छाता 😊
~ अगर बचपन को याद करूं तो छाता जरूरत के साथ साथ सभ्यता का भी प्रतीक होता है । पहले बेंत वाले छाते आते थे 😊 गांव के बाजार पर एक छाता मरम्मत वाले बैठते थे । कुछ ग्रामीण छाता मरम्मत वाले के सड़क किनारे चुकुमुकू बैठ अपनी छाता मरम्मत करा रहे 😊
: गांव के बड़े गृहस्थ / जमींदार से लेकर खेतों में काम करने वाले मजदूर तक छाता अपनी हैसियत के हिसाब से रखते । बचपन में कलकत्ता से छाता आता था । शायद के सी पाल का । फिर नेपाल से चाइनीज छाता आने लगा । बटन वाला । इसका कपड़ा थोड़ा सिल्की । बाबा नेपाल से खरीद कर लाए तो बगल के गांव शेर के एक राय जी छाता लेकर जिद पर अड़ गए की आपके हाथी पर सवार छाता को लगाए अपने गांव जायेंगे 😀 बड़े धनिक लोग , संबंधी भी लेकिन गैर जमींदार तो मन में एक कसक , हाथी पर सवार होकर छाता लगाना है 😀 चलो भाई , छाता लेते जाओ । धन और मिजाज दोनो अलग अलग चीज है ।
~ बाबा को टॉर्च , घड़ी , कलम और छाता का बहुत शौक । बढ़िया छाता । लाल बत्ती एंबेसडर से आहिस्ते से उतरना । सफेद खादी कुर्ता , धोती , पॉकेट में कलम , एचएमटी का काजल घड़ी और एक अरदली छाता लिए पीछे से । क्या दृश्य रहता था । अब वो इस खानदान में कोई नहीं भोगेगा 😐 सब कहानी खत्म है । जय जय सियाराम 😐
~ हमारे दौर में ही लेडीज छाता आया । बड़का बैग में समा जाने वाला । मास्टरनी लोग रखता था । मोट मोट काजल वाली मैडम लोग । छाता लगाए और इस बरसात ठेहुन तक साड़ी उठाए 🙄
: मालूम नही कब हम पुरुष भी ये लेडीज छाता प्रयोग करने लगे 😐 छोटका लेडीज छाता अब लेडीज नही हो कर यूनिसेक्स हो गया । लइका , बूतरू, बूढ़ा , जवान सब लेडीज छाता प्रयोग करने लगा । जो छाता घर की मलकीनी प्रयोग कर रही , वही छाता किचेन हेल्पर भी 😐 छाता का इज्जत लोग खा गया 😐
~ छाता एक हथियार भी होता है । बड़का वाला । सरकारी स्कूल के मास्टर लोग बड़ी मार मारता था : दे छाता… दे छाता 😀 हम छाता से मार नही खाए हैं ।
~ हमको छाता का बहुत शौक । अभी एक बड़ा वाला खरीदे हैं । कार में रखा रहता है । व्हाइट हाउस में भी अमरीका प्रेसिडेंट के पीछे छाता लिए खड़ा । यहां वह छाता हैसियत और ताकत का प्रतीक बन जाता है 😊 मुझे अच्छा लगता है ।
: कुछ आप लोग भी लिखिए 😊 यहां नही लिख सकते तो दालान पर कमेंट कीजिए । दिन भर बॉस के आगे कांख में फाइल चांप खड़ा रहना अच्छा नही लगता 😐 थोड़ा हिसाब से : ऑफिस में छाता चोरी भी बहुत होता है 😀 बाहर से आए और कहीं लटका दिए , उधर से रंजन जी आए और आपका छाता लेकर चल दिए 😀 खोजते रहिए 🙄
~ रंजन जी ’छाता वाले’ , दालान
आज दोपहर फोन से एक मैसेज लिख रहा था तो बेटी ने पूछा – कहां व्यस्त हैं ? तो मैंने कहा – पंकज को मैसेज कर रहा हूं । बेटी वापस चली गई और लौट कर पूछी – कौन पंकज ? मैंने कहा – पंकज त्रिपाठी गोपालगंज वाले । बेटी फिर वापस चली गई । फिर अचानक से लौटी और चहकने लगी – बॉलीवुड के सबसे डाउन टू अर्थ और अत्यंत बेहतरीन कलाकार , फिर उसने ढेर सारे सिनेमा के नाम बताए जिसमे मिर्ज़ापुर प्रमुख था । फिर उसे विश्वास भी नहीं हुआ । हा हा हा ।
तीन साल पहले , मैंने अंतिम सिनेमा देखी और वो थी – न्यूटन । सपरिवार । क्या नेचुरल एक्टिंग थी । गजब ।
और आज जब उनके व्यस्त क्षणों में बहुत थोड़ी बात हुई तो मेरा पहला ही प्रश्न था – कैसे इतना डाउन टू अर्थ व्यक्तित्व और असीम मौलिकता ? वो थोड़े गंभीर हुए और बोले – बस जमीन से तार जुड़े हुए हैं । कई प्रश्नों के उत्तर का सार यही था – बेतार नहीं हुआ हूं ।
गैंग्स ऑफ वासेपुर में इन्हे पहली दफा देखा था तब नहीं पता चला कि इनकी भी मिट्टी वही है जो मेरी मिट्टी है । फिर सोशल मीडिया से पता चला कि ये भी गोपालगंज के है । फिर पिछले साल मेरे मित्र और मेरे जबरदस्त पाठक – सुमंत तिवारी जी यह ज़िद लेकर बैठ गए की मेरी बात इनसे होनी चाहिए । मै भूल गया । फिर लॉकडाउन में पंकज के लाइव को देखा – एक वीडियो तो इस फेसबुक पर एक करोड़ से भी ज्यादा व्यू हैं । फिर लगा बात होनी चाहिए ।
फिर पवन भी बीच में आ गए । अपने कार्टूनिस्ट :))
आप पंकज के ट्विटर का वाल देखिएगा । ऐसे जैसे यह इंसान चकाचौंध की दुनिया में तो पहुंच गया लेकिन आत्मा अभी भी अपनी मिट्टी और उस मिट्टी से उपजे संस्कार में हैं । शायद , तभी मैंने थोड़ा टटोलना पसंद किया । जो तस्वीर में नजर आयी वही बातों में ।
मौलिकता पर भी बात हुई । हाल के दसक में मौलिकता उभर कर आई है । और इस मौलिकता में इतना दम है कि आज पंकज समुंदर को निहारते हुए अपने फ्लैट में है और एक अदना सा दालान भी अनजान को आकर्षित करता है ।
रचनात्मक दुनिया का जड़ ही मौलिकता है । कई इंटरव्यू में पंकज अपनी संघर्ष की कहानी सुनाते है , हर कलाकार या प्रसिद्ध इंसान सुनाता है लेकिन कई लोग डंडी मार देते हैं । बस उसे घोंटना मुश्किल हो जाता है । और आप पंकज को चबा चबा कर देखते हैं – हर एक रस के साथ :)) क्योंकि वहां शुद्धता है ।
अपने एक अग्रज से दो महीना पहले बात हो रही थी – बॉलीवुड पर – तो मैंने यही कहा था – बेसिक । पंकज को देखिए , उनका पेज फॉलो कीजिए – जो सबसे ज्यादा आकर्षित करेगी – वह यह है कि पंकज अपने बेसिक से थोड़ा भी नहीं हिले है , ना एक्टिंग में , ना अपने जीवन में । पंकज की आइक्यू हाई है , वो चीजों को पकड़ लेते हैं । ज़िद्दी भी है – तभी नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का इंतज़ार भी किए । और फिर आहिस्ते आहिस्ते …एक झंडा । लहराता हुआ ।
अंत में यही – सब भगवती की कृपा है और भगवती की कृपा बनी रहे । आप मौलिक बने रहें ।
शुभकामनाएं …
~ रंजन / DAALAANBLOG / 2020
“सलाम… बाबू”
~ इसी संबोधन के साथ अक्सर शाम को हमारे ग्रामीण अलाउद्दीन का फोन आता है 😊 हम बचपन में अलाउद्दीन को अलाऊ कहते थे । हमारे पंचायत के करीब 22 साल तक मुखिया / ग्राम प्रधान रहे अल्शेर मियां के 4/5 पुत्रों में से एक : अलाऊ 😊
: दरबार में करीब 200 साल तक हाथी रहा तो अल्शेर मियां का परिवार ही महावत रहा । पीढ़ी दर पीढ़ी । अंतिम हाथी 1989/90 में बिक गया । 67 हजार में । अलाऊ कहते हैं की मालूम नही क्या हड़बड़ी थी , 85 हजार का हाथी 67 हजार में मालिक लोग बेच दिया । अलाऊ को बहुत अफसोस क्योंकि अपने पिता अल्शेर मियां के मुखिया बनने के बाद , अलाऊ ही महावत रहे ।
~ अल्शेर मियां अपनी जवानी में राजा रजवाड़ा के यहां महावत थे , दरबार बुला लिया तो यहीं रह गए । छोटा कद और हिम्मती । मुखिया बनने के बाद अक्सर दरवाजे पर आते और उनका ड्यूटी होता था : बंदूक और रायफल साफ करना , सुखाना और भादो के महीना में बंदूक लेकर शिकार और हम बच्चे पीछे पीछे 😎 हमारी पीढ़ी तो कम या नहीं लेकिन पिता जी और चाचा की पीढ़ी अल्शेर मियां के पीछे पीछे बहुत पगलाया है 😀
: हम बच्चो के पसंदीदा अलाऊ होते थे । छोटा कद और गठीला शरीर । ग्रामीण मेला में एक साइज छोटा नया बनियान पहन वो अपने सीना को चौड़ा करते और बनियान चर्र चर्र करके फट जाता । सबसे बेहतरीन याद दशहरा के रोज का होता । हाथी सज के तैयार और अलाऊ नया कुर्ता पायजामा पहन आगे हाथी के सुंड के सहारे हाथी पर बैठते और हम सभी अजीन कजिन हौदा पर । गांव होते मठिया और फिर प्राण टोला होते हुए रेवतीथ होते हुए वापस घर । रास्ता में लोग भाई पट्टीदार तो नही लेकिन कई जगहों पर लोग सलाम करते । यह झूठ नही है । सच है । खासकर 150 एकड़ का प्राण टोला जो आजादी उपरांत हमारे ही जमीन पर बसाया गया । अब कोई पलट जाए तो क्या कहा जाए । 2019 में बाबा की बरखी पर एक एक आदमी टोला से आया था 🙏 नई पीढ़ी जो व्यवहार करे , हमे कोई शिकायत नहीं 🙏
~ तो 1990 में हाथी बिका और अलाऊ सर्कस पकड़ लिए । कहते हैं पूर्वोत्तर भारत छोड़ वो समस्त भारत घूमे । केरल ब्राह्मण का सर्कस था । शंकर नायर मालिक । सर्कस भी बंद हो गया तो अलाऊ अपने नए मालिक के यहां कई वर्ष तक मैनेजर रहे । केरल में । सौभाग्य की अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि और दुर्भाग्य की बहुत कम पढ़े लिखे ।
: केरल की कहानी वो कहते हैं 😊 कैसे उनके मालिक का सर्कस बंद हुआ तो उनके मालिक काजू और काली मिर्च की खेती करने लगे । कैसे मालकिन का बर्ताव और अलाऊ के बेटी के बियाह में 5 किलो काली मिर्च उनकी मालकिन अलग से बांध कर दी । 800 ग्राम ही खर्च हुआ 😀
~ नई पीढ़ी को हम क्या कहें ? लेकिन यह मुस्लिम टोला दो शताब्दी हमारे परिवार के साथ रहा । परिवार का महाजनी और जमींदारी का काम था । समस्त बिहार के मंझौले जमींदारों को पैसा जाता था । सवा छह फीट के कई मुस्लिम होते थे जो ढेकूआ में ही पैसा बांध वर्तमान गोपालगंज से लखनचन्द मोकामा तक पैदल ही चले जाते 😊 गफ्फार गांधी जैसे , लाठी हाथ में ।
~ सन 1957 में श्री बाबू अचानक से जमींदारी व्यवस्था खत्म किए । जमींदारी गया तो गया ही साथ में महाजनी में बहुत पैसा भी डूबा । गोमस्ता अब नए नायक थे । हम आर्थिक रूप से कमज़ोर हुए । बहुत कमज़ोर । सन 1980 के आसपास में जब पिता जी की पीढ़ी वापस नौकरी में आई तो मेरे बड़े परबाबा सभी लोगों को इकट्ठा कर सबकी तन्खाह पूछे , सभी का तन्खाह जोड़ वो मन ही मन बुदबुदाए की अब ठीक है , जमींदारी के बराबर नई पीढ़ी का तन्खाह हो गया । महाराज , स्थिति बहुत खराब हो गई थी , बड़े परबाबा तो धोती फाड़ कर पहनने लगे थे 😐 चीनी वाली चाय भी बंद ।
~ लेकिन पूर्वजों का आशीर्वाद की दरवाजे की रौनक हाल फिलहाल तक बनी रही । लेकिन कितना रौनक बनाइएगा ? जमाना बहुत बदल गया । बहुत । यह कोई सामाजिक क्रांति की बात नहीं बल्कि जमींदारी के नए स्वरूप की है । अब तो राजनीतिक शक्ति भी पिछड़ेपन की निशानी है । जिसके घर धंधा पानी है , उसी के दरवाजे हाथी और महावत है । शोभा तभी है जब थोड़ी बड़पन्नता भी है 😊
: अलाऊ फिर शाम को फोन करेंगे :
सलाम … बाबू 😊
~ रंजन , दालान / जुलाई , 2023
मार्च के महिना में ‘मैट्रीक’ का परीक्षा होता है – शायद इस पोस्ट को आपमे से बहुत सारे पढ़े होंगे – फिर से पढ़ लीजिये – जो नहीं पढ़ें हैं – आराम से पढ़िए – खालिस बिहारी है …. :))
बिहार में छठ पूजा के बाद – सबसे महत्वपूर्ण पर्व त्यौहार होता है – घर के लडके – लडकी का मैट्रीक परीक्षा ! मत पूछिए ! मैट्रीक परीक्षार्थी को किसी ‘देवी – देवता’ से कम नहीं वैल्यू नहीं होता है :))
दसवां में था तब – राजेंद्र नगर स्टेडियम में क्रिकेट मैच हुआ था – मार्च के महीना में – सब यार दोस्त लोग तीन चार दिन देखे थे ! उस वक्त हमसे ठीक सीनियर बैच का परीक्षा चल रहा था ! स्टेडियम से लौटते वक्त पुर रास्ता जाम रहता था ! सीनियर बैच का उतरा हुआ चेहरा देख दिल “ढक ढक” करे लगता
दसवां के पहले मेरे यहाँ एक नियम था – छमाही – नौमही – वार्षिक परीक्षा के ठीक तीन दिन पहले – बाबु जी मेरा “रीन्युअल” करते – बहुत ही हल्का ‘नेपाली’ चप्पल होता था – बहुत एक्टिंग करना पड़ता – इस चप्पल से बिलकुल ही चोट नहीं लगता था – पर् एक्टिग ऐसा की जैसे की बहुत मार पड़ रहा हो फिर हम कुल तीन दिन पढते और आराम से परीक्षा पास
अब मैट्रीक का परीक्षा आ गया था – सितम्बर -ओक्टुबर में “सेंटअप” का परीक्षा हो गया ! हम लोग का स्कूल जाना बंद ! “भारती भवन ” का गोल्डन गाईड खरीदा गया ! गोविन्द मित्र रोड से खरीद – साईकील के पीछे ‘चांप’ के – ऐसा लगता जैसे आधा परीक्षा पास कर गए “गोल्डन गाईड” को अगरबत्ती दिखाया गया ! कभी वो टेबल पर् तो कभी वो बेड में तकिया के बगल में ! दोस्त यार के यहाँ गया तो देखा की उसको पन्द्रह भाग में विभाजीत कर दिया है – हम भी कर दिए ! अब इस गोल्डन गाईड का पन्द्रह टुकड़े हो गए – रोज एक “भुला” जाता – सारा गुस्सा माँ पर् निकलता
हमको भूगोल / इतिहास / अर्थशास्त्र / नागरीक शास्त्र एकदम से मुह जबानी याद हो गया था ! शाम को बाबु जी आते तो बोलते की – हिसाब बनाये हो ? सब लोग कहने लगा की – सबसे ज्यादा “नंबर” गणित में उठता है – अलजेब्रा छोड़ सब ठीक था – थोडा मेहनत किया तो वो भी ठीक हो गया ! दिक्कत होती थी – केमिस्ट्री और बायलोजी में बकवास था ये सब ! डा ० वचन देव कुमार का “वृहत निबंध भाष्कर’ तो खैर जुबान पर् ही था ! अंग्रेज़ी जन्मजात ही कमज़ोर था – इसलिए वहाँ तो बस “पास” ही करने का ओबजेकटीव था ! नौवां से ही – स्कूल के एक दो शिक्षक के यहाँ टीउशन का असफल प्रयोग कर चूका था – सो अब किसी के यहाँ जाने का सवाल ही पैदा नहीं था !
खैर …एक दो और गाईड ख़रीदा गया ! सभी विषय का अलग से “भारती भवन” का किताब ! अर्थशास्त्र में “मांग की लोच ” इत्यादी चैप्टर तो आज तक याद है :))
खैर …धीरे धीरे ..प्रेशर बढ़ने लगा …आज भी याद है ..गाँव से बाबा किसी मुंशी मैनेजर के हाथ कुछ चावल – गेहूं भेजे थे – और वो पटना डेरा पहुँच चाय की चुस्की के बीच – मेरी तरफ देखते हुए – बोला – “बउआ ..के अमकी “मैट्रीक” बा ..नु ” ! मन तो किया की ..दे दू हाथ ! फूफा – मामा – मामी – चाची – चाचा – कोई भी आता तो “उदहारण” देता – फलाना बाबु के बेटा / बेटी को पिछला साल ‘इतना’ नंबर आया था – ऐसी बातें सुन – हार्टबीट बढ़ जाता ! फिर सब लोग गिनाने लगते – “इस बार कौन कौन मैट्रीक परीक्षा दे रहा है ” जिससे मै आज तक नहीं मिला – वो भी मुझे दुश्मन लगता ! कोई चचेरा भाई – मोतिहारी में दे रहा है तो कोई फुफेरी बहन – सिवान में ! उफ्फ्फ्फ़ ….इतना प्रेशर !
रोज टाईम टेबल बनने लगा ! क्या टाईम टेबल होता था बिहार सरकार की तरह – सब काम कागज़ में ही धीरे धीरे ठंडा का मौसम आने लगा ! कहीं भी आना जाना बंद हो गया ! बाबु जी को सब लोग कहता – “आपके बेटा – का दीमाग तेज है – बढ़िया से पास कर जायेगा” ! अच्छा लगता था ! पर् …और बहुत सारी दिक्कतें थी …
सुबह उठ के नहा धो के – छत पर् किताब कॉपी – गाईड लेकर निकल जाता ! साथ में ‘एक मनोहर कहानियां या कोई हिन्दी उपन्यास ‘ ! गाईड के बीच उपन्यास को रख कर – पढ़ने में जो थ्रील आता ..वो गजब का था :)) फिर ‘जाड़ा के दिन’ में छत का और भी मजा था ! :)) कहीं से उपन्यास वाली बात ‘माता श्री’ तक पहुँच गयी ! ‘माता श्री ‘ से ‘पिता जी’ तक तय हुआ – एक मास्टर रखा जायेगा – जो मुझे पढ़ाएगा नहीं – बल्की सिर्फ मेरे साथ दो तीन घंटा बैठेगा ! मास्टर साहब आये – एक दो महीना बैठे – फिर मुझ द्वारा भगा दिए गए लेकिन एक फायदा हुआ – गणित के सवाल रोज बनाने से गणित बहुत मजबूत हो गया ! अलजेब्रा भी मजबूत हो गया – !
अब हम लोग दूसरी जगह ‘सरकारी आवास’ में आ गए – यहाँ भी सभी लोग बाबु जी के नौकरी – पेशा वाले ही लोग थे – माहौल अजीब था – किसी का पुत्र दून में तो किसी का वेलहम में – कोई डीपीएस आर के पुरम में – भारी फेरा .. ! खैर …
यहाँ के लिये मै अन्जान था – बस बालकोनी से मुस्कुराहटों को देख मूड फ्रेश कर वापस किताबों में घुस जाना ! तैयारी ठीक थी – मै संतुष्ट था ! अंग्रेज़ी – बायलोजी – केमिस्ट्री छोड़ सभी विषय बहुत परफेक्ट थे – मैंने किसी विषय को रटा नहीं था – आज भी ‘रटने’ से नफरत है ! खैर …बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती – ऐडमीट कार्ड मिलने का दिन आ गया – स्कूल गया – कई महीनो बाद दोस्तों से मुलाकात हुई –
स्कुल में पता चला की – सेंटर दो जगहों पर् पड़ा है पहले दो सेक्शन “जालान” और हम दो सेक्शन “एफ एन एस अकेडमी ” ! मन दुखी हो गया – बहुत दुखी ! “जालान” में सुना था – उसका बड़ा गेट बंद कर के – अनदर …सब कुछ का छूट था बहुत करीबी दोस्त था – दीपक अगरवाल – बात तय हुआ – परीक्षा के दिन – साईकल से मै उसके घर जाऊंगा – फिर वहाँ से हम दोनों साथ में !
परीक्षा के दिन ‘जियोमेट्री बॉक्स’ लेकर ..एक हैट पहन कर ..साईकील से दीपक अगरवाल के यहाँ निकल पड़ा ..वहाँ पहुंचा तो पता चला की ..दीपक अपने मामा – मामी – फुआ – बाबु जी – माँ – बड़ा भाई इत्यादे के साथ निकल चूका है अजीब लगा ..इतने लोग ..क्या करेंगे ?? रास्ते में साईकील के कैरियर से ‘जियोमेट्री बॉक्स ‘ गिर गया ..देखा तो ‘एडमीट कार्ड’ गायब ….हाँफते – हुन्फाते ..साईकील को सौ पर् चलाते ..घर पहुंचा तो देखा की ..बाबु जी बालकोनी में मेरा एडमीट कार्ड हाथ में लिये खडा है …जबरदस्त ढंग से दांत पीस रहे थे … मुझे नीचे रुकने को बोले और खुद नीचे आये …लगा की ..आज “जतरा” बाबु जी के हाथ से ही बनेगा ….फिर पूछे ..सेंटर कहाँ पड़ा है – हम बोले …गुलजारबाग …! हम अपना “हैट” अडजस्ट किये ..साईकील का मुह वापस किये ..पैडल पर् एक पाँव मारे ..और चल दिए …!
अजीब जतरा था …रास्ता भर साईंकील का “चेन” उतर जा रहा था किसी तरह पहुंचे …मेरे मुह से निकला …”लह” ….यहाँ तो “मेला लगा हुआ है ” ! हा हा हा ….सेंटर पर् सिर्फ मै ही “अकेला” था ..वरना बाकी कैंडीडेट ..पुरा बारात ! अपने परीक्षा कक्ष में गया ….सबसे आगे सीट ! पीछे “राजेशवा” था ! फिएट से उसका पुरा खानदान लदा के आया था ! अब देखिये …वो हमसे पूछता है ….”पुरा पढ़ के आये हो ना ..” हा हा हा हा हा ….प्रश्नपत्र मिला और मै सर झुका के लिखने लगा ….एक घंटा ..शांती पूर्वक …फिर पीछे के जंगला से एक आवाज़ आई – राजेश का बड़ा भाई था – “ई ..चौथा का आन्सर है” – ढेला में एक कागज़ लपेटा हुआ – राजेश के पास आया …धब्ब…! राजेशवा जो अब तक मेरा देख लिख रहा था ….अब वो परजीवी नहीं रहा …वादा किया ..”लिख कर ..मुझे भी देगा ” ….पहला सिटिंग खत्म हुआ ! टिफिन के लिये मै अपने साथ “शिवानी” के उपन्यास लाया था ..ख़ाक पढता था हल्ला हुआ – सब क्योश्चन ..”एटम बम्ब” से लड़ गया …अब सेंटर के ठीक सामने “एटम बम्ब” बिक रहा था …मै भी एक खरीद लिया ..बिलकुल सील किया हुआ खोला और एक नज़र पढ़ा ..बकवास !
हम हर रोज उदास हो जाता था …सभी दोस्त के साथ पुरे खानदान की फ़ौज होती थी ! टिफिन में हम अकेले किसी कोना में बैठे होते थे …इसी टेंशन में …दीपक अगरवाल’ को बीच चलते हुए परीक्षा में “धो” दिए ….उसको भी कुछ समझ में नहीं आया ..वो मुझसे क्यों धुलाया …हा हा हा !
इसी तरह एक एक दिन बितता गया ….अंग्रेज़ी भी पास होने लायक लिख दिया ..गणित- अर्थशास्त्र – भूगोल – इतिहास – और संस्कृत सबसे बढ़िया …बहुत ही नकरात्मक हूँ ..फिर भी खुद के लिये बहुत अच्छे नंबर सोच रखे थे ….अंतिम दिन ..चपरासी को दस रुपैया देकर ..कॉपी कहाँ गया है ..पता करवा लिया …पर् जहाँ कोई मेरे साथ “सेंटर” पर् जाने को नहीं था …कोई “कॉपी” के पीछे क्यों भागता ..हा हा हा …..
अंतिम दिन परीक्षा देकर ..कहीं नहीं गया …चुप चाप चादर तान सो गया …कितने घंटे सोया ..खुद नहीं पता …ऐसा लग् रहा था ..वर्षों से नहीं सोया हूँ …..
आज पटना वाले अखबार में पढ़ा की – कल से “बिहार मैट्रीक परीक्षा ” शुरू हो रहा है ..सभी विद्यार्थीओं को शुभकामनाएं ….. ज्यादा क्या कहूँ ..मेहनत कीजिए :))
~ दालान
२३ फरवरी , २०११
सुबह सुबह किसी ने पूछ दिया – इंदिरापुरम में आप लोग होली कैसे मनाते हैं ? अब हम क्या बोलें – कुछ नहीं – सुबह से पत्नी – दही बड़ा , मलपुआ , मीट और पुलाव बनाती हैं ! दिन भर खाते हैं – ग्यारह बजे अपने फ़्लैट से नीचे उतर कुछ लोगों को रंग / अबीर लगाया – फोन पर् टून् – टून् फोन किया – एसएमएस किया और एसएमएस रिसीव किया – दोपहर में स्कूल – कॉलेज के बचपन / जवानी वाले दोस्तों की टीम आएगी – सभी के सभी बेहतरीन व्हिस्की की बोतल हाथ में लिये – घिघिआते हुए पत्नी की तरफ देखूंगा – वो आँख दिखायेगी – हम् निरीह प्राणी की तरह उससे परमिशन लेकर – दो घूँट पियेंगे – गला में तरावट के लिये – तब तक दोस्त महिम लोग ‘मीट और पुआ’ खायेगा – फिर लौटते वक्त – थोडा बहुत अबीर ! हो गया होली – बीन बैग पर् पसर के टीवी देखते रहिए !
मुह मारी अइसन होली के 🙁
क्या सभ्यता है 🙂 मदमस्त ऋतुराज वसंत में होली – बुढ्ढा भी जवाँ हो जाए – एकदम प्रकृति के हिसाब से पर्व – त्यौहार !
होली बोले तो – ससुराल में ! जब तक भर दम ‘सरहज – साली – जेठसर ‘ से होली नहीं खेला ..क्या खेला ? और तो और पहली होली तो ससुराल में ही मनानी चाहिए ! ‘देवर – नंदोशी’ से अपने गालों में रंग नहीं लगवाया – फिर तो जवानी छूछा ही बीत गया ! समाज के नियम को सलाम ! मौके के हिसाब से स्वतंत्रा मिली हुई है – मानव जाति एक ही बंधन में बंध के ऊब जाता है – शायद – तभी तो ऐसे रिश्ते बनाए गए ! एक से एक बुढ्ढा ‘ससुराल’ पहुंचाते ही रंगीन हो जाता है 😉
दामाद जी अटैची लेकर ससुराल पहुँच गए – पत्नी पहले से ही वहाँ हैं – कनखिया के एक नज़र पत्नी को देखा – भरपूर देखा – सरहज साली मिठाई लेकर पहुँच गयी ! पत्नी बड़े हक से ‘अटैची’ को लेकर कमरे में रख दी ! तब तक टेढा बोलने वाला – हम उम्र ‘साला’ पहुँच गया – पूछ बैठेगा – का मेहमान ..बस से आयें हैं की कार से ..ससुर सामने बैठे हैं ..आपको उनका लिहाज भी करना है ..लिहाज करते हुए जबाब देना है …दामाद बाबु कुछ जबाब देंगे ..जोर का ठहाका लगेगा …तब तक रूह आफजा वाला शरबत लेकर ‘सास’ पहुँच जायेंगी – बड़ी ममता से आपको देखेंगी …’सास – दामाद’ का रिश्ता भी अजीब है ..”घर और वर्” कभी मनलायक नहीं होता ..कैसा भी घर बनवा दीजिए ..कुछ कमी जरुर नज़र आयेगी ..बेटी के लिये कैसा भी वर् खोज लाईये ..कुछ कमी जरुर नज़र आयेगी !
होली कल है ! अब आप नहा धो कर ‘झक – झक उज्जर गंजी और उज्जर लूंगी’ में हैं – दक्षिण भारतीय सिनेमा के नायक की तरह ! छोटकी साली को बदमाशी सूझेगी – आपके सफ़ेद वस्त्रों को कैसे रंगीन किया जाए ..वो प्लान बना रही होगी …बहन का प्यार देखिये ..वो अपना सारा प्लान अपनी बड़ी बहन यानी आपकी पत्नी को बता देगी ..और आपकी पत्नी इशारों में ही आपको आगे का प्लान बता देगी …बेतिया वाली नयकी सरहज भी उसके प्लान में शामिल हो जायेगी …[ आगे का कहानी सेंसर है ]
आज होली है …बड़ी मुद्दत बाद आप देर रात सोये थे 😉 …सुबह देर से नींद खुली नहीं की ..सामने स्टील के प्लेट में पुआ – पकौड़ी तैयार है …जितना महीन ससुराल ..उतने तरह के व्यंजन …तिरहुत / मिथिला में तो पुरेगाओं से व्यंजन आता है ..’मेहमान’ आयें हैं ..साड़ी के अंचरा में छुपा के ..व्यंजन आते हैं ..अदभुत है ये सभ्यता !
अभी आप व्यंजन के स्वाद ले ही रहे हैं …तब तक आपका टीनएज साला …स्टील वाला जग से एक जग रंग फेंकेगा …आप बस मुस्कुराइए ..उसको ससुर जी के तरफ से एक झिडक मिलेगी ..वो भाग जायेगा ..अब आप होली के मूड में हैं…तब तक आपका हमउम्र साला आपसे कारोबार का सवाल पूछने लगेगा …आप अंदर अंदर उसको मंद बुध्धी बोलेंगे – साले को यही मौक़ा मिला था ..ऐसा सवाल पूछने का ..बियाह के पहले काहे नहीं पता किया था ..! हंसी मजाक का दौर …खाते – पीते समय गुजरने लगेगा …तब तक ..सुबह से गायब एक और साला जो थोड़ा ढीठ और मुहफट है …आपको इशारा से एक कोना में बुलाएगा ..आप सफ़ेद लूंगी संभालते हुए उसके पास पहुंचेंगे …वो धीरे से पूछेगा …’मेहमान ..आपको ‘चलता’ है ? न् “…अब आपको यहाँ एकदम शरीफ जैसा व्यव्हार करना है …पत्नी ने जैसा कल रात समझाया था ..वैसा ही …आप उसको बोलेंगे …’क्या “चलता” है ? ‘ वो गुस्सा के बोलेगा – अरे मेरे गाँव के राम टहल बाबु का बेटा आर्मी में है …सबसे बढ़िया वाला लाया है ..कहियेगा तो इंतजाम हो जायेगा …आप चुप चाप उसको एक शब्द में कुछ ऐसा जबाब दीजिए जिससे वो समझ जाए ..आप आज नहीं ‘लेंगे’ !
अचनाक से आपको युद्ध वाला माहौल नज़र आएगा – चारों तरफ से – छोटका साला , साली , सरहज आप पर् रंगों का बौछार करेंगे ..यहाँ तक की घर में काम करने वाली ‘मेड’ भी ! आप अपने स्वभानुसार प्रतिक्रिया देंगे …अब देखिये ..अभी तक आपके ससुर जी जो आपके बगल में बैठे थे …वो धीरे से उठ कर अपने कमरे में चले गए ….आपने पत्नी की तरफ एक शरारत भरी नज़र से देखा और …..होली शुरू :)))
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रंजन ऋतुराज – इंदिरापुरम !
05.03.12
छठ / होली में जो अपने गाँव – घर नहीं गया – वो अब ‘पूर्वी / बिहारी’ नहीं रहा ! मुजफ्फरपुर / पटना में रहते थे तो हम लोग भी अपने गाँव जाते थे – बस से , फिर जीप से , फिर कार से ! जैसे जैसे सुख सुविधा बढ़ने लगा – गाँव जाना बंद हो गया ! अब पटना / नॉएडा / इंदिरापुरम में ही ‘होली’ मन जाता है ! चलिए ..होली की कुछ यादें ताजा करते है !
चलिए आज पटना की होली याद करते हैं ! होली के दस दिन पहले से माँ को मेरे कुर्ता – पायजामा का टेंशन हो जाता था क्योंकी पिछला साल वाला कुर्ता पायजामा छोटा हो चुका होता ! मेरा अलग जिद – कुछ भी जाए – ‘सब्जीबाग’ वाला पैंतीस रुपैया वाला कुर्ता तो हम किसी भी हाल में नहीं पहनेंगे ! बाबु जी का अलग थेओरी – साल में एक ही दिन पहनना है ! बाबु जी उधर अपने काम धाम पर् निकले – हम लोग रिक्शा से सवार – हथुआ मार्केट – पटना मार्केट ! घूम घाम के कुछ खरीदा गया …सब बाज़ार में ‘हैंगर में लटका के कुर्ता रखता था ..झक झक उजला कुर्ता ! पटना मार्केट के शुरुआत में ही एक दो छोकरा लोग खडा रहता – हाथ में पायजामा का डोरी लेकर 😉 आठ आना में एक 😉
अब कुर्ता – पायजामा के बाद – मेरा टारगेट ‘पिचकारी’ पर् होता – गाँव में पीतल का बड़ा पिचकारी और शहर में प्लास्टिक 🙁 ‘सस्तऊआ प्लास्टिक का कुछ खरीदा गया – रंग के साथ – हम हरा रंग के लिये जिद करते – माँ कोई हल्का रंग – किसी तरह एक दो डिब्बा हरा रंग खरीद ही लेता था !
धीरे धीरे बड़ा होते गया …पिता जी के सभी स्टाफ होली में अपने गाँव चले जाते सो होली के दिन ‘मीट खरीदने’ का जिम्मा मेरे माथे होता था ! एक दिन पहले जल्द सो जाना होता था ! भोरे भोरे मीट खरीदने ‘बहादुरपुर गुमटी’ ! जतरा भी अजीब ..स्कूटर स्टार्ट नहीं हो रहा …टेंशन में साइकिल ही दौड़ा दिया ..हाँफते हुन्फाते हुए ‘चिक’ के पास पहुंचे तो देखे तो सौ लोग उसको घेरे हुए है ..देह में देह सटा के ..मेरा हार्ट बीट बढ़ गया …होली के दिन ‘खन्सी का मीट’ नहीं खरीद पायेंगे …जीना बेकार है वाला सेंटीमेंट हमको और घबरा देता था …इधर उधर नज़र दौडाया …डब्बू भईया नज़र आ गए …एक कोना में सिगरेट धूकते हुए …सुने थे ..डब्बू भईया का मीट वाला से बढ़िया जान पहचान है …अब उनके पास हम सरक गए …लाइए भईया ..एक कश हमको भी ..भारी हेडक है ..ई भीड़ देखिये ..लगता है हमको आज मीट नहीं मिलेगा …डब्बू भईया टाईप आईटम बिहार के हर गली मोहल्ला में होता है ..हाफ पैंट पहने ..एक पोलो टी शर्ट ..आधा बाल गायब …गला में ढेर सारा बध्धी ..हाथ में एक कड़ा …स्कूटर पर् एक पैर रख के ..बड़े निश्चिन्त से बोले …जब तक हम ज़िंदा है ..तुमको मीट का दिक्कत नहीं होगा ..उनका ई भारी डायलोग सुन ..दिल गदगद हो गया …तब उधर से वो तेज आवाज़ दिए ….’सलीम भाई’ …डेढ़ किलो अलग से ..गर्दन / सीना और कलेजी ! तब तक डब्बू भईया दूसरा विल्स जला लिये ..अब वो फिलोसफर के मूड में आने लगे ..थैंक्स गोड..सलीम भाई उधर से चिल्लाया …मीट तौला गया ! जितना डब्बू भईया बोले …उतना पैसा हम दे दिए …फिर वो बोले ..शाम को आना …मोकामा वाली तुम्हारी भौजी बुलाई है ! डब्बू भईया उधर ‘सचिवालय कॉलोनी’ निकले …हम इधर साइकिल पर् पेडल मारे …अपने घर !
मोहल्ला में घुसे नहीं की ….देखे मेरे उमर से पांच साल बड़ा से लेकर पांच साल छोटा तक …सब होली के मूड में है ! सबका मुह हरा रंग से पोताया हुआ ! साइकिल को सीढ़ी घर में लगाते लगाते ..सब यार दोस्त लोग मुह में हरा रंग पोत दिया ! घर पहुंचे तो पता चला – प्याज नहीं है …अब आज होली के दिन कौन दूकान खुला होगा …पड़ोस के साव जी का दूकान ..का किवाड आधा खुला नज़र आया …एक सांस में बोले …प्याज – लहसुन , गरम मसाला ..सब दे दीजिए …! सब लेकर आये तो देखा ..मा ‘पुआ’ बना दी हैं …प्याज खरीदने वक्त एक दो दोस्त को ले लिया था …वो सब भी घर में घुस गए …मस्त पुआ हम लोग चांपे ..फिर रंगों से खेले !
कंकरबाग रोड पर् एक प्रोफेशनल कॉलेज होता है – यह कहानी वहीँ के टीचर्स क्वाटर की है – हमलोग के क्वाटर के ठीक पीछे करीब दो बीघे के एक प्लाट में एक रिटायर इंजिनियर साहब का बंगलानुमा घर होता था ! हमारी टोली उनके घर पहुँची ! बिहार सरकार के इंजिनियर इन चीफ से रिटायर थे – क्या नहीं था – उनके घर ! जीवन में पहली दफा 36 कुर्सी वाला डाइनिंग टेबुल उनके घर ही देखा था ! एकदम साठ और सत्तर के दसक के हिन्दी सिनेमा में दिखने वाला ‘रईस’ का घर ! पिता जी के प्रोफेशन से सम्बंधित कई बड़े लोगों के घर को देखा था – पर् वैसा कहीं नहीं देखा ! हर होली में मुझे वो घर और वो रईस अंदाज़ याद आता है !
देखते देखते दोपहर हो गया – मीट बन् के तैयार ! अब नहाना है ! रंग छूटे भी तो कैसे छूटे …जो जिस बाथरूम में घुसा ..घुसा ही हुआ है 🙂
~ रंजन / 04.03.12