किताब में लिखी एक बात याद रह गयी – ” हम इंसान दर्द को एँज़ोय करते हैं ” !
तब यह बात मन में अटक गयी । कई गीत भी दर्द पर लिखे जा चुके हैं – ‘किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार’ । शायद यह दर्द का ही कारोबार है की कई बार राजनीति में भी इसी दर्द को सहानुभूति वोट के लिए इस्तेमाल किया जाता है । इश्क़ तो पूरा से दर्द और सहानुभूति का ही खेल है ।
रेडियो जॉकी शशि ने जब मुझसे कुछ पूछा तो मैंने रेडियो मिर्ची पर कहा था – शायद हम तरह की भावनाओं को एँज़ोय करना चाहते हैं और घृणा भी एक पवित्र भावना है । जैसे एक सर्किल है , जिसके शून्य डिग्री पर प्रेम है और 360 डिग्री पर घृणा है – जब घृणा हद से पार गुज़र जाएगी , काँटा 360 डिग्री के पार फिर से शून्य डिग्री पर स्थित एक प्रेम पर जा पहुँचेगा । और यह काँटा हमेशा क्लॉकवाइज़ घूमता है ।
एक दफ़ा एक लड़की ने एक लड़के को कहा – बहुत प्रेम किए , अब हम दोनो को अलग हो जाना चाहिए । लड़के ने पूछा – क्यों ? लड़की बोली – एक कशिश रह जाएगी , नहीं मिल पाने की । लड़का हैरान था । लड़की को सम्पूर्ण प्रेम चाहिए था – प्रेम के बाद के दर्द का ।
मिलन तो प्रेम की पूर्णाहती है । दर्द प्रेम को ज़िंदा रखता है ।
कुछ अजीब नहीं है – भावनाओं का खेल । दर्द को भी एँज़ोय करने की तमन्ना 😳

29.11.2016

गुल्लक …

गुल्लक बेहद पसंद । कहीं से भी आओ और पॉकेट में खनखनाते चंद सिक्कों को गुल्लक में डाल निश्चिंत । फिर उस गुल्लक के भरने का इंतजार ताकि उसे फोड़ा जा सके । कभी किसी को कड़कड़ाते नोट गुल्लक में डालते नहीं देखा । हमेशा सिक्के ही ।
पर कभी कभी ऐसा लगता है क्या इतने दिनों मौन रह कर हर एक सिक्के को खुद के अंदर महसूस कर , उन सिक्कों से उस गुल्लक को लगाव नहीं हो जाता होगा ? और जो उस गुल्लक में सिक्कों को डाल रहा होता है , उसे उस गुल्लक से लगाव नहीं होता होगा ? शायद नहीं । गुल्लक को सिक्कों से लगाव हो भी जाए तो सिक्कों के मालिक को नहीं होता है वरना कभी कोई गुल्लक फूटे ही नहीं , बस सजता रहे , आजीवन । क्या दुर्भाग्य है , गुल्लक की आयु तभी तक है , जब तक वो खाली है । जैसे जैसे वो भरता जाता होगा , वह गुल्लक एक भय में जीता होगा । प्लीज़ …अब और नहीं । कभी भी फोड़ दिया जाऊंगा ।
और एक दिन वो फोड़ दिया जाता है । गुल्लक का मालिक उन सिक्कों से कोई मनचाही सामान खरीदने निकल पड़ता है । कोई फुट कर आपको मजबूत करता है और आप किसी को फोड़ कर मजबूत होते हैं ।
इंसान भी गुल्लक है । नहीं । वो गुल्लक नहीं है । भले ही उसके नसीब में कड़कड़ाते नोट न हों लेकिन वो सिक्कों को महसूस अवश्य करेगा …

कुछ…कुछ …यूं ही …बेवजह ही …:))

~ गुल्लक , 28.11.2019

ओनली बुलेट …

पटना में घर घर बुलेट , हर हर बुलेट हो गया है । जिसको देखिये वही बुलेट हांक रहा है । हाफ लिवर का आदमी भी बुलेट लेकर घूम रहा है । अरे भाई , तुम्हारा कोई इज्जत नही है लेकिन बुलेट का इज्जत तो है …न । अकेले बुलेट स्टैंड पर नही लगेगा लेकिन घूमेंगे बुलेट पर ही । कुकुर बिलाई , खियाईल बिहारी जब बुलेट लेकर घूमता है , मन उदास हो जाता है 🙁
बुलेट मतलब बड़का ठीकेदार या उसका मुंशी मैनेजर या थानेदार । डीजल वाला बुलेट , चार कोस दूर से ही आवाज़ आ रहा है । लाल बुलेट , हैंडिल में लाल झालर , आईना में कोई देवी स्थान का चुनरी लपेटा हुआ । ज़िला जवार का कोई बड़का रंगबाज़ , आर्मी का कैप्टन , फॉरेस्ट ऑफिसियल पर बुलेट शोभा देता है ।
बुलेट पर गर्लफ्रेंड को लेकर नही घुमा जाता है , शौकिया में बड़े भाई की छोटी साली को लेकर घुमाया जाता है । जीजा जी , बोलिये न रंजू जी को की थोड़ा बुलेट से घुमा दे । अब रंजुलाल हाफ पैंट में ही बुलेट स्टार्ट । चलिए न , जहां कहियेगा , वहीं घुमा देंगे , थोड़ा सट के बैठिये ..न , बैलेंस नही हो रहा है । बुलेट मतलब नहर किनारे …ढक चक …ढक चक …हवा के झोंका से लाल दुपट्टा लहरा रहा । जितना दुपट्टा लहरा रहा उतना ही बुलेट का स्पीड बढ़ रहा ।
अब पटना के कंकड़बाग में हाफ लिवर वालों को बुलेट का सवारी करते देख , मन दुखी हो जाता है । खैर …..
~ रंजन ऋतुराज / पटना / 19.11.2017

शब्द छवि बनाते हैं …

मै कोई साहित्यकार / लेखक / पत्रकार / कवी / शायर नहीं हूँ – बस जो जब दिल में आया लिख दिया – करीब ठीक दस साल पहले – मैंने यूँ ही रोमन लिपि में हिंदी भाषा में – रामेश्वर सिंह कश्यप उर्फ़ लोहा सिंह से प्रेरित होते हुए – खुद पर ही एक बेहतरीन व्यंग किया था – जिसकी दो प्रतिक्रिया हुई – एक इंटरनेट मित्र ने मुझे बड़े ही अजीब ढंग से देखा और मेरे बारे में बहुत ही गलत छवी बना ली – उन्हें मै देहाती / फलना / ढ़कना मालूम नहीं क्या क्या ..बहुत कोशिश मैंने की ..पर वो मेरे बारे में गलत ही सोचते रहे – वहीं दूसरी तरफ एक और भईया समान मित्र जो एक मल्टीनेशनल में ग्लोबल हेड हैं – मेरे पीछे पड़ गए – रंजन तुममे असीम संभावनाएं हैं – तुम लिखो – फिर मै लिखने लगा !
“एक ही लेख ..दो अलग अलग लोगों पर अलग अलग छाप छोड़ गया “
शब्द छवी बनाते हैं – कोई आपके अन्दर नहीं झांकने जाता – जैसे आपके बैंक मे आपके पास कितना पैसा है – किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है – अब क्या पहनते हैं – क्या ओढ़ते है – कैसा जीवन जीते हैं – लोग वही देख आपके लिए एक छवी बनाते हैं – ठीक उसी तरह आपके मुख से / आपके कलम से क्या निकलता है – वही आपकी छवी बनती है – “शब्द नकाब होते हैं” !
पर …पर ..आपके बैंक में कितना पैसा है …यह आपके परिवार के लिए महतवपूर्ण है …ठीक वैसे ही ..आप अन्दर से कैसे इंसान है …यह आपके करीब के लोगों के लिए काफी महतवपूर्ण है …आप क़र्ज़ लेकर खूब महंगे कपडे पहने …खूब चमक दमक से रहे ..और अन्दर ही अन्दर खोखले हैं …अन्तोगत्वा सब कुछ फीका लगेगा …ठीक उसी तरह ..आपका व्यक्तित्व अन्दर से एकदम खोखला है ..और आपके शब्द कुछ पल / दिन के लिए लोगों को भरमा सकता है …पर जिस दिन वो नकाब गिरेगा …आपको नंगा देख दुनिया घृणा करने लगेगी …!
बेहतर है …हम स्वाभाविक रहे …

~ रंजन / दालान / 21.11.2013

छठ क्या है ?

छठ क्या है ? छठ यही है 🙏
~ किसी भी बिहारी के लिए यह समझा पाना की छठ क्या है । दुनिया का सबसे मुश्किल काम । जाति को कौन पूछे – धर्म की दीवारें गिर जाती है ।
~ भावनाओं का वह सागर किस तूफान पर होता होगा जब गांव के नथुनी मियां कहते हैं –” बउआ , दु सूप हमरो तरफ से , बेटा के अरब में नौकरी लाग गइल । “
~ कैसा है यह पर्व । दलित के बगल में ब्राह्मण भी उसी घाट पर खड़ा । राजा के बगल में रंक । चोर के बगल में सिपाही । जमींदार के बगल में बेलदार । कलक्टर के बगल में चपरासी । सभी के सभी एक साथ पहले डूबते और फिर उगते सूर्य की ’अरग ’ 🙏
~ कितना कठिन पर्व । पहले दिन १२ घंटे का बिना जल का उपवास । फिर दूसरे दिन २४ घंटे का बिना जल का उपवास । और फिर ३६ घंटे का बिना जल महा उपवास 🙏
~ हिन्दू धर्म मंत्रोचारण पर निर्भर है । ना किसी ब्राह्मण की ज़रूरत और ना ही किसी वेद की पढ़ाई । ना किसी हवन की ज्वाला और ना ही किसी जनेऊ और टीक का धारण 🙏
~ जो है तो बस वही है – ऊर्जा के सबसे बड़े श्रोत – सूर्य की उपासना । पहले डूब रहे सूर्य की पूजा फिर एक कठोर रात गुजारने के बाद उग रहे सूर्य की पूजा ।
और आप हमसे पूछते हैं …छठ क्या है । और क्या लिखे और क्या समझाएं कि छठ क्या है । ना हम लिख सकते हैं और ना आप समझ सकते हैं ।
आप अगर हम है तो बस समझ जाइए – आज नहाय खाय है । छठ व्रती नहाने के बाद साल का सबसे पवित्र और सात्विक भोजन करेंगे 🙏 अरवा चावल , चना का दाल और कद्दू की सब्जी – पता है …इस पवित्रता को एक साल का इंतजार होता है 🙏
और आप हमसे पूछते हैं …छठ क्या है …
: रंजन , दालान / 18.11.2020

छठ : जब ले माई बिया …

आज नहाय – खाय है ! हल्का ठण्ड ! कुहासा भी है ! कम्बल से बाहर निकला तो देखा – दरवाजे पर हुजूम ! बाबा का खादी वाला शाल ओढ़ – चाचा का हवाई चप्पल ले के …बाहर ! कुर्सियां सजी है – लोग बैठे हैं !
अहा …मिंटू चाचा …एक कुर्सी पर चुप चाप ! सीधे जा कर उनको ‘गोर’ छू कर प्रणाम – चाचा …आपका बाल सफ़ेद हो गया …हंसने लगे – बोले ….तुमको गोद में खिलाया – अब जब तुम चालीस ‘टप’ गए – फिर हमारी क्या अवकात !
दरवाजा पर सब लोग हंसने लगे ! बड़ा ही मनोरम दृश्य !
‘मिंटू’ चाचा – सब याद है ! कुछ पढ़ लिख ‘हैदराबाद’ चले गए ! घर के सबसे बड़े लडके ! पिछले तीस साल से हर साल – छठ पूजा में गाँव आना ! अजब ढंग है – सुबह सुबह चार बजे ही – गाँव में घुस जाते हैं – लोग कहता है – गाँव में घुसते वक़्त – अपना जूता खोल देते हैं – पिछला साल हम पूछे – ऐसा क्यों चाचा ? बोले – इ मंदिर ह ( यह मंदिर है ) – बाप दादा का जगह है ! कभी कोई मुझे खोदेगा – तब मेरा जड़ यहीं मिलेगा ! जड़ है ..तभी हम और तुम हैं !
मिंटू चाचा चार्टेड प्लेन से चलते हैं – गाँव में किसी को नहीं पता – बताना भी नहीं चाहते – हैदराबाद में पचास करोड़ का अपना बंगला है ! गाँव आने पर – वही हाफ कुरता – पायजामा ! हम पूछे – कब तक गाँव आईयेगा – एक दिन छुट जायेगा ..सब ! उनका आँख भर गया – कहने लगे – ‘जब ले माई बिया’ ( जब तक माँ जिन्दा है ) !
तब तक एक नौजवान जेन्स और टी में – मिंटू चाचा का बेटा – अमरीका में डाक्टर – अँगरेज़ पत्नी ! आँख निचे – हाथ पीछे ! मिंटू चाचा ..भावुक हो गए ..अपना स्ट्रगल का कहानी सुनाने लगे – पढ़ते वक़्त – गाँव का कौन कौन मदद किया – कैसे किया….उनका बेटा ..चुप चाप …आँख निचे किये …सुन रहा है .. ! बेचारा उनका बेटा – एक तरफ से दरवाजे पर सभी लोग को – गोर छू छू के प्रणाम – मिंटू चाचा सभी से – आशीर्वाद दीं – इहे एगो बारन ! ( आशीर्वाद दीजिये – यहीं एक हैं मेरे सुपुत्र ) !
मिंटू चाचा बोले – चलो मेरे अंगना – चाची से मिल लो – उनका घर मेरे घर से सौ गज दूर – रास्ता में बोले – किसको दिखाएँ और क्या दिखाएँ – परस्पर श्रद्धा ख़त्म हो जायेगा – जो क़र्ज़ माथे पर है – किस धन से चुकाएं ….आँगन में चाची …मचिया पर …हंसी मजाक …स्टील के कप में… एक कप चाय ..मिला ..निमकी के साथ !
बाहर निकल – मिंटू चाचा से – हम पूछे – कब तक गाँव आईयेगा – एक दिन छुट जायेगा ..सब ! उनका आँख भर गया – कहने लगे – ‘जब ले माई बिया’ ( जब तक माँ जिन्दा है ) !
~ 16 November – 2012 / DAALAAN

छठ की यादें : रंजन ऋतुराज

कल से ही अखबार में ‘छठ पूजा’ को लेकर हो रही तैयारी के बारे में समाचार आने लगे ! आज तो दिल्ली वाला ‘हिंदुस्तान दैनिक’ फूल एक पेज लिखा है ! कल दोपहर बाद देखा – फेसबुक पर् शैलेन्द्र सर ने एक गीत अपने वाल पर् लगाया था – शारदा सिन्हा जी का ! गीत सुनते सुनते रोआं खडा हो गया और आँख भर आयी !
“छठी मैया …छठी मैया…..” …………..
क्या लिखूं ? अपना वतन याद आ रहा है ! अपना गाँव – शहर – अपने लोग ! क्या खोया – क्या पाया ..इसका हिसाब तो बाद में होगा ! ये चमक – ये दमक – ये धन – ये दौलत – ये रोब – ये अकड – ये घमंड ..कभी कभी ये सब फीका लगता है ! खैर …
दशहरा के बाद ही ‘कैलेण्डर’ में ‘चिन्हा’ लगा दिया जाता था – कहिया गाँव जाना है ! हमारे गाँव में एक बहुत खूबसूरत परंपरा थी – दशहरा से लेकर दीपावली के बीच ‘नाटक’ खेला जाता था ! कभी पहले पहुंचा तो ..नाटक में भाग ले लेता था ! अब कुछ नहीं होता – अब हर घर में टी वी है ! मेरे घर में एक परंपरा है – हर होली और छठ में परिवार के सभी लोगों के लिये ‘कपड़ा’ खरीदने का पैसा – बाबा देते हैं – आज उनकी उम्र करीब चौरासी साल हो गयी – फिर भी इस बार दशहरा में उनसे मिला तो ‘छठ’ के नाम पर् वो बच्चों और पत्नी के कपडे के लिये कुछ पैसा – मां को दिए – फिर मां ने हमारी पत्नी को दीं ! 🙂 पैसा से ज्यादा ‘आशीर्वाद’ होता है !
बचपन में ये पैसा से हमलोग का कपड़ा खरीदाता था ! रेडीमेड का जमाना नहीं था ! मा बाबु जी के साथ रिक्शा से जाना – कपड़ा खरीदना – फिर उसको ‘फेरने’ जाना 😉 ‘फेरते’ वक्त बाबु जी नहीं जाते – खैर ..कपडा खरीदा गया ! दीपावली भी मन गया ! मुजफ्फरपुर में रहते थे – एक दिन पहले रिक्शा वाले को बोल दिया जाता की – सुबह सुबह ३ बजे आ जाना ! उस रात ..माँ रात भर कपडा को सूटकेस में डालती ! हल्का ठण्ड भी होता था सो स्वेटर वैगरह !
सुबह सुबह रिक्शा आ जाता ! सूटकेस रखा जाता ! एक रिक्शा पर् माँ और बहन और एक पर् बाबु जी और हम ! पैर को सूटकेस के ऊपर लटका के ! बाबु जी के गला में मफलर और एक हाफ स्वेटर ! चार बजे एक बस – रेलवे स्टेशन के सामने से खुलता था ! ठीक उसी वक्त एक ट्रेन ‘कलकत्ता’ से आता – हम लोग जब तक पहुंचते बस भर चूका होता ! सिवान के बच्चा बाबु का बस होता था – कंडक्टर – खलासी – ड्राईवर जान पहचान का सो सीट का इंतजाम हो जाता ! अब इमेजीन कीजिए – पूरा बस ‘कलकतिया’ सब से भरा हुआ ! “चुकुमुकू” कर के सीट पर् बैठ कर बीडी ! भर माथा ‘कियो-कारपीन’ तेल ! एक झोला और झोला में तरह तरह का साबुन 🙂 और पाकीट में ‘गोल वाला चुनौटी’ 😉 खिडकी खोल के हवा खाता 🙂
गाँव से कुछ दूर पर् ही एक जगह था – वहाँ हम लोग उतरते ! माँ को चाय पीने का मूड होता ! तब तक बाबु जी देख रहे होते ही गाँव से कोई आया है की नहीं ! पता चलता की ‘टमटम’ आया हुआ है ! माँ और बहन टमटम पर् ..पूरा टमटम साडी से सजाया हुआ ! ‘कनिया’ 🙂 हम और बाबु जी हाथी पर् ! हम लोग निकल पड़ते ..! वो लहलहाते खेत ! रास्ता भर हम बाबु जी को तंग करते जाते – ये खेत किसका है ? इसमे क्या लगा है ?
गाँव में घुसते ही – बाबु जी हाथी से उतर जाते और पैदल ही ! जो बड़ा बुजुर्ग मिलता – उसको प्रणाम करते – अपने बचपन के साथीओं से मिलते जुलते ! तब तक हम दरवाजे पर् पहुँच जाते ! बाबा को देख जो खुशी मिलती उस खुशी को बयान नहीं कर सकता ! वो खादी के हाफ गंजी में होते – सीसम वाला कुर्सी पर् – आस पास ढेर सारे लोग ! उनको प्रणाम करता और कूदते फांदते आँगन में ..दीदी( दादी)  के पास ! आँगन में लकड़ी वाला चूल्हा – उस चूल्हे से आलूदम की खुशबू ! आज तक वैसा आलूदम खाने को नहीं मिला 🙁  दरवाजे पर् कांसा वाला लोटा में पानी और आम का पल्लो लेकर कोई खडा होता ..माँ के लिये ! फिर ‘भंसा घर’ में जा कर ‘कूल देवी’ को प्रणाम करना ! इतने देर में हम ‘दरवाजा – आँगन’ दो तीन बार कर चुके होते ! ढेर सारे ‘गोतिया’ के भाई बहन – कोई रांची से – कोई मोतिहारी से – कोई बोकारो से ! कौन कब आया और कितने ‘पड़ाके’ साथ लाया 🙂 तब तक पता चलता की ‘पड़ाका’ वाला झोला तो मुजफ्फरपुर / पटना में ही छूट गया ! उस वक्त मन करता की ‘भोंकार’ पार कर रोयें ! गोतिया के भाई – बहन के सामने सारा इज्जत धुल जाता ! माँ को तुरंत खड़ी खोटी सुनाता ! दीदी ( दादी ) को ये बात पता चलता – फिर वो बाबा को खबर होता ! बाबा किसी होशियार ‘साईकील’ वाले को बुलाते – उसको कुछ पैसा देते की पास वाले ‘बाज़ार’ से पड़ाका ले आओ 🙂
दोपहर में हम बच्चों का डीयुटी होता की पूजा के परसाद के लिये जो गेहूं सुख रहा है उसकी रखवाली करो के कोई कौआ नहीं आये ! हम बच्चे एक डंडा लेकर खडा होते ! बड़ा वाला खटिया पर् गेहूं पसरा हुआ रहता …फिर शाम को कोई नौकर उसको आटा चक्की लेकर जाता ! कभी कभी हम भी साथ हो जाते ! बिजली नहीं होता था ! आटा चक्की से एक विशेष तरह का आवाज़ आता ! वो मुझे बहुत अच्छा लगता था !
दादी छठ पूजा करती ! पहले बाबु जी भी करते थे ! आस पास सभी घरों में होता था ! नहा खा के दिन बड़ा शुद्ध भोजन बनता ! खरना के दिन का परसाद सभी आँगन में घूम घूम के खाना ! छठ वाले दिन – संझीया अरग वाले दिन – जल्दी जल्दी तैयार हो कर ‘पोखर’ के पास पहुँचाना ! बहुत साल तक माँ नहीं जाती – फिर वो जाने लगीं ! वो सीन याद आ रहा है और आँखें भींग रही हैं ! १५ – २० एकड़ का पोखर और उसके चारों तरफ लोग ! रास्ता भर छठ के गीत गाते जाती महिलायें ! भर माथा सिन्दूर ! नाक से लेकर मांग तक ! पूरा गाँव आज के दिन – घाट पर् ! क्या बड़ा – क्या छोटा – क्या अमीर – क्या गरीब ! गजब सा नज़ारा ! पोखर के पास वाले खेत में हम बच्चे ..पड़ाका में बिजी ..तब तक कोई आता और कहता ..’अरग दीआता’  …पड़ाका को वहीँ जैसे तैसे रखकर दादी के पास ..वो “सूर्य” को प्रणाम कर रही हैं ….आस पास पूरा परिवार …क्या कहूँ इस दृश्य के बारे में ….बस कीबोर्ड पर् जो समझ में आ रहा है ..लिखते जा रहा हूँ ….
हमारे यहाँ ‘कोसी’ बंधाता है – आँगन में ! उस शाम जैसी शाम पुर साल नहीं आती ! बड़ा ही सुन्दर ‘कोसी’ ! चारों तरफ ईख और बीच में मिट्टी का हाथी उसके ऊपर दीया …! घर के पुरुष कोसी बांधते ..हम भी पुरुष में काउंट होते 🙂  बड़े बड़े पीतल के परात में परसाद ! वहाँ छठ मैया से आशीर्वाद माँगा जाता – हम भी कुछ माँगते थे 🙂 फिर दादी को प्रणाम करना !
अब यहाँ एक राऊंड फिर से दरवाजा पर् ‘पड़ाका’ ! पूरा गाँव हील जाता 😉 दादी कम्बल पर् सोती सो उनके बड़े वाले पलंग पर् जल्द ही नींद आ जाती …सुबह सुबह ..माँ जगा देती ….कपड़ा बदलो ….पेट्रोमैक्स जलाया जाता …कई लोग “लुकारी” भी बनाते ! कई पेट्रोमैक्स के बीच में हम लोग फिर से पोखर के पास निकल पड़ते ! दादी खाली पैर जाती थी ! पूरा गाँव ..नहर के किनारे ….  एक कतार में ……पंडीत जी की खोजाई होती ..’बनारस वाला पत्रा’ देख कर वो बताते …सूरज भगवान कब उगेंगे ….उसके १० -१५ मिनट पहले ही दादी पोखर के किनारे पानी के खडा होकर ‘सूर्य’ भगवान को ध्यानमग्न करती ! अरग दिआता !
पूजा खत्म हो चूका होता ! पोखर से दरवाजे लौटते वक्त …तरह तरह का परसाद खाने को मिलता ! किसी का देसी घी में तो किसी का ‘तीसी के तेल ‘ का 🙂 फिर दरवाजे पर् आ कर ‘गन्ना चूसना’ :)) फिर हम दादी के साथ बैठ कर खाते – पीढा पर् !
अब दिल धक् धक् करना शुरू कर देता ..बाबु जी को देखकर डर लगता ..मालूम नहीं कब वो बोल दें …मुजफ्फरपुर / पटना वापस लौटना है 🙁 बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती …माँ को देखता …वो धीरे धीरे ‘टंगना’ से सिर्फ हम लोगों के ही कपडे चुन चुन कर एक जगह रख रही होतीं ….ऐसा लगता ..अब दिल बाहर आ जायेगा ….तब तक देखता ..टमटम सजा खडा है ..पता चलता की ‘मोतीहारी’ वाले बाबा का परिवार वापस जा रहा है …सब गोतिया – पटीदार के भाई बहन हम ऐसे मिलते जैसे ..मालूम नहीं अब कब मिलेंगे ….बाबा के पास दौर कर जाता ..काश वो एक फरमान जारी कर दें …एक दिन और रुकने का ….बाबा ने फरमान जारी कर दिया और हम लोग एक दिन और रुक गए :))
अगले दिन …जागते ही देखता की ..बाबू जी ‘पैंट शर्ट ‘में 🙁 मायूस होकर हम भी ! माँ का खोइंछा भराता..कुल देवी को प्रणाम ..दादी के आँखें भरी ..माँ की …दादी – बाबा आशीर्वाद में कुछ रुपये ..पॉकेट में छुपा कर रख लेता 🙂
फिर होली का इंतज़ार …..
….मालूम नहीं ..क्या लिखा ..कैसा लिखा ..बस बिना संपादन ..एक सांस में लिख दिया ….कम्मेंट जरुर देंगे !

रंजन ऋतुराज / 8 नवम्बर , 2010 / इंदिरापुरम

रवीश कुमार की यादों में छठ

रविश कुमार शौक से पत्रकार है – मेरे पड़ोसी से मेरा ही परिचय देने लगे – “हम यादों में जीते हैं” – आज के ‘प्रभात खबर’ के पहले पन्ने पर छपी – उनकी बेहतरीन लेख – छठ पूजा पर – “सामूहिकता सिखाते छठ घाट”‘नरियलवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुग्गा मेड़राए, ऊ जे खबरी जनइबो अदित से, सुग्गा दिले जूठइयाए, उ जे मरबो रे सुगवा धनुष से, सुग्गा गिरे मुरझाए .’ मैं कहीं भी रहूं, किसी भी हालत में रहूं, बस यह गाना किसी तरह मेरे कानों से गुजर जाये, मैं छठ में पहुंच जाता हूं. यह गीत रुलाते-रुलाते अंतरात्मा के हर मलिन घाट को धोने लगता है, जैसे हम सब बचपन में मिल कर झाड़ू लेकर निकल पड़ते थे, सड़क-घाट की सफाई करने. मुझे मालूम है कि छठ के वक्त हम सब भावुक हो जाते हैं. आपको पता चल गया होगा कि मैं भी भावुक हूं. हर छठ में यह सवाल आता है कि छठ में घर जा रहे हो. घर मतलब गांव. गांव मतलब पुरखों की भूमि. अब घर का मतलब फ्लैट हो गया है, जिसे मैंने दिल्ली में खरीदा है. गांववाला घर विरासत में मिला है, जिसने हमें और आपको छठ की संस्कृति दी है. मेरा गांव जितवारपुर बूढ.ी गंडक के किनारे है. बड़की माई छठ करती थीं. उनकी तैयारियों के साथ पूरा परिवार, जो जहां बिखरा होता था, सब छठ के मूड में आ जाता था. मां पूछती, ऐ जीजी केरवा केने रखाई, बाबूजी अपने ब.डे भाई से पूछने लगते थे- हो भइया,मैदा,डालडा कब चलल जाई अरेराज से ले आवे, आ कि पटने से ले ले आईं. कब जाना है और कब तक मीट-मछरी नहीं खाना है, सबकी योजना बन जाती थी. डालडा में ठेकुआ छनाने की खुशबू और छत पर सूखते गेंहू की पहरेदारी. चीनीवाला ठेकुआ और गुड़वाला ठेकुआ. एक कड़ा-कड़ा और दूसरा लेरु आया(नरम) हुआ. आपने भी इसी से मिलता- जुलना मंजर अपने घर-परिवार और समाज में देखा होगा. छठ की यही खासियत है, इसकी जैसी स्मृति मेरी है, वैसी ही आपकी होगी. आज के दिन जो भी जहां होता है, वह छठ में होता है या फिर छठ की याद में.उस दिन मेरी नदी गंडक कोसी के दीये से कितनी सुंदर हो जाती है, क्या बताएं. अगली सुबह घाट पर प्रसाद के लिए कत्थई कोरवाली झक सफेद धोती फैलाये बाबूजी आज भी वैसे ही याद आते हैं. जब तक जिंदा रहे, छठ से नागा नहीं किया. दो दिनों तक नदी के किनारे हम सब होते हैं. सब अपनी- अपनी नदियों के किनारे ख.डे उस सामूहिकता में समाहित होते रहते हैं, जिसका निर्माण छठ के दो दिनों में होता है और जिसकी स्मृति जीवन भर रह जाती है. हमारे जितने भी प्रमुख त्योहार बचे हैं, उनमें से छठ एकमात्र है, जो बिना नदी के हो ही नहीं सकता. बिहार को नदियां वरदान में मिली हैं, हमने उन्हें अभिशाप में बदल दिया. आधुनिकता ने जबसे नदियों के किनारे बांध को ढूंढ.ना शुरू किया, नदियांे का वर्णन भयावह होता चला गया. छठ एकमात्र ऐसा पर्व है, जो नदियों के करीब हमें ले जाता है. यह और बात है कि हम नदियों के करीब अब आंख मूंद कर जाते हैं, ताकि उसके किनारे की गंदगी न दिखे, ताकि उसकी तबाही हमारी पवित्रता या सामूहिकता से आंख न मिला ले. घाटों को सजाने का सामूहिक श्रम नदियों के भले काम न आया हो, मगर सामाजिकता के लिए जरूरी है कि ऐसे भावुक क्षण ज़रूर बनते चलें.‘पटना के घाट पर, हमहूं अरिगया देबई हे छठी मइया,हम न जाइब दूसर घाट, देखब हे छठी मइया.’ शारदा सिन्हा जी ने इसे कितना प्यार से गाया है. पटना के घाट पर छठ करने की जिद. गंगा की तरफ जानेवाला हर रास्ता धुला नजर आता है. सीरीज़ बल्ब से सजा और लाउड स्पीकर से आनेवाली आवाज, ऐ रेक्सा, लाइन में चलो, भाइयो और बहनो, कृष्णानगर छठपूजा समिति आपका स्वागत करती है. व्रती माताओं से अनुरोध है कि लौटते वक्त प्रसाद जरूर देते जाएं. कोई तकलीफ हो, तो हमें ज़रूर बताएं. पूरी रात हिंदी फिल्म के गाने बजने लगते हैं. हमारे वक्त में दूर से आवाज़ आती थी, हे तुमने कभी किसी को दिल दिया है, मैंने भी दिया है. सुभाष घई की फिल्म कर्ज का यह गाना खूब हिट हुआ था. तब हम फिल्मी गानों की सफलता बॉक्स ऑफिस से नहीं जानते थे. देखते थे कि छठ और सरस्वती पूजा में कौन- सा गाना खूब बजा. काश कि हम नदियों तक जानेवाले हर मार्ग को ऐसे ही साल भर पवित्र रखते. जो नागरिक अनुशासन बनाते हैं, उसे भी बरकरार रखते.कितने नामों से हमने नदियों को बुलाया है. गंगा,गंडक,कोसी,कमला, बलान, पुनपुन, सोन, कोयल, बागमती, कर्मनाशा, फल्गु, करेह, नूना, किऊल ऐसी कई नदियां हैं, जो छठ के दिन किसी दुल्हन की तरह सज उठती हैं. आज कई नदियां संकट में हैं और हम सब इन्हें छोड़ कर अपनी- अपनी छतों पर पुल और हौद बना कर छठ करने लगे हैं. दिल्ली में लोग पार्क के किनारे गड्ढा खोद कर छठ करने लगते हैं. यहां के हजारों तालाबों को हमने मकानों के नीचे दफन कर दिया और नाले में बदल चुकी यमुना के एक हिस्से का पानी साफ कर छठ मनाने लगते है. तब यह सोचना पड़ता है कि जिस सामूहिकता का निर्माण छठ से बनता है, वह क्या हमारे भीतर कोई और चेतना पैदा करती है. सोचियेगा. नदियां नहीं रहेंगी, तो कठवत में छठ की शोभा भी नहीं रहेगी. घाट जाने की जो यात्रा है, वह उस सामूहिकता के मार्ग पर चलने की यात्रा है, जिसे सिर्फ नदियां और उनके किनारे बने घाट ही दे सकते हैं. क्या आप ईद की नमाज़ अपने घर के आंगन में पढ. कर उसकी सामूहिकता में प्रवेश कर सकते हैं. दरअसल इसी सामूहिकता के कारण ईद और छठ एक -दूसरे के करीब हैं. बिहार की एकमात्र बड़ी सांस्कृतिक पहचान छठ से बनती है. इसका मतलब यह नहीं कि अन्य सामाजिक तबकों के विशाल पर्व -त्योहार का ध्यान नहीं है, लेकिन छठ से हमारी वह पहचान बनती है, जिसका प्रदर्शन हम मुंबई के जूहू बीच और कोलकाता के हावड़ा घाट पर करते हैं. इस पहचान से वह ताकत बनती है, जिसके आगे ममता बनर्जी बांग्ला में छठ मुबारक की होर्डिंग लगाती हैं और संजय निरूपम मुंबई में मराठी में. दिल्ली से लेकर यूपी तक में छठ की शुभकामनाएं देते अनेक होर्डिंग आपको दिख जायेंगे.अमेरिका में रहनेवाले मित्र भी छठ के समय बौरा जाते हैं. हम सब दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बेंगलुरु में रहनेवाले होली को जितना याद नहीं करते, छठ को याद करते हैं. यह एक ऐसा पर्व है, जो भीतर से बिल्कुल नहीं बदला. पूजा का कोई सामान नहीं बदला. कभी छठ में नया आइटम जुड़ते नहीं देखा. अपनी स्मृति क्षमता के अनुसार यही बता सकता हूं कि छठ की निरंतरता गज़ब की है. बस एक ही लय टूटी है, वह है नदियों के किनारे जाने की. लालू प्रसाद के स्वीमिंग पुल वाली छठ ने इसे और प्रचारित किया होगा. यहीं पर थोड़ा वर्ग भेद आया है. संपत्र लोगों ने अपने घाट और हौद बना लिये. बिना उस विहंगम भीड़ में समाहित होने का जोखिम उठाये आप उस पहचान को हासिल करना चाहते हैं, यह सिर्फ आर्थिक चालाकी ही हो सकती है, लेकिन इसके बाद भी करोड़ों लोग नंगे पांव पैदल चल कर घाट पर ही जाते हैं. जाते रहेंगे. घाट पर नहीं जाना ही तो छठ में नहीं जाना होता है. अब रेल और बस के वश की बात नहीं कि सभी बिहारियों को लाद कर छठ में घर पहुंचा दें. इसलिए आप देखेंगे कि छठ ने अनेक नयी नदियों के घाट खोज लिये हैं. यह छठ का विस्तार है.‘सर..सर.छुट्टी दे दीजिए.सर. बस चार दिन में आपना गांव से वापस लौट आयेंगे. माई इस बार छठ कर रही है, मामी भी, छोटकी चाची भी. सब लोग. कलकत्ता से बड़का भईया भी आ रहे हैं. सर.हम भी जायेंगे.सर.टिकट भी कटा लिये हैं.. सर सब कुछ तो आपका ही दिया हुआ है.यह बुशर्ट ..यह खून में मिला नमक..मेरा रोम- रोम आपका कर्ज.दार है..बिहारी हैं न..पेट भरने अपने घर से मीलों दूर..आपकी फैक्टरी में..पर सर.छठ पूजा हमारे रूह में बसता है..अब हम आपको कैसे बताएं..छठ क्या है.हमारे लिए. हम नहीं बता सकते और न आप समझ सकते हैं.’हमारे मित्र रंजन ऋतुराज ने अपने फेसबुक पर इस काल्पनिक से लगने वाले छठ संवाद को लिखा है. क्या पता कितने लोगों ने ऐसे ही छुट्टी मांगी होगी, मिलने पर नाचे होंगे और नहीं मिलने पर उदास हो गये होंगे. सब आपस में पूछ रहे हैं, तुम नहीं गये, जाना चाहिए था. हम तो अगले साल पक्का जायेंगे. अभी से सोच लिये हैं. बहुत हुआ इ डिल्ली का नौकरी. हम सब यहां जो गंगा और गंडक से दूर हैं, छठ को ऐसे ही याद करते हैं. कोई घर जाने की खुशी बता रहा है, तो किसी को लग रहा है कि शिकागो में आकर भी क्या हासिल, जब छठ में गांव नहीं गये. तभी मैं कहता हूं कि इस व्रत को अभी नारीवादी नजरिये से देखा जाना बाकी है, हो सकता है इसे जातिगत सामूहिकता की नजर से भी नहीं देखा गया हो, जरूर देखना चाहिए, लेकिन इस त्योहार की खासियत ही यही है कि इसने बिहारी होने को जो बिहारीपन दिया है, वह बिहार का गौरवशाली इतिहास भी नहीं दे सका. शायद उस इतिहास और गौरव की पुनर्व्याख्या आने वाली राजनीति कर के दिखा भी दे, लेकिन फिलहाल जिस रूप में छठ हमें मिला है और हमारे सामने मौजूद है, वह सर माथे पर. हर साल भाभी का फोन आता है. छठ में सबको चलना है. जवाब न में होता है, लेकिन बोल कर नहीं देते. चुप होकर देते हैं. भीतर से रोकर देते हैं कि नहीं आ सके, लेकिन अघ्र्य देने के वक्त जल्दी उठना और दिल्ली के घाटों पर पहुंचने का सिलिसला आज तक नहीं रुका. छठ पूजा समिति में कुछ दे आना, उस सामूहिकता में छोटा सा गुप्तदान या अंशदान होता है, जिसे हमने परंपराओं से पाया है. तभी तो हम इसके नजदीक आते ही यू ट्यूब पर शारदा सिन्हा जी को ढूंढ.ने लगते हैं. छठ के गीत सुनते- सुनते उनके प्रति सम्मान प्यार में बदल जाता है. शारदा जी हम प्रवासियों की बड़की माई बन जाती हैं. हम उनका ही गीत सुन कर छठ मना लेते हैं.

~ रविश कुमार / प्रभात ख़बर ( दालान उनका शुक्रगुजार है – उन्होंने दालान के पन्नो को उसी भाव से – बिना सम्पादन – अपने लेख का हिस्सा बनाया – वो ऐसा पहले भी कर चुके हैं )
~ 18 November – 2012 

छठ पर गोवा की पूर्व राज्यपाल मृदुला सिन्हा जी का एक लेख …

अक्सर पिछले छह दशकों की वीथियों में घूम ही आती हूं। उन स्मृतियों में सब हैं, दादा-दादी, मां-पिताजी, भाई-बहन और ढेर सारे चाचा-चाचियां और सेवक-सेविकाएं। उन्हीं रिश्तों के बीच होली-दिवाली, दुर्गा पूजा, चौथचंदा, सरस्वती पूजा और व्रत-त्योहार। सबसे ऊपर रहती है छठ पर्व की स्मृति। कितना सुहाना, कितनी आस्था। दादी द्वारा कितने सारे निषेध। चार दिनों की पूजा होती थी। तैयारी तो दुर्गा पूजा के समाप्त होते ही प्रारंभ हो जाती थी। सबसे पहले बांस का डाला और डगरा तथा सूप खरीदे जाते थे। ज्यों-ज्यों दिवाली नजदीक आती, हम बच्चों का उत्साह बढ़ता जाता। दिवाली के बाद एक-एक दिन की गिनती। हम दादी को तंग करते, ‘कब होगी छठ पूजा?’ छह दिन, छह वर्ष की भांति बीतते। ढेर सारे फल। नारियल, केला, नारंगी के साथ मूली, ओल, ईख, और भी बहुत कुछ।

नए कपड़े। घर, आंगन, दरवाजा गोबर से लिपा हुआ। पूजा के लिए डाला पुरुष के सिर पर रखकर एक किलोमीटर जाना पड़ता। गंडक नदी में सामूहिक पूजा। पश्चिम दिशा में मुंह कर पानी में खड़ी महिलाएं, थोड़े से पुरुष भी, डूबते सूर्य की पूजा करते। आकाश में सूर्य का गोला लाल हो जाता। पकवान (ठेकुआ और कसार) व फलों से भरे सूप उठा-उठाकर सूर्य को व्रतीजन अर्घ्य देते। दो, चार, पांच, छह से लेकर किसी-किसी परिवार का 21-25 सूप भी होते। बांस का डाला, बांस का सूप। पकवान बनाने में शुद्धता और पवित्रता पर विशेष ध्यान होता। एक बार मेरे नन्हे पांव डाला में लग गए थे। दादी ने मेरे पांव में चपत लगाई। सूर्यदेव से माफी मांगी। 48 घंटे का उपवास (निर्जला) करती थी दादी। नहा-खा, खरना, संझिया अर्घ्य, भोरवा अर्घ्य। चार दिनों का व्रत। दूसरे दिन प्रात:काल सूर्य उगने से पूर्व नहा-धोकर घाट पर अंधेरे में ही सिर पर डाला के दीए की रोशनी के सहारे सारा गांव नदी किनारे इकट्ठा हो जाता। व्रतीजन पूरब मुंह पानी में खड़े होकर सूर्य के लाल चक्के की प्रतीक्षा करते। सूर्य के उगने पर पुन: एक-एक सूप उठा-उठाकर अर्घ्य देते। सूप पर थोड़ा-थोड़ा दूध भी डाला जाता। घाट पर ही दादी प्रसाद बांटना प्रारंभ करतीं।

घाट पर मांगने वाले भी बहुत होते थे। प्रसाद मांग कर खाना भी और प्रसाद बांटना भी धर्म का कार्य ही माना जाता था। दादी जब घर लौटतीं, मां-चाची उनके पांव धोतीं, उन्हें भोजन करातीं और उनके लेटने पर उनके पांव दबातीं। मान्यता थी कि व्रती औरतों की सेवा करने पर पुण्य मिलता है और हृदय से आशीर्वाद भी। दादी कभी-कभी गिनती करातीं कि उनके परिवार और संबंधों में कौन-कौन बच्चा उनके द्वारा छठ पूजा करते हुए सूर्यदेव से मांगा हुआ है। मैंने एक बार शिकायत की, ‘दादी आप तो केवल बेटा मांगती थीं।’
मंगल चाचा बोल पड़े- ‘तुम भी सूर्यदेव की मांगी हुई हो।’ दादी ने सिर हिलाया।

दादी के गीत की एक पंक्ति थी- अन्न, धन, लक्ष्मी हे दीनानाथ अहंईं के देल। (हे दीनानाथ! अन्न, धन, लक्ष्मी आप ही का दिया हुआ है।) बाबूजी इस पंक्ति के द्वारा मुझे सूर्य की महिमा समझाते थे।
समय बदला, नदी का पानी सूख गया, लोग अपने आंगन में और कुएं पर गड्ढा खोदकर पानी भरकर छठ करने लगे। फिर वह आनंद नहीं आता था, जो नदी में एक साथ सैकड़ों महिलाओं-पुरुषों को देखकर आता था। मुझे भी गांव छोड़ना पड़ा। मैं दिल्ली आ गई। दिल्ली में बिहार के कुछ लोग मिलने आते थे। मैं उनसे पूछती थी कि यहां छठ होता है या नहीं। उन्होंने बताया कि सब गांव (बिहार) चले जाते हैं। मैंने भी सोचा कि मैं भी गांव चली जाऊंगी। बिहार के कई लोग मिलने आते थे। उनमें से एक ने कहा, ‘आप कहें, तो हम यमुना किनारे व्रत शुरू करें!’ मैंने कहा, ‘अवश्य शुरू करें। मुझे भी छठ के गीत गाने आते हैं।’ 1978 से यमुना किनारे छठ मनाई गई। केवल 20-30 लोग थे। दो परिवारों ने व्रत किया। घाट पर जंगल ही जंगल था। महाराष्ट्र का गणपति, गुजरात का गरवा, पंजाब का वैशाखी, उत्तर-पूर्व का बिहू, केरल का ओणम, बंगाल का दुर्गा पूजा, सभी त्योहार देशभर में झमकने लगे थे। बिहार में छठ पूजा युगों-युगों से होती थी। बिहारियों का कदम दिल्ली की ओर बढ़ रहा है। यहां भी छठ को झमकाना चाहिए। धीरे-धीरे बात जमने लगी। कुछ संगठन इसके लिए काम करने लगे। उन्होंने घाट की सफाई, डगरा, सूप, दौरा सहित बहुत-सा सामान दिल्ली मंगवाना शुरू किया। धीरे-धीरे दिल्ली, मुंबई, जहां-जहां बिहारी गए, वहां-वहां उन्होंने छठ पर्व को झमका दिया। इससे अन्य राज्यों के लोगों को भी सूर्य पूजा की जानकरी हो गई।

दो महीने पहले मैं गोवा आई। पता चला कि यहां भी बिहार के लोग कम नहीं हैं। गोवा में कुछ लोग मिलने आए। वे छठ के लिए बिहार नहीं जाते हैं। पूछने पर पता चला कि कुछ लोग सागर बीच पर और कुछ लोग नदी में भी व्रत करते हैं। गोवा के राजभवन के किनारे खड़ी होकर प्रतिदिन मैं सूरज को समुद्र में डूबते देखती हूं। समुद्र और सूरज का गहरा संबंध है। मिथक कथा के अनुसार सूर्यवंशी सगर के सौ पुत्रों ने सागर की खुदाई की थी। त्रेता युग में सूर्यवंशी राम ने लंका जाने के लिए पुल बनाते समय जब सागर को ललकारा था- विनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब भय बिनु होई न प्रीति॥ सागर प्रकट हुआ। राम को उनका वंशज होने का स्मरण ही नहीं दिलाया, पुल बनाने का गुर भी बताया। सागर सामने पसरा है। उसे देखकर मन में यह विचार आता है कि कठौता भर ही जल क्यों न हो, जल में खड़े होकर ही सूर्य की पूजा करने का विधान स्मरण दिलाता है कि सूर्य और जल का अटूट रिश्ता है। इस बार गोवा में ही छठ मनाने का निश्चय किया। शाम और सुबह भी घाट पर जाऊंगी। दादी ने ढेर सारे गीत सिखाए थे। अब तक उन्हीं के लहजे में गुनगुनाती और गाती हूं। इस बार गोवा के घाट पर भी गाऊंगी। कितने अर्थवान हैं ये गीत। व्रती महिलाएं सूर्य से वार्तालाप करती हैं। सूर्य उनकी मांगपत्र को सुनकर प्रमाणपत्र देते हैं- एहो जे तिरिया सभे गुण आगर, सबकुछ मांगे समतुल हे। एक गीत में व्रती महिला के मांगने पर सूर्य भगवान उसे पुत्र देते हैं। परंतु आगाह करते हैं- देवे के त देलिअउगे बांझिन, गरव जनि बोल, गरव से बोलवे गे बांझिन, उहो लेबो छीन। गीतों में बेटी भी मांगी जाती है। छठ के समय स्वच्छता और पवित्रता पर विशेष ध्यान दिया जाता है। काश! हम उस स्वच्छता और पवित्रता को अपने जीवन का अभ्यास और संबल बना लेते।नदी, तालाब, कुआं और आंगन में छठ पूजा देखी थी। अब देखती हूं, समुद्र में छठ पूजा का कैसा आनंद आता है। आस्था कितनी गहराती है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

~ 28 अक्टूबर , 2014