अलाऊ और हाथी :))

“सलाम… बाबू”
~ इसी संबोधन के साथ अक्सर शाम को हमारे ग्रामीण अलाउद्दीन का फोन आता है 😊 हम बचपन में अलाउद्दीन को अलाऊ कहते थे । हमारे पंचायत के करीब 22 साल तक मुखिया / ग्राम प्रधान रहे अल्शेर मियां के 4/5 पुत्रों में से एक : अलाऊ 😊
: दरबार में करीब 200 साल तक हाथी रहा तो अल्शेर मियां का परिवार ही महावत रहा । पीढ़ी दर पीढ़ी । अंतिम हाथी 1989/90 में बिक गया । 67 हजार में । अलाऊ कहते हैं की मालूम नही क्या हड़बड़ी थी , 85 हजार का हाथी 67 हजार में मालिक लोग बेच दिया । अलाऊ को बहुत अफसोस क्योंकि अपने पिता अल्शेर मियां के मुखिया बनने के बाद , अलाऊ ही महावत रहे ।
~ अल्शेर मियां अपनी जवानी में राजा रजवाड़ा के यहां महावत थे , दरबार बुला लिया तो यहीं रह गए । छोटा कद और हिम्मती । मुखिया बनने के बाद अक्सर दरवाजे पर आते और उनका ड्यूटी होता था : बंदूक और रायफल साफ करना , सुखाना और भादो के महीना में बंदूक लेकर शिकार और हम बच्चे पीछे पीछे 😎 हमारी पीढ़ी तो कम या नहीं लेकिन पिता जी और चाचा की पीढ़ी अल्शेर मियां के पीछे पीछे बहुत पगलाया है 😀
: हम बच्चो के पसंदीदा अलाऊ होते थे । छोटा कद और गठीला शरीर । ग्रामीण मेला में एक साइज छोटा नया बनियान पहन वो अपने सीना को चौड़ा करते और बनियान चर्र चर्र करके फट जाता । सबसे बेहतरीन याद दशहरा के रोज का होता । हाथी सज के तैयार और अलाऊ नया कुर्ता पायजामा पहन आगे हाथी के सुंड के सहारे हाथी पर बैठते और हम सभी अजीन कजिन हौदा पर । गांव होते मठिया और फिर प्राण टोला होते हुए रेवतीथ होते हुए वापस घर । रास्ता में लोग भाई पट्टीदार तो नही लेकिन कई जगहों पर लोग सलाम करते । यह झूठ नही है । सच है । खासकर 150 एकड़ का प्राण टोला जो आजादी उपरांत हमारे ही जमीन पर बसाया गया । अब कोई पलट जाए तो क्या कहा जाए । 2019 में बाबा की बरखी पर एक एक आदमी टोला से आया था 🙏 नई पीढ़ी जो व्यवहार करे , हमे कोई शिकायत नहीं 🙏
~ तो 1990 में हाथी बिका और अलाऊ सर्कस पकड़ लिए । कहते हैं पूर्वोत्तर भारत छोड़ वो समस्त भारत घूमे । केरल ब्राह्मण का सर्कस था । शंकर नायर मालिक । सर्कस भी बंद हो गया तो अलाऊ अपने नए मालिक के यहां कई वर्ष तक मैनेजर रहे । केरल में । सौभाग्य की अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि और दुर्भाग्य की बहुत कम पढ़े लिखे ।
: केरल की कहानी वो कहते हैं 😊 कैसे उनके मालिक का सर्कस बंद हुआ तो उनके मालिक काजू और काली मिर्च की खेती करने लगे । कैसे मालकिन का बर्ताव और अलाऊ के बेटी के बियाह में 5 किलो काली मिर्च उनकी मालकिन अलग से बांध कर दी । 800 ग्राम ही खर्च हुआ 😀
~ नई पीढ़ी को हम क्या कहें ? लेकिन यह मुस्लिम टोला दो शताब्दी हमारे परिवार के साथ रहा । परिवार का महाजनी और जमींदारी का काम था । समस्त बिहार के मंझौले जमींदारों को पैसा जाता था । सवा छह फीट के कई मुस्लिम होते थे जो ढेकूआ में ही पैसा बांध वर्तमान गोपालगंज से लखनचन्द मोकामा तक पैदल ही चले जाते 😊 गफ्फार गांधी जैसे , लाठी हाथ में ।
~ सन 1957 में श्री बाबू अचानक से जमींदारी व्यवस्था खत्म किए । जमींदारी गया तो गया ही साथ में महाजनी में बहुत पैसा भी डूबा । गोमस्ता अब नए नायक थे । हम आर्थिक रूप से कमज़ोर हुए । बहुत कमज़ोर । सन 1980 के आसपास में जब पिता जी की पीढ़ी वापस नौकरी में आई तो मेरे बड़े परबाबा सभी लोगों को इकट्ठा कर सबकी तन्खाह पूछे , सभी का तन्खाह जोड़ वो मन ही मन बुदबुदाए की अब ठीक है , जमींदारी के बराबर नई पीढ़ी का तन्खाह हो गया । महाराज , स्थिति बहुत खराब हो गई थी , बड़े परबाबा तो धोती फाड़ कर पहनने लगे थे 😐 चीनी वाली चाय भी बंद ।
~ लेकिन पूर्वजों का आशीर्वाद की दरवाजे की रौनक हाल फिलहाल तक बनी रही । लेकिन कितना रौनक बनाइएगा ? जमाना बहुत बदल गया । बहुत । यह कोई सामाजिक क्रांति की बात नहीं बल्कि जमींदारी के नए स्वरूप की है । अब तो राजनीतिक शक्ति भी पिछड़ेपन की निशानी है । जिसके घर धंधा पानी है , उसी के दरवाजे हाथी और महावत है । शोभा तभी है जब थोड़ी बड़पन्नता भी है 😊
: अलाऊ फिर शाम को फोन करेंगे :
सलाम … बाबू 😊
~ रंजन , दालान / जुलाई , 2023

कुछ यूं ही … कोरोना के बहाने

एक अच्छे कॉलेज में पढ़ाने का फल यह हुआ कि में बहुत ही कम उम्र में अपने विषय का हेड एग्जामिनर बन गया । पूरे यूपी के सभी इंजीनियरिंग कॉलेज के उक्त विषय कि कॉपियां मुझे मिली और कई साल यह काम करने का मौका मिला । जहां कहीं भी सेंटर होता था – वहां का एक बड़ा कमरा और उस कमरे में करीब 40-50 परीक्षक । सामने एक ऊंचे डायस पर मै बैठा । युनिवर्सिटी नियमो के अनुसार मुझे बतौर हेड एग्जामिनर करीब 10 % कॉपियां फिर से जांचनी होती थी । हरे रंग की स्याही वाली कलम मिलती थी :))
बाकी के मेरे कलीग परीक्षकों को मेरा स्पष्ट निर्देश होता था – कोई भी फेल नहीं करेगा – किसी भी सूरत में । बाकी का मै संभाल लूंगा । चौहान साहब वाइस चांसलर होते थे और उन्हें यह लगता था कि हमारे कॉलेज जैसा कोई नहीं और यहां के शिक्षक जैसा कोई नहीं । वो इतने सख्त इंसान थे कि एक बार हमारे कलीग अमित तिवारी ने उनकी बेटी को ही आंतरिक परीक्षा में सबसे कम नम्बर दिया और बतौर वाइस चांसलर चौहान साहब कुछ नहीं बोले । कुछ नहीं ।
खैर , मेरे रहते कोई विद्यार्थी फेल कर जाए – यह असम्भव था । कारण खुद की साइकोलॉजी थी – जब मै पढ़ता था तो मेरे शिक्षकों का पहला उद्देश्य मुझे ही फेल करना होता था , यह पीड़ा मेरे मन में थी । पोस्ट ग्रेजुएशन में संभवतः मेरे अन्य सेमेस्टर में सबसे बढ़िया नम्बर थे तो थीसिस में सबसे कम नम्बर देकर , मेरे पूरे सीजीपीए को कम किया गया । मै इस घाव में था सो मैंने अपने जीवन में निर्णय लिया की कोई नहीं फेल होगा ।
कारण एक और है – आपके लिए 40,000 विद्यार्थी के कॉपी है । 2 या 4 प्रतिशत को फेल कर देना आपके लिए एक आंकड़ा है लेकिन उस विद्यार्थी के लिए वह विषय सिर्फ और सिर्फ एक ही बार आएगा । कम नम्बर देना उसके लिए आजीवन एक घाव बन सकता है – कारण और भी थे , तब जब इंडस्ट्री मान कर चलती है कि इंजीनियरिंग कॉलेज की पढ़ाई बकवास है और वो विद्यार्थियों के आइक्यू के आधार पर भरती करती है और ना की विषय की जानकारी पर ।
काफी शुरुआत में ही , एक और घटना घटी । तब हम नए नए थे और सामान्य परीक्षक थे । वर्तमान एसएसपी फ़िरोज़ाबाद सचिंद्र के बैच के एक विषय को मेरे कलीग कॉपी जांच रहे थे और कॉपियां कोडिंग की थी , वो मेरे सामने बैठे थे और मूड कर उन्होंने कहा – रंजन सर , लगता है यह अपने विद्यार्थियों की कॉपी है और यह कॉपी उस क्लास के टॉपर की प्रतीत हो रही । हम खुश हो गए और अपने कलीग को बोले – हुमच के पूरे बंडल में नंबर झाड़ दो और टॉपर को 98 दे दो । ऐसा कह कर मै अपने बंडल में लग गया । उन्होंने उस टॉपर को मात्र 72 नम्बर दिए । विद्यार्थी डिग्री लिए और अपनी अपनी नौकरी में चले गए ।
वो टॉपर लड़की अपनी पहले ही प्रोजेक्ट में लंदन गई । मै उसके ग्रुप का गाइड भी था सो एक स्नेह था , नौकरी और लंदन से उसने एक ईमेल भेजा – सर , सिर्फ दो नंबर से मेरा युनिवर्सिटी रैंक छूट गया , अगर दो नंबर ज्यादा होते तो मै अपने ब्रांच में युनिवर्सिटी टॉप 10 होती और बीस तीस नम्बर ज्यादा होते तो शायद पूरे युनिवर्सिटी में प्रथम । उस ईमेल को पढ़ , मै एक गहरे अवसाद में था । काश , मै अपने कलीग के माथा पर सवार हो कर , उस पूरे बंडल में नम्बर की झड़ी लगवा देता । उसने अपने ईमेल में एक और बात लिखी थी – नौकरी और लंदन तो आते जाते रहेगा लेकिन युनिवर्सिटी रैंक होल्डर तो आजीवन साथ रहता । उसे आज तक नहीं पता की उसके पूरे क्लास की कॉपी हम सभी के आंखों से गुजरी थी । काश ….। शायद इस घटना ने मुझे एक बेहतरीन हेड एग्जामिनर बनाया । मानवता के साथ ।
एक विद्यार्थी सिविल सर्वेंट है । अपनी गाथा कहने लगे – यूपीएससी में दो बार असफल इंटरव्यू के बाद , तीसरे प्रयास में उनके बोर्ड में एक यूपी वाले मिल गए और वो इनके पक्ष में , पूरे बोर्ड को हाईजैक कर लिए और मेरा एक विद्यार्थी आज सीनियर प्रशासक है ।
कहने का मतलब – 130 करोड़ की जनता में 2 या 4 हज़ार मौत किसी प्रमुख के लिए आंकड़ा हो सकता है लेकिन उसके परिवार के लिए और उसके लिए सिर्फ और सिर्फ एक मौत जो फिर कभी जीवन बन के वापस नहीं लौटेगा ।
बचा लीजिए ….जीवन को । भगा दीजिए ….मौत को – जो दरवाजे खड़ी है , खटखटा रही है ।
~ रंजन / दालान / 28 मार्च , 2020

गुलज़ार से मुलाकात : छह साल पहले …2014 में

पटना लिट्रेचर फेस्टिवल -2014

कल्पनाओं के शिखर पर एक अबोध तमन्ना बैठी होती है – उसकी अबोधता को देख ईश्वर उसे अपने गोद में बैठाते हैं – फिर वो तमन्ना एक दिन हकीकत बन बैठती है…:))


आज का दिन बेहतरीन रहा – कल देर रात तक जागने के बाद – सुबह नींद ही खुली ‘रविश’ की आवाज़ से – नहाते धोते …थोड़ी देर हो ही गयी ..झटपट भागा …रविश स्टेज पर बैठे थे ..वहीं से हाथ हिलाया ..मै भी सबसे पिछली कतार में बैठ गया …तब तक एक आवाज़ आयी “आप दालान वाले हैं ..न ” – एक तस्वीर खिंचवानी है आपके साथ …ये थे आभाश भूषण – दालान को चाहने वाले …फिर वो दोनों पति पत्नी मेरे साथ फोटो खिंचवाए – बेहद सज्जन और उन्दोनो ने बताया – दालान पर दी गयी सुचना कारण ही वो दोनों यहाँ आये ..:))
रविश का सत्र ख़त्म होने के साथ – उनका दूसरा सत्र शुरू होने वाला था – इसमे कोई दो राय नहीं – रविश काफी लोकप्रिय हैं – कई नौजवान उनके साथ फोटो खिंचवाने को बेताब थे – मेरी वेश भूषा देख – उनके प्रशंसक भी “दालान” वाले समझ गए ..:)) बढ़िया लगा …
रविश के दुसरे सत्र के ठीक पहले आये – “गुलज़ार” ..झटपट भागा – दोनों हाथ से उनके पैर छू कर आशीर्वाद लिया – आभास भूषण समझ गए – उन्होंने बाद में गुलज़ार के साथ मेरी कुछ तस्वीरें लीं ..गुलज़ार के साथ थे – ओम थानवी जी – मै क्या बोलता – भाव विभोर था – बस एक लाईन सुना पाया – “सारी रात मेरे शब्द जलते रहे – वो पत्थर से मोम बनते रहे..:)) गुलज़ार के ठीक पीछे बैठ – रविश का दूसरा सत्र – जिसके वो बादशाह जाने जाते हैं – नोस्टैल्जिया ..मेरा भी पसंदीदा …उनके साथ थे – अंग्रेज़ी और डेनिश के लेखक – “तबिश खैर” – ताबिश सभी भाषा प्रयोग कर रहे थे – रविश अपनी हिंदी और भोजपुरी …रविश बोलते बोलते – “छठ पूजा की यादों” पर बोलना शुरू कर दिए – डर था – कहीं फिर से वो मेरा नाम न बोल बैठें ..:)) रविश संभले – शुक्रगुज़ार रहता हूँ – हर ऐसे समाचार पत्र के लेख में वो मेरा नाम ठूंस ही देते हैं …
रविश को लोग घेरे हुए थे – मैंने बोला – रविश ..मैंने पटना म्यूजियम नहीं देखा है …और आज आप मेरे गाईड बन के ..मुझे घुमाएं ..:) रविश तैयार हुए ..हम दोनों अकेले निकल पड़े …घूम कर लौटे तो …पवन कार्टूनिस्ट और उनकी पत्नी रश्मी दोनों रविश को अपने कार्टून का एक बेहद बढ़िया गिफ्ट …इसी बीच ..टेलेग्राफ़ के रोविंग एडिटर ‘संकर्षण ठाकुर’ मिल गए – बोले ..रंजन ..मेरी भी किताब का आज लोकार्पण है – आप आईये – संकर्षण बेहद आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक हैं – अपने साथ वालों से परिचय कराने लगे – रंजन को पढने से ज्यादा सुनने में मजा आता है …:))
फिर हम और रविश संकर्षण ठाकुर के किताब जो नितीश कुमार के ऊपर छपी है …के लोकार्पण में चले गए – ढेर सारी गप्प – व्यक्तिगत बातें …वहां से निकले तो …रविश के साथ पटना का सैर …फिलोसोफी …फिलोसोफी और फिलोसोफी …ढेर सारी गाईडलाईन …दोनों तरफ से …:))
रविश …तुम बेहद इज्ज़त करते हो …आज भी याद है ..माँ के देहांत के बाद इंदिरापुरम पहुँचने के बाद …पिछले साल …तुम सबसे पहले मिलने आये थे …कोई शक नहीं हिंदी न्यूज के बेताज बादशाह हो ..तुम पर ईश्वर का आशीर्वाद बना रहे …अहंकार तुमसे कोसों दूर रहे …और मेरा नाम तुम्हारे जुबान पर नहीं आये …:))

~ रंजन / 15.02.14

ब्लैकबेरी

सहरा की भिंगी रेत पर , मैंने लिखा आवारगी
~ मोहसिन की बेहतरीन पोएट्री ।
तस्वीर इसी मौसम और शायद इसी महीने की है , वर्ष था 2012 . सात साल पहले की है । शनिवार का दिन था और कॉलेज से हाफ डे के बाद मुझे अपने कॉलेज के दिनों के दोस्तों से मिलने जाना था । बेटी ने ब्लैकबेरी से मेरी तस्वीर उतारी । कई फोन आए और गए लेकिन जो रईसी ब्लैकबेरी में था – वो आईफोन में भी नजर नहीं आया । बेहतरीन लेदर के होल्डर में ब्लैकबेरी को रखिए और आराम से उस होल्डर से ब्लैकबेरी को निकालिए ।
शायद इस वक्त मेरे जेहन में कहीं से भी कुछ नहीं था कि अगले कुछ महीनों में ज़िन्दगी बदलने वाली है । राहु अपनी आयु के चरम सीमा पर था ।
खैर , जिंदगी बड़ी गुलज़ार थी । सुबह ठीक 7.35 में गाढ़ी और बासी दूध के चाय के साथ नींद खुलती थी । करीब 8 अख़बार लेता था । लेकिन सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया से ही होती थी । अख़बार और चाय के खत्म होते ही , तैयार होने की हड़बड़ी । ठीक 8.10 में तैयार ।घी से तरबतर पराठा और आलू गोभी की सब्जी । सालों भर गोभी चाहिए – जहां से आए , वो मेरा हेडेक नहीं रहता था । आराम से 8.45 में कॉलेज । 2009 में ही एसोसियेट प्रोफेसर बन चुका था सो क्लास भी कम । मुश्किल से एक क्लास प्रतिदिन । दोपहर 1 बजे वापस घर – दाल , भात , घी , अचार , नेनुआ का सब्जी , पापड़ , तीलौड़ी । डाइनिंग टेबल पर अकेले । फिर एक राउंड बाकी का अख़बार । फिर 2 बजे वापस कॉलेज । और 4.30 बजे वापसी । वापस लौट कर खुद चाय बनाते थे । बेहतरीन दार्जिलिंग चाय । बिन बैग पर पसर कर टीवी और अख़बार । मूड हुआ तो एक आध घंटे बाद , किसी दोस्त यार की महफ़िल में – टेनिस , बैडमिंटन हुआ । और देर शाम वापस । फिर लैपटॉप पर दे फेसबुक …दे फेसबुक । हा हा हा । रात 1.30 तक जागना । लेकिन तकिया के बगल में किताब का जरूर होना ।
लेक्चर भी मस्त होता था । पांच मिनट लेट घुसना , पांच मिनट जल्दी निकल जाना । दस मिनट अटेंडेंस । हां जी फलाना , तुम कल क्यों नहीं आए टाइप भाषण । एक घंटा के लेक्चर में – सिर्फ 35 मिनट पढ़ाते थे । वो 35 मिनट किसी परम आनंद से कम नहीं होता था । ऐसा लगता था कि जैसे झामझामा कर बारिश हो रही हो ।खुद को प्रफुल्लित महसूस करते थे ।
इज्जत बहुत थी । पेशा का असर था । एक तो प्रोफेसर ऊपर से दालान का लेखक । बीच में दाएं बाएं भी कमाए लेकिन उसको भी बड़ी इज्जत के साथ ।
लेकिन राहु कब तक इंतजार करता । 25 फरवरी , 2013 को माथा में घुस गया – चलो पटना , वापस ।
यहां कोई ज़िन्दगी नहीं है । हर एक इंसान असुरक्षित है । इस असुरक्षा की भावना में वो खुल कर किसी से हाथ भी नहीं मिला पाता है ।

~ रंजन / 02.09.19

गुलाबी सूरज


” गुलाबी सूरज ”
सूरज भी कभी कभी ‘गुलाबी’ हो जाता है …धरती को कुहासे में ढका देख …शर्मा जाता है … :))
~ RR
01.02.2013
Blackberry 5 MP Camera .

ब्लैकबेरी बेहतरीन स्टाइलिश फोन होता था ।

आज ब्लैकबेरी का कनेक्शन हटवा दिया ! अच्छा नहीं लगा ! मन बहुत उदास हो गया ! अगस्त 2012 के प्रथम सप्ताह में लिया था ! टचस्क्रीन वाला मोडल है ! एक झटके में ले लिया था ! हाथ में ब्लैकबेरी , बढ़िया लगता था ! पर ऐसा लग रहा है जैसे आपकी सबसे प्यारी चीज़ बेजान हो गयी हो ! अब वो सिंपल फ़ोन की तरह काम करेगा ! अब उसपर कोई इमेल नहीं आएगा ! अब उसपर कोई बीबीएम टेक्स्ट नहीं आयेगा ! धीरे धीरे किसी रोज़ किसी दराज़ घुस जायेगा !
लेदर होल्डर में रखता था ! कितने आराम से उसको लेदर होल्डर से निकलता था ! जब तक कॉलेज में पढ़ाया , किताबों और डस्टर के बीच यह फोन भी पोडियम पर आ बैठ जाता – हक़ से ! बहुत प्यार से और संभाल के रखता था ! आज भी बिलकुल नया जैसा है ! हर दो तीन दिन पर उसको पोंछना ! न जाने कितनी अनगिनत तस्वीरें खींचा ! हर वक़्त शर्त के ऊपर वाले पॉकेट पर , पार्कर के सबसे महंगे वाले कलम के साथ यह लड़ता रहता था ! सोते वक़्त तकिया के बगल में रखना ! मेमोरी कम थी , इसलिए कभी कोई फ़ालतू का एप्प नहीं रखा , तस्वीरों से मेमोरी भर गया तब तुरंत सारी तस्वीरें डिलीट कर देता था , ऐसा लगता था जैसे मेरे ब्लैकबेरी का दम घूंट रहा है , ऐसा कैसे हो सकता है की मेरी सबसे प्यारी चीज़ का दम घूंटे ! *Action starts here वाला ऐड ! जैसे कुछ भी नया इन्फोर्मेशन आया – वो पिली बत्ती का ‘भूक भूक ‘ कर के हमको बता देना ! बहुत कुछ मिस करूँगा ! फुर्सत में कभी कभी फेसबुक को भी देख लेना ! ईमेल के जबाब के अंत में सिग्नेचर के साथ – sent from Blackberry !
दो साल हो गए दिल्ली / एनसीआर छूटे पर इस ब्लैकबेरी का नंबर नहीं बदला ! पटना में लोग टोकते थे – क्यों नहीं कोई लोकल नंबर ले लेते हैं , मुस्कुरा देता था !
यादों के फव्वारे के बीच यह फोन अभी लैपटॉप के बगल में चुप चाप बैठा हुआ है , जैसे हर वक़्त बैठा होता था – टुकुर टुकुर देख रहा है ! शायद दराज़ में घुसाने वाली बात उसके दिल को ठेस पहुंचा दी होगी , ऐसा नहीं होगा – जबतक मेरे अन्दर दम है यह साथ रहेगा – अपने उसी नंबर वाले सिम के साथ ! इतना हक तो उसका भी बनता है – वादा निभाना भी तो मेरा फ़र्ज़ बनता है …! ~ RR / 27.05.2015

वो एक पल ….

हम और तुम

कभी कबड्डी खेले हो ? सामने से एक बंदा बड़ी तेजी से , अपनी दम साधे आता है , साँसों को रोक कर , तुम्हे छूता है और भाग खड़ा होता है । पकड़ भी लिया गया तो दम नही छोड़ता , साँसों को रोके रखता है । तुम उसे पकड़ भी लिए तो वो अपनी सांसे नही तोड़ता – खिलाड़ी जो है ।
कुछ इश्क़ ऐसे भी होते है , अपनी साँसों को रोक , सामने वाले को छू कर वापस अपने घेरे में आ जाना । दम टूटने पर अपनी हार और दम ना टूटे तो सामने वाले कि हार । और इसी ज़िद में एक पल वो तुम्हे छोड़ देता है , तुम जीत कर मुस्कुराते हो और वो हार कर मुस्कुराता है ।
और इसी मुस्कान में जो इश्क़ जवां होती है , बड़ी दूर तलक जाती है …बड़ी दूर … :)) कहां तक जाती है …दोनों को नहीं पता :))
तुम्हे भी पता था , उस पल के आगे तुम्हारी हार थी और उसे भी पता था , उस पल के आगे उसकी जीत थी ।
अब बताओ …जीता कौन …हारा कौन :))
खैर , एक सच तो है …न , भागते वक़्त हौले से तुमने उसे छू लिया , हां …उसी वक़्त जब तुम्हारी सांस भी टूट गई थी …वो एक पल तुम्हे भी याद होगा …और वो एक पल उसे भी याद है …

~ रंजन / 31.01.20

बिहार की मदद और अप्रवासी बिहारी

Kind Attn : #NonResidentBihari : –
विगत कुछ सालों में बिहार को लेकर सबसे ज्यादा बदलाव अप्रवासी बिहारियों के सोच में आया है । पिछले 17 सालों मैं अप्रवासी बिहारी के कई सोशल मीडिया ग्रुप से जुड़ा रहा हूँ – पिछले पांच सालों में उनके बिहार के प्रति रुख में जबरदस्त गिरावट है । यह सोच बहुत ही नकरात्मक है ।
कोई जमीन या मिट्टी अपनी नही होती – जहां माँ बाप होते हैं – वही जमीन या मिट्टी अपनी होती है । अगर मैं पटना शहर की बात करूँ और खासकर मिडिल क्लास की तो – मेरी उम्र के लोग अपने माता पिता या उनमें से एक खोने लगे हैं या फिर माता पिता को अपने पास बुला लिए है और बच्चे भी आपकी कर्मभूमि के सभ्यता या संस्कार में पल बढ़ – बिहार का परिचय – मम्मी डैडी का गाँव बन चुका है । बहुत हुआ तो बहुत करीबी वैसे रिश्तेदार जो आपकी तरह बाहर नही जा सके – उनके यहां किसी शादी विवाह में पहुंच खुद को #NRB के स्टेटस और अपने कर्मभूमि के बखान से ज्यादा इस मिट्टी से कोई लगाव नही है – बहुत हुआ तो कुछ तस्वीरें अपने उस पुअर कजिन के साथ या फिर अपनी माँ के गुजर जाने के बाद पटना की संपत्ति को बेचने के लिए किसी दोस्त महिम को इशारा में बताना । आपके इस बदलाव को वक़्त की मजबूरी कहा जा सकता है – लेकिन मेरे जैसों के लिए यह बदलाव देखना एक दर्द है ।
मेरे मित्र और आईजी शालिन कहते हैं – बिहारी के बीच क्षेत्रीयता घमंड या भावना कम और प्रबल जातीयता भावना देख अजीब लगता है । उनका कहना सही है ।
यहूदी अमरीका जा बसे लेकिन अमरीका से ही अपने जन्मभूमि इस्रायल की रक्षा के लिए जिस हद तक जाना पड़े , उस हद तक जाकर , अमरीका सरकार पर दबाब बनाये रखते हैं ।
बिहार तभी सुधरेगा जब बाहर जा कर बसे हुए बिहारी हर माध्यम से यहां दबाब बनाएंगे क्योंकि मेरा यह पुरजोर मानना है कि अधिकतर वैसे अप्रवासी बिहारीं जात पात से उठ चुके हैं । ऐसा भी नही है कि अप्रवासी बिहारीं आगे नही आये हैं , वो आये लेकिन यहां की ‘सामाजिक न्याय और न्याय के साथ विकास’ वाली सरकारों पर उनका विस्वास नही जम पाया – वापस लौट गए ।
पंजाब , गुजरात या महाराष्ट्र में ऐसा नही है – वहां के अप्रवासी ना सिर्फ लोकल घटनाओं पर नज़र रखते हैं बल्कि अपने मन लायक परिस्थिति बनाने पर सरकारों को मजबूर भी करते हैं । लेकिन बिहार में ऐसा नही है । खबर पर नज़र है लेकिन अपने तरफ से कोई दबाब नही है ।
आवाज़ में दम होता है । आवाज़ उठाएं । एक घटना याद है – मेरे एक मित्र आईआईटी से पास कर सीधे इंटेल अमरीका जॉइन किये , बहुत ऊंचे पद तक पहुंचे और हज़ार करोड़ की संपत्ति खड़ा किये । संपति , मेहनत और पद के बदौलत वो अमरीका के इलीट सोसाइटी तक पहुंचे और फिर उस सोसाइटी में उनके धन और ओहदा की चर्चा नही हुई बल्कि उनसे उनके ‘जड़’ को लेकर चर्चा हुई । ” आप हैं कौन ? – क्या आपकी जड़ें सही सलामत हैं या आप उखड़ चुके हैं ? इस सवाल ने मेरे मित्र को वापस दिल्ली और फिर बिहार में अपनी कमाई का एक अंश लगाने पर मजबूर किया ।
भूख सिर्फ पेट की नही होती है – भूख दिल , आत्मा और ललाट की भी होती है । लेकिन हम इतने गरीब राज्य की पैदाइश है कि जीवन पेट की भूख में ही सिमट कर रह गया । पेट के आगे भी एक दुनिया है – यह ना उस बिहारीं मजदूर को पता है और ना ही महलों में रहने वाले मानसिक गरीब बिहारीं को ।
कहने का मतलब की बिहार से भावमात्मक लगाव को बरकरार रखिये । यह आपका घर था , है और रहेगा । मौरिशस गए गरीब मजदूर भी आज अरबपति हो गए लेकिन भावनात्मक संपर्क बरकरार रखे ।
सर्वप्रथम अपनी सभ्यता और संस्कृति बरकरार रखिये , फिर किसी बहाने सपरिवार बिहार आते जाते रहिये । अलग अलग फोरम पर अपनी आवाज़ उठाइये ।
और हाँ …अपने माता पिता के मृत्यु का इंतज़ार के दौरान बिहार वाला घर कितने में बेचना है – यह मत सोचिए – यह सोच बहुत दर्दनाक है । मैं इसलिए कह रहा हूँ कि बिहार के शहरों या मिडिल क्लास के गांव में स्थिति बहुत बुरी हो चुकी है । बड़े बड़े घर भुतहा बंगला बन चुके है – इस इंतज़ार में की कब नया मालिक आएगा …
क्रमशः
~ रंजन ऋतुराज / दालान / 30.01.2019

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धन्यवाद ।