माँ… स्मृतियों में 🙏

माँ

माँ ( 8th May 1949 – 5th Feb 2013 ) 
माँ , आज शाम माँ अपनी यादों को छोड़ हमेशा के लिए उस दुनिया में चली गयीं – जहाँ उनके माता पिता और बड़े भाई रहते हैं ! पिछले बीस जनवरी को माँ का फोन आया था …मेरी पत्नी को …रंजू से कहना …हम उससे ज्यादा उसके पापा को प्रेम करते हैं …हम माँ से मन ही मन बोले …माँ ..खून का रिश्ता प्रेम के रिश्ते से बड़ा होता है …वो हंसने लगी ..अगले दिन भागा भागा उनके गोद में था …जोर से पकड़ लिया …माँ को रोते कभी नहीं देखा …उस दिन वो रो दीं …! आजीवन मुझे ‘आप’ ही कहती रहीं ….कई बार टोका भी …माँ ..आप मुझे आप मत बुलाया कीजिए …स्कूल से आता था …शाम को …चिउरा – घी – चीनी …रात को चिउरा दूध …मीठा से खूब प्रेम …तीनो पहर मीठा चाहिए …छोटा कद ..पिता जी किसी से भी कहते थे …एकदम मिल्की व्हाईट …रंजू के रंग का ….पटना पहुँचता था …खुद से चाय …कई बार बोला ..माँ आप कितना चाय पीती हैं …मुझे भी यही आदत …आठ साल पहले …गर्भाशय का ओपरेशन …होश आया …जुबान पर …रंजू …पापा को चिढाया था …माँ आपसे ज्यादा मुझसे प्रेम ….शादी के पहले और शादी के बारह साल तक ..कभी प्याज़ लहसुन नहीं ….पापा अपनी गृहस्थी बसाए …पहले ही दिन मछली …माँ रोने लगीं ..कहने लगीं …मछली की आँखें मुझे देख रही हैं …करुना …यह सब मैंने आपसे ही सिखा था ….माँ…आपसे और क्या सिखा …बर्दास्त करना …मन की बात जुबान तक नहीं लाना …किसी भी समस्या के जड़ पर पहुँच …सामने वाले को माफ़ कर देना …माँ ..आप मुझे हिंदी नहीं पढ़ाई …पर खून को कैसे रोक सकती थी …बहुत मन था …जो लिखता हूँ …आप पढ़ती …फिर अशुद्धी निकालती ….फिर मेरी सोच देख बोलतीं …रंजू आप कब इतने बड़े हो गए …आपका तानपुरा …शास्त्रीय संगीत …कुछ भी तो नहीं सिखाईं …खून ..आ गया …बिना सीखे ..संगीत की समझ ….मेरी शादी के दिन आप कितना रोयीं थी ….आप उस दिन बड़ी हुई थीं …आज आपको खोकर मै बड़ा हो गया …माँ ..जाने के पहले एक बार भी मन नहीं किया …रंजू से बात कर लें …हमदोनो कितना कम बात करते थे …याद है …आपके साथ कितना सिनेमा मैंने देखा है …जुदाई / आरज़ू / दिल ही तो है..जया भादुड़ी …अभिमान का रिकोर्ड ..रोज सुबह बजाना .. …सिर्फ आप और हम …पापा को आप पर कभी गुस्साते नहीं देखा …बहुत हुआ तो …रंजू के महतारी ..एने वोने सामान रख देवे ली …पापा तो सब कुछ छोड़ दिए आपके लिए …आप उनको अकेला क्यों छोड़ दीं …बोलिए न ….इस प्रेम के रिश्ते में बेवफाई कहाँ से आ गई… कई सवाल अभी बाकी है …कल सुबह पूछूँगा …

 5 फ़रवरी , 2013 


हर किसी की एक ‘माँ’ होती है – मेरी भी माँ थीं …पिछले साल आज के ही दिन वो मुझे छोड़ अपने माता – पिता – भाई के पास चली गयीं …..यादों के फव्वारे में जब सब कुछ भींग ही गया …फिर इस कलम की क्या बिसात …माँ ने जो खिलाया ..वही स्वाद बन गया ..जो सिखाया वही आंतरिक व्यक्तित्व बन गया …’माँ’ विशुद्ध शाकाहारी थी – दूध बेहद पसंद – दूध चिउरा / दूध रोटी और थोड़ा छाली ..हो गया भोजन 🙂 सुबह चाय – शाम चाय – दोपहर चाय – जगने के साथ चाय – सोने के पहले चाय ..चीनी और मिठाई बेहद पसंद …बचपन में मेरे लिए चीनी वाला बिस्कुट आता था – दोनों माँ बेटा मिल कर एक बार में बड़ा पैकेट ख़त्म 🙂 बिना ‘मीठा’ कैसा भोजन …:)) मात्र आठ – नौ साल की उम्र में वो अपने पिता को खो बैठीं – जो अपने क्षेत्र के एक उभरते कांग्रेस नेता थे – श्री बाबु के मुख्यमंत्री काल में – श्री बाबु के ही क्षेत्र में – उनके स्वजातीय ज़मींदार की हत्या अपने आप में बहुत बड़ी घटना थी – परिवार से लेकर इलाका तक दहल चूका था – मैंने ‘माँ’ के उस अधूरे रिश्ते को बस महसूस किया – कभी हिम्मत नहीं हुई – ‘माँ’ आपको तब कैसा लगा होगा …यह बात आज तक मेरे अन्दर है – कभी कभी माँ हमको बड़े गौर से देखती थीं – फिर कहती थी – ‘रंजू ..आपको देख ‘चाचा’ की हल्की याद आती है’ …वो अपने पिता जी को चाचा ही कहती थीं …हम सर झुका कर उनके पास से निकल जाते थे …प्रेम की पराकाष्ठा…स्त्री अपने पुत्र में ..पिता की छवी देखे …माँ तो माँ ही हैं …किस पहलू को याद करूँ या न करूँ …एक सम्पूर्ण प्रेम …फिर एक पुरुष आजीवन उसी प्रेम को तलाशता है …जहाँ कहीं ‘ममता की आंचल’ की एक झलक मिल गयी …वह वहीँ सुस्ताना चाहता है …माँ ..आप हर पल जिंदा है ..मेरे अन्दर …!!! मेरा खुद का भी पिछला एक साल बेहद कमज़ोर और उतार चढ़ाव का रहा है …वो सारे लोग जो जाने अनजाने मेरी मदद को आगे आये..कमज़ोर क्षणों में भी मेरी उँगलियों को पकडे रहे …उन सबों को …मेरी ‘माँ’ की तरफ से धन्यवाद …! और क्या लिखूं ….:)))

 ~ 5 फ़रवरी , 2014 

माँ , कहते हैं – माँ अपने बच्चे को कभी अकेला नहीं छोड़ती – कभी गर्भ में तो कभी गोद में – कभी आँचल में तो कभी एहसासों में – कभी आंसू में तो कभी मुस्कान में ! औलाद भी तो कभी अपने माँ से अलग नहीं होती – कभी आँचल के निचे तो कभी ख्यालों में – कभी जिद में तो कभी मन में …! माँ…बचपन में मेरे कान में दर्द होता था …सारी रात एक कपडे को तावा पर गरम कर के …आप मेरे कानो को सेंकती रहती थी ..अब मेरे कानों में दर्द नहीं होता …क्योंकी अब आप नहीं…माँ…आज आपका सारा पसंदीदा गाना सुना …आम्रपाली का वो गीत …’जाओ रे ..जोगी तुम जाओ रे …’ ऐसा लगा आप बोल उठेंगी …रंजू …फिर से दुबारा बजाईये ..न …कोई बोला नहीं …मैंने भी फिर से दुबारा बजाया नहीं…पर उस गीत के साथ आपकी गुनगुनाहट मैंने सुनी …वहीँ धुन …वही राग …माँ…सारा दिन आपके यादों से सराबोर रहा…पापा ठीक से हैं…अपने काम धाम में व्यस्त …हाँ …घर से निकलते वक़्त …आपकी तस्वीर को देखना नहीं भूलते …जैसे अब आप बस उस तस्वीर में ही सिमट के रह गयी हैं…आपके जाने के बाद ..आपके आलमीरा को मैंने नहीं खोला …पापा को देखता हूँ…वही खोलते हैं …शायद आपकी खुशबू तलाशते होंगे …आपके पीछे में भी आपको ‘रंजू के महतारी’ ही कहते हैं …उनके लिए आपका कोई नाम नहीं है…क्या…सिवाय चिठ्ठियों के…माँ…कभी कभी लगता है …आप कहाँ होंगी …किस रूप में होंगी …कैसी होंगी …एक बार और …फिर से …आपको देखने का मन करता है…सच में …बस एक बार और…

~  5 फ़रवरी , 2015


माँ , माँ , आज आपको गए आज तीन साल हो गया । आज सुबह आपका काला शाल नज़र आया । ओढ़ लिया – बहुत सकून मिला । माँ , तीन साल हो गए लेकिन अभी भी उस शाल से आपकी ख़ुशबू नहीं गयी । फिर वापस रख दिया – आपके तकिए के नीचे । माँ , जब मन बहुत बेचैन होता है – वहीं आपके पलंग के आपके जगह पर सो जाता हूँ – दिन में नहीं सोता फिर भी सो जाता हूँ । हर साल कश्मीरी आता है – हर साल पूछता है – आंटी नहीं हैं – हर साल बोलता हूँ – नहीं हैं । भूल जाता है – इस बार नहीं पूछा – चुपके से एक काला शाल मेरे हाथों में रख दिया । शाम हो गयी गई है – चाय की याद आयी – मन किया आपके लिए भी एक कप बना दूँ – बिना चीनी वाली । आपके जाने के बाद – आपका आलमिरा नहीं खोला – हिम्मत नहीं हुई । शायद लॉक ही है – पापा को भी उस आलमिरा को खोलते कभी नहीं देखा । आपका एक पोंड्स ड्रीमफ्लावर पाऊडर कई महीने वहीं टेबल पर रखा नज़र आया , फिर लगता है – किसी ने उसे आपके आलमिरा में रख दिया । माँ , आपके जाने के बाद – ज़िंदगी पूरी तरह बदल गयी या जहाँ आप छोड़ कर गयीं – वहीं ठहर गयी – कुछ नहीं कह सकता । अब आप बेवजह परेशान होने लगी ….रुकिए …जया भादुड़ी का एक गीत अपने यूटूब पर सुनाता हूँ …नदिया किनारे हेरा आई …

~ 5 फ़रवरी , 2016 

: रंजू …

छठ पर गोवा की पूर्व राज्यपाल मृदुला सिन्हा जी का एक लेख …

अक्सर पिछले छह दशकों की वीथियों में घूम ही आती हूं। उन स्मृतियों में सब हैं, दादा-दादी, मां-पिताजी, भाई-बहन और ढेर सारे चाचा-चाचियां और सेवक-सेविकाएं। उन्हीं रिश्तों के बीच होली-दिवाली, दुर्गा पूजा, चौथचंदा, सरस्वती पूजा और व्रत-त्योहार। सबसे ऊपर रहती है छठ पर्व की स्मृति। कितना सुहाना, कितनी आस्था। दादी द्वारा कितने सारे निषेध। चार दिनों की पूजा होती थी। तैयारी तो दुर्गा पूजा के समाप्त होते ही प्रारंभ हो जाती थी। सबसे पहले बांस का डाला और डगरा तथा सूप खरीदे जाते थे। ज्यों-ज्यों दिवाली नजदीक आती, हम बच्चों का उत्साह बढ़ता जाता। दिवाली के बाद एक-एक दिन की गिनती। हम दादी को तंग करते, ‘कब होगी छठ पूजा?’ छह दिन, छह वर्ष की भांति बीतते। ढेर सारे फल। नारियल, केला, नारंगी के साथ मूली, ओल, ईख, और भी बहुत कुछ।

नए कपड़े। घर, आंगन, दरवाजा गोबर से लिपा हुआ। पूजा के लिए डाला पुरुष के सिर पर रखकर एक किलोमीटर जाना पड़ता। गंडक नदी में सामूहिक पूजा। पश्चिम दिशा में मुंह कर पानी में खड़ी महिलाएं, थोड़े से पुरुष भी, डूबते सूर्य की पूजा करते। आकाश में सूर्य का गोला लाल हो जाता। पकवान (ठेकुआ और कसार) व फलों से भरे सूप उठा-उठाकर सूर्य को व्रतीजन अर्घ्य देते। दो, चार, पांच, छह से लेकर किसी-किसी परिवार का 21-25 सूप भी होते। बांस का डाला, बांस का सूप। पकवान बनाने में शुद्धता और पवित्रता पर विशेष ध्यान होता। एक बार मेरे नन्हे पांव डाला में लग गए थे। दादी ने मेरे पांव में चपत लगाई। सूर्यदेव से माफी मांगी। 48 घंटे का उपवास (निर्जला) करती थी दादी। नहा-खा, खरना, संझिया अर्घ्य, भोरवा अर्घ्य। चार दिनों का व्रत। दूसरे दिन प्रात:काल सूर्य उगने से पूर्व नहा-धोकर घाट पर अंधेरे में ही सिर पर डाला के दीए की रोशनी के सहारे सारा गांव नदी किनारे इकट्ठा हो जाता। व्रतीजन पूरब मुंह पानी में खड़े होकर सूर्य के लाल चक्के की प्रतीक्षा करते। सूर्य के उगने पर पुन: एक-एक सूप उठा-उठाकर अर्घ्य देते। सूप पर थोड़ा-थोड़ा दूध भी डाला जाता। घाट पर ही दादी प्रसाद बांटना प्रारंभ करतीं।

घाट पर मांगने वाले भी बहुत होते थे। प्रसाद मांग कर खाना भी और प्रसाद बांटना भी धर्म का कार्य ही माना जाता था। दादी जब घर लौटतीं, मां-चाची उनके पांव धोतीं, उन्हें भोजन करातीं और उनके लेटने पर उनके पांव दबातीं। मान्यता थी कि व्रती औरतों की सेवा करने पर पुण्य मिलता है और हृदय से आशीर्वाद भी। दादी कभी-कभी गिनती करातीं कि उनके परिवार और संबंधों में कौन-कौन बच्चा उनके द्वारा छठ पूजा करते हुए सूर्यदेव से मांगा हुआ है। मैंने एक बार शिकायत की, ‘दादी आप तो केवल बेटा मांगती थीं।’
मंगल चाचा बोल पड़े- ‘तुम भी सूर्यदेव की मांगी हुई हो।’ दादी ने सिर हिलाया।

दादी के गीत की एक पंक्ति थी- अन्न, धन, लक्ष्मी हे दीनानाथ अहंईं के देल। (हे दीनानाथ! अन्न, धन, लक्ष्मी आप ही का दिया हुआ है।) बाबूजी इस पंक्ति के द्वारा मुझे सूर्य की महिमा समझाते थे।
समय बदला, नदी का पानी सूख गया, लोग अपने आंगन में और कुएं पर गड्ढा खोदकर पानी भरकर छठ करने लगे। फिर वह आनंद नहीं आता था, जो नदी में एक साथ सैकड़ों महिलाओं-पुरुषों को देखकर आता था। मुझे भी गांव छोड़ना पड़ा। मैं दिल्ली आ गई। दिल्ली में बिहार के कुछ लोग मिलने आते थे। मैं उनसे पूछती थी कि यहां छठ होता है या नहीं। उन्होंने बताया कि सब गांव (बिहार) चले जाते हैं। मैंने भी सोचा कि मैं भी गांव चली जाऊंगी। बिहार के कई लोग मिलने आते थे। उनमें से एक ने कहा, ‘आप कहें, तो हम यमुना किनारे व्रत शुरू करें!’ मैंने कहा, ‘अवश्य शुरू करें। मुझे भी छठ के गीत गाने आते हैं।’ 1978 से यमुना किनारे छठ मनाई गई। केवल 20-30 लोग थे। दो परिवारों ने व्रत किया। घाट पर जंगल ही जंगल था। महाराष्ट्र का गणपति, गुजरात का गरवा, पंजाब का वैशाखी, उत्तर-पूर्व का बिहू, केरल का ओणम, बंगाल का दुर्गा पूजा, सभी त्योहार देशभर में झमकने लगे थे। बिहार में छठ पूजा युगों-युगों से होती थी। बिहारियों का कदम दिल्ली की ओर बढ़ रहा है। यहां भी छठ को झमकाना चाहिए। धीरे-धीरे बात जमने लगी। कुछ संगठन इसके लिए काम करने लगे। उन्होंने घाट की सफाई, डगरा, सूप, दौरा सहित बहुत-सा सामान दिल्ली मंगवाना शुरू किया। धीरे-धीरे दिल्ली, मुंबई, जहां-जहां बिहारी गए, वहां-वहां उन्होंने छठ पर्व को झमका दिया। इससे अन्य राज्यों के लोगों को भी सूर्य पूजा की जानकरी हो गई।

दो महीने पहले मैं गोवा आई। पता चला कि यहां भी बिहार के लोग कम नहीं हैं। गोवा में कुछ लोग मिलने आए। वे छठ के लिए बिहार नहीं जाते हैं। पूछने पर पता चला कि कुछ लोग सागर बीच पर और कुछ लोग नदी में भी व्रत करते हैं। गोवा के राजभवन के किनारे खड़ी होकर प्रतिदिन मैं सूरज को समुद्र में डूबते देखती हूं। समुद्र और सूरज का गहरा संबंध है। मिथक कथा के अनुसार सूर्यवंशी सगर के सौ पुत्रों ने सागर की खुदाई की थी। त्रेता युग में सूर्यवंशी राम ने लंका जाने के लिए पुल बनाते समय जब सागर को ललकारा था- विनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब भय बिनु होई न प्रीति॥ सागर प्रकट हुआ। राम को उनका वंशज होने का स्मरण ही नहीं दिलाया, पुल बनाने का गुर भी बताया। सागर सामने पसरा है। उसे देखकर मन में यह विचार आता है कि कठौता भर ही जल क्यों न हो, जल में खड़े होकर ही सूर्य की पूजा करने का विधान स्मरण दिलाता है कि सूर्य और जल का अटूट रिश्ता है। इस बार गोवा में ही छठ मनाने का निश्चय किया। शाम और सुबह भी घाट पर जाऊंगी। दादी ने ढेर सारे गीत सिखाए थे। अब तक उन्हीं के लहजे में गुनगुनाती और गाती हूं। इस बार गोवा के घाट पर भी गाऊंगी। कितने अर्थवान हैं ये गीत। व्रती महिलाएं सूर्य से वार्तालाप करती हैं। सूर्य उनकी मांगपत्र को सुनकर प्रमाणपत्र देते हैं- एहो जे तिरिया सभे गुण आगर, सबकुछ मांगे समतुल हे। एक गीत में व्रती महिला के मांगने पर सूर्य भगवान उसे पुत्र देते हैं। परंतु आगाह करते हैं- देवे के त देलिअउगे बांझिन, गरव जनि बोल, गरव से बोलवे गे बांझिन, उहो लेबो छीन। गीतों में बेटी भी मांगी जाती है। छठ के समय स्वच्छता और पवित्रता पर विशेष ध्यान दिया जाता है। काश! हम उस स्वच्छता और पवित्रता को अपने जीवन का अभ्यास और संबल बना लेते।नदी, तालाब, कुआं और आंगन में छठ पूजा देखी थी। अब देखती हूं, समुद्र में छठ पूजा का कैसा आनंद आता है। आस्था कितनी गहराती है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

~ 28 अक्टूबर , 2014

सोच …फुर्सत में अवश्य पढ़ें

लिखने से पहले ..मै यह मान के चल रहा हूँ …मेरी तरह आप भी किसी स्कूल – कॉलेज में पढ़े होंगे – जैसी आपकी चाह और मेरिट या परिस्थिती ! अब जरा अपने उस ‘क्लास रूम’ को याद कीजिए – चालीस से लेकर सौ तक का झुण्ड – कुछ सीनियर / जूनियर को भी याद कर लीजिये ! “एक क्लासरूम में लगभग एक ही मेरिट के विद्यार्थी – पर सबका मकसद अलग अलग ..:)) “
किसी को पढने में मन लगता है तो वह अपने मन लगाने के लिए पढ़ रहा है – किसी के खानदान में सभी पढ़े लिखे हैं – इसलिए वो पढने आ गया – नहीं पढ़ेगा तो लोग क्या कहेंगे – किसी को पढ़ लिख के नौकरी पकड़ना है – इसलिए वो पढ़ रहा है – कोई अपने परिवार का प्रथम जो ग्रेज्युएट होने जा रहा – इसलिए वो भी है – किसी को टॉप करना है तो वो प्रथम बेंच पर बैठा हुआ है – कोई ज्ञान के लिए पढ़ रहा है – भले पास करे या फेल -कोई मेरी तरह भी-नहीं पढ़ेगा तो बढ़िया कुल खानदान में बियाह नहीं होगा टाईप 😂
मेरिट एक – वातावरण एक – बस मकसद / सोच अलग अलग – पुरी ज़िंदगी की दिशा और दशा ही बदल गयी – वही पढ़ाई पढ़ के कोई कम्युनिस्ट का नेता बन गया तो कोई टाटा संस में वाईस प्रेसिडेंट ( विनोद मिश्र और गोपालकृष्णन दोनों आईआईटी – खड़गपुर से सत्तर के दसक में साथ साथ पढ़े ) ! कई बार वो मकसद / सोच जिन्दगी के बीच राह में बदल भी जाती है ! एक बहुत ही करीबी मित्र से यूँ ही गप्प हो रही थी – बहुत ही बढ़िया कूल खानदान का और विश्वस्तरीय स्कूल कॉलेज से पढ़ाई – कहने लगा ‘शौक’ के लिए पढ़ा – पढ़ते वक़्त कभी लगा ही नहीं – पैसा भी कमाना लक्ष्य है – जिस प्रथम दिन नौकरी के लिए जाना था – बाथरूम में फूट – फूट कर रोया !
अपने जीवन की एक छोटे हिस्से की बात बताता हूँ – बंगलौर में नौकरी करता था – यह पता था – आज नहीं तो कल वापस लौटना है – और जब लौटना ही है – फिर क्यों न वह ज़िंदगी जी लो – जो शायद पटना में नहीं मिले – सुबह कंपनी – दोपहर कर्नाटका सेक्रेटेरियेट में भोजन – शाम एमजी रोड – और वीकएंड सुबह इंडियन कॉफ़ी हॉउस में डोसा ..जी भर जिया …आज से 18-19 साल पहले – जितनी मेरी क्षमता उससे बड़ी ज़िंदगी मैंने जी – उस हद तक जी की अब कोई प्यास नहीं ! मकसद ही अलग था ! दिल्ली गया – पिता जी का दबाब – फिर से नौकरी करो – जब वहां गया – एक ही महिना में खुद के लिए फ़्लैट खोजने लगा – बीआईटी – मेसरा की बढ़िया नौकरी छोड़ दी – लगा वापस रांची चला गया – दिल्ली या आसपास अपना फ़्लैट नहीं हो पायेगा – चाईल्ड साइकोलोजी – बड़े लोगों का महानगर में अपना फ़्लैट होता है ! जिस साल रजिस्ट्री करवाया – दिल्ली से आधा मोहभंग – और जिस दिन लोन चुकता किया – पूरा मोहभंग – मकसद ही अलग था – कभी किसी को यह नहीं बताया – मै नॉएडा के एक बेहतरीन कॉलेज में प्रोफ़ेसर हूँ – मकसद प्रोफ़ेसर बनना था ही नहीं !
कौन गलत है और कौन सही है – कहना मुश्किल है ! दरअसल हम इतनी छोटी दुनिया से आते हैं और अपने हाथ में एक सामाजिक स्केल लेकर बैठ जाते हैं और उसी स्केल से हर किसी को नापने लगते हैं ..
उसी पद पर बैठ – लालू / राबडी ने सामाजिक न्याय का रथ चलाया – उसी पद पर बैठ नितीश विकास की बात सोचे – उसी पद पर बैठ वर्तमान मुख्यमंत्री अलग बात कह रहे हैं – सबका मकसद अलग अलग – कल कोई और आएगा – उसका मकसद अलग होगा !
और यह मकसद – उसके आंतरिक व्यक्तित्व से निकलता है …:))

मुझे ऐसा लगता है – ज़िंदगी या किसी भी अन्य चीज़ के लिए ‘सोच’ के तीन आधार है – १) ईश्वरीय देन २) परिवेश / खून ३) वर्तमान – अब इन तीनो में जो कुछ आपके उस सोच पर हावी होगा – वैसे ही आपके एक्शन या प्लान होंगे !
यह ईश्वरीय देन है जिसके कारण एक ही परिवेश / एक ही कोख से जन्मे / एक ही वर्तमान में जी रहे
दो लोग ज़िंदगी के प्रती अलग अलग सोच रखते हैं या अपना मकसद बनाते हैं ! हर एक इंसान को ईश्वर एक अलग सोच देकर इस धरती पर भेजता है ! उस सोच को आप बदल नहीं सकते – अगर आपको लगता है – आपकी कोई एक ख़ास सोच गलत है – फिर उसको बदलने के लिए बहुत ही कठोर साधना की जरुरत होती है – जिसे हम मन का निर्मलता भी कह सकते हैं ! जैसे अलग अलग जानवर अपनी अलग अलग विशेषता के लिए जाने जाते हैं – ठीक वैसे ही इंसान भी है – अब ईश्वर ने आपकी सोच भेड़िया वाला बना के भेजा है फिर आप शेर की तरह वर्ताव नहीं कर सकते – ईश्वर ने आपका दिल चूहा वाला दिया है – फिर आप हमेशा एक डर में जियेंगे – यह कोई समाज या परिवेश नहीं बदल सकता है – यह इंसान अपनी असीम ‘विल पावर’ से बदल सकता है – इसी तरह सकरात्मक सोच भी होते हैं – जिसका फायदा इंसान अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक उठाता है !
दूसरा महत्वपूर्ण है – परिवेश – आप किस परिवेश में पले बढे हैं – मेरी बड़ी दादी कहती हैं – आदमी कहीं भी चला जाए – जहाँ का जन्मा होता है वह उसके साथ हमेशा रहता है ! मेरे एक दोस्त है – काफी वर्षों से बाहर ही सेटल है – बचपन का नहीं पर बचपन जैसा ही है – जब कभी पटना आएगा – मै फोन करूंगा – मुलाक़ात होगी ? उधर से जबाब – गाँव जा रहा हूँ – बेटी को बकरी / देसी गाय का दर्शन करवाना है – उसके पिता भी भारत सरकार से रिटायर है – किताबों के जबरदस्त शौक़ीन – घर में ट्रंक के ट्रंक किताब – एक दिन पूछा – तुम्हारे ..पापा का क्या हाल है …दोस्त का जबाब आया …गाँव गए हुए हैं ..तोडी / सरसों तुडवाने …:)) अब सोचिये …एक इंसान प्रिंस स्टाईल जीवन …खेतों में घुसा हुआ – यह परिवेश ..खून का असर है …मै जिस समाज से आता हूँ – वहां का लड़का हारवार्ड में भी टॉप करके – अगर बिहार आया तो वो एक नज़र अपने खेतों को जरुर देखना चाहेगा – अगर नहीं देख पाया तो उसका हिसाब किताब जरुर लेना चाहेगा …:))
जीवन के सोच को लेकर – परिवेश का बहुत महत्व है – कई बार मै उस तरह के इंसान से बहुत नजदीक हो जाता हूँ – जिसका परिवेश / लालन पालन मुझ जैसा हुआ हो – जिसको हम ‘बेसिक क्लास’ कहते हैं – आप कहीं भी चले जाएँ – आपका बेसिक क्लास क्या है – वही क्लास आपके संबंधों को मधुर या ज़िंदा रखेगा और इस बेसिक क्लास का आपके वर्तमान वैभव से / वर्तमान कठिनाई इत्यादी से कुछ नहीं लेना देना होता है !
एक और अनालौजी देना चाहूंगा – मै जब नॉएडा में पढ़ाने लगा तो देखा एक क्लास में तीन तरह के विद्यार्थी हैं – प्रथम जो दिल्ली या आस पास के हैं – दूसरी या तीसरी पीढी दिल्ली में सेटल है – दुसरे लखनऊ या आस पास बड़े शहर से हैं और तीसरे जो पूर्वी हैं ! अब तीनो ग्रुप एक ही क्लास – एक ही शिक्षक – एक ही सिलेबस – पर तीनो ग्रुप का जीवन के लिए अलग अलग गोल ! पहला ग्रुप – सेकेण्ड ईयर से ही अमरीका / यूरोप के बेहतरीन कॉलेज में पीजी में एडमिशन के लिए तैयारी – लखनऊ या आस पास बड़े शहर वाले – किसी मल्टीनेशनल में किसी तरह से नौकरी हो जाए – मिल गया – शर्ट का दो बटन खोल कैपस में घूम रहा ! तीसरा पूर्वी वाला – पब्लिक सेक्टर / सरकारी नौकरी के लिए बेचैन – हर बार समझाया – यार ..मेरिट है …फुल स्कॉलरशिप मिल जायेगी – जीआरआई दो – अब वो ऐसे परिवेश से आते थे – उनकी हिम्मत नहीं हो पाती – अब अगर उनको कैम्पस में किसी मल्टीनेशनल में नौकरी मिल गयी – वो उदास है – क्यों भाई ..क्यों उदास हो …पिता जी को क्या बोलेंगे …नौकरी सरकारी थोड़े न है …हा हा हा हां ….:))
आपका परिवेश …आपका जड़ ..आपकी सोच को किस हद तक प्रभावित करता है …कभी सोचियेगा .:)

मैंने बहुत पहले दालान ब्लॉग पर लिखा था – आखिर वो कैसी घड़ी रही होगी – जब एक बैरिस्टर ‘मोहन दास करम चंद् गांधी’ को “महात्मा गांधी” बनने को मजबूर किया ! ट्रेन से सामान फेंकने की घटना तो न जाने कितने और अश्वेत के साथ भी हुई होगी – पर सब के सब तो महात्मा गांधी नहीं बन पाए !
वाल्मीकि / गौतम बुद्ध / गैलेलियो / अरिस्टो / प्लेटो / महात्मा गांधी और वो सभी जो काल की सीमा तोड़ अपनी पहचान बना सके – सबके के उस वर्तमान जीवन में कोई न कोई ऐसी घटना जरुर हुई जो उनकी पुरी दिशा बदल दी ! पर असल सवाल यह उठता है – ऐसी घटना तो बहुतों के जीवन में भी होता आया होगा या है – सब तो वो नहीं बन पाते !
अब अगर मै एक आधी रात उठ – सत्य की तलाश में – घर छोड़ निकल जाऊं – क्या मै भी गौतम बुद्ध बन सकता हूँ ? …:)) क्या मै भी हजारों साल तक ज़िंदा रह सकता हूँ ?…:))
फिर वो क्या चीज़ है ..जो इनको महान बनाया ! इस बात पर एक मित्र से बात किया – उसने कहा जो मेरा भी मानना है – जिज्ञासा ! आपके अन्दर कितनी जिज्ञासा है और वो कैसी जिज्ञासा है ! सेब तो किसी के भी माथे पर गिर सकता है – पर वो सेब नीचे ही क्यों गिरा – यह एक जिज्ञासा न्यूटन को अमर कर दिया ! ट्रेन से सामान कितनो का फेंका गया – पर ऐसा क्यों – महात्मा गांधी बना दिया ! हर कोई पाप करता है – अपने परिवार के भरण पोषण के लिए – कोई अंगुलीमाल डाकू से ऋषी नहीं बन पाया !
कोई एक घटना – मामूली ही – इतने जोर से अन्दर धक्का देती है – जैसे ज्ञान का फव्वारा खुल पड़ता है – पर याद रहे – जैसे – एक बंद पाईप से पानी बह रहा है – और आप उस पाईप को कहीं से छेद कर दे या काट दें – फव्वारा वहीँ से खुल जाएगा – शर्त है …उस पाईप के अन्दर पानी बहता होना चाहिए …..:))
हाँ …जिसके अन्दर वो जिज्ञासा शुरू से होती है …उसी को कोई घटना …उसकी समझ खोल सकती है …अगर जिज्ञासा नहीं है …फिर बड़ी से बड़ी घटना भी जीवन के छोटे से रहस्य को खोल नहीं सकती …
थैंक्स ….:)))
~ रंजन ऋतुराज / 3,4,5 नवम्बर 2014

रंजन ऋतुराज / नवंबर , 2016

गुलज़ार से मुलाकात : छह साल पहले …2014 में

पटना लिट्रेचर फेस्टिवल -2014

कल्पनाओं के शिखर पर एक अबोध तमन्ना बैठी होती है – उसकी अबोधता को देख ईश्वर उसे अपने गोद में बैठाते हैं – फिर वो तमन्ना एक दिन हकीकत बन बैठती है…:))


आज का दिन बेहतरीन रहा – कल देर रात तक जागने के बाद – सुबह नींद ही खुली ‘रविश’ की आवाज़ से – नहाते धोते …थोड़ी देर हो ही गयी ..झटपट भागा …रविश स्टेज पर बैठे थे ..वहीं से हाथ हिलाया ..मै भी सबसे पिछली कतार में बैठ गया …तब तक एक आवाज़ आयी “आप दालान वाले हैं ..न ” – एक तस्वीर खिंचवानी है आपके साथ …ये थे आभाश भूषण – दालान को चाहने वाले …फिर वो दोनों पति पत्नी मेरे साथ फोटो खिंचवाए – बेहद सज्जन और उन्दोनो ने बताया – दालान पर दी गयी सुचना कारण ही वो दोनों यहाँ आये ..:))
रविश का सत्र ख़त्म होने के साथ – उनका दूसरा सत्र शुरू होने वाला था – इसमे कोई दो राय नहीं – रविश काफी लोकप्रिय हैं – कई नौजवान उनके साथ फोटो खिंचवाने को बेताब थे – मेरी वेश भूषा देख – उनके प्रशंसक भी “दालान” वाले समझ गए ..:)) बढ़िया लगा …
रविश के दुसरे सत्र के ठीक पहले आये – “गुलज़ार” ..झटपट भागा – दोनों हाथ से उनके पैर छू कर आशीर्वाद लिया – आभास भूषण समझ गए – उन्होंने बाद में गुलज़ार के साथ मेरी कुछ तस्वीरें लीं ..गुलज़ार के साथ थे – ओम थानवी जी – मै क्या बोलता – भाव विभोर था – बस एक लाईन सुना पाया – “सारी रात मेरे शब्द जलते रहे – वो पत्थर से मोम बनते रहे..:)) गुलज़ार के ठीक पीछे बैठ – रविश का दूसरा सत्र – जिसके वो बादशाह जाने जाते हैं – नोस्टैल्जिया ..मेरा भी पसंदीदा …उनके साथ थे – अंग्रेज़ी और डेनिश के लेखक – “तबिश खैर” – ताबिश सभी भाषा प्रयोग कर रहे थे – रविश अपनी हिंदी और भोजपुरी …रविश बोलते बोलते – “छठ पूजा की यादों” पर बोलना शुरू कर दिए – डर था – कहीं फिर से वो मेरा नाम न बोल बैठें ..:)) रविश संभले – शुक्रगुज़ार रहता हूँ – हर ऐसे समाचार पत्र के लेख में वो मेरा नाम ठूंस ही देते हैं …
रविश को लोग घेरे हुए थे – मैंने बोला – रविश ..मैंने पटना म्यूजियम नहीं देखा है …और आज आप मेरे गाईड बन के ..मुझे घुमाएं ..:) रविश तैयार हुए ..हम दोनों अकेले निकल पड़े …घूम कर लौटे तो …पवन कार्टूनिस्ट और उनकी पत्नी रश्मी दोनों रविश को अपने कार्टून का एक बेहद बढ़िया गिफ्ट …इसी बीच ..टेलेग्राफ़ के रोविंग एडिटर ‘संकर्षण ठाकुर’ मिल गए – बोले ..रंजन ..मेरी भी किताब का आज लोकार्पण है – आप आईये – संकर्षण बेहद आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक हैं – अपने साथ वालों से परिचय कराने लगे – रंजन को पढने से ज्यादा सुनने में मजा आता है …:))
फिर हम और रविश संकर्षण ठाकुर के किताब जो नितीश कुमार के ऊपर छपी है …के लोकार्पण में चले गए – ढेर सारी गप्प – व्यक्तिगत बातें …वहां से निकले तो …रविश के साथ पटना का सैर …फिलोसोफी …फिलोसोफी और फिलोसोफी …ढेर सारी गाईडलाईन …दोनों तरफ से …:))
रविश …तुम बेहद इज्ज़त करते हो …आज भी याद है ..माँ के देहांत के बाद इंदिरापुरम पहुँचने के बाद …पिछले साल …तुम सबसे पहले मिलने आये थे …कोई शक नहीं हिंदी न्यूज के बेताज बादशाह हो ..तुम पर ईश्वर का आशीर्वाद बना रहे …अहंकार तुमसे कोसों दूर रहे …और मेरा नाम तुम्हारे जुबान पर नहीं आये …:))

~ रंजन / 15.02.14