” सरौता कहां भूल आए …प्यारे नंदोइया “
~ पद्म विभूषण गायिका स्व गिरिजा देवी जब इस गीत को बेहद सलीके अंदाज़ से गाती थी ,समा बन्ध जाता था :))
हम शायद उस पीढ़ी से आते हैं , जहां बचपन कि स्मृतियों में सरौता बसा हुआ है । पुरुष के महिन चाल चलन का यह भी एक परिचायक होता था कि वो कितनी महिनी से अपने सरौता से सुपारी काटता है । बाएं हाथ में सुपारी और दाहिने हाथ में सरौता । बेहतरीन सफेद धोती और मलमल का कुर्ता । मुख में पान , लाल होटों से रिसता पान का पिक । शीशम के बड़े कुर्सी पर बैठा ।
बाबा के पास हर तरह का सरौता होता था । छोटा वाला पॉकेट में । एक दादी ( दीदी ) के दराज में । एक दो इधर उधर । खानदान की परम्परा – सरौता से सुपारी काटना पहले सीखो :)) उस सरौता से उस बचपन में सुपारी काटते वक्त जो एहसास होता था , वह सचमुच में सुखद होता था ।
एक बहुत गलत परम्परा भी थी – दरवाजे पर इस जाड़े बड़े बुजुर्ग जब अपने अपने शाल को ओढ़ … दे गप्प …दे गप्प करते थे । इसी बीच हम बच्चों को ऑर्डर होता था – जाओ आंगन से पान बना कर लाओ । लोग अन्य धूम्र पान में बड़े बुजुर्ग का लिहाज करते थे लेकिन पान के मामले में ऐसा कुछ नहीं था । दरवाजे पर बैठे बाबा , चाचा सभी एक साथ पान की फरमाइश कर देते थे । किसी को पीला पत्ती तो किसी को काला किसी को काला – पीला दोनों । यहां काला मतलब – लखनउ वाला पंजुम और पीला मतलब मुजफ्फरपुर का रत्ना छाप 300 . पान बनाते वक़्त चुना और कत्था का सही मिश्रण । वक़्त लगा था – कई फटकार के बाद सीखने में । हर एक कुर्सी के बगल में , पीतल का दो फीट ऊंचा पीकदान । नक्काशी किया हुआ ।
घर की महिलाएं भी पान खाती थी । पुरुषों के जरदा खत्म हो जाने पर , महिलाओं से जर्दा मांगा जाता था ।
पन्हेरी टोला था । वहां से एक बुजुर्ग हर सुबह बाबा के पान वाली डलीया में पान रख जाते थे । पुराने सड़े पान फेंक दिया जाता था । हर सुबह का रिवाज ।
तीसरी कसम का एक गीत है – पान खाए सैयां हमारो …मलमल के कुर्ते पर छींट लाल लाल …तब शायद यही गीत पुरुष का परिचायक होता था । अब तो सीधे वोदका और मालूम नहीं क्या लिखा जाता है ।
कहते हैं – जब तक राजकपूर जिंदा होते थे और उनके पार्टी के अंतिम पेशकश ” मगही पान ” होता था :))
खैर , बात सरौता से शुरू होकर कहां आ गई और आप भी पूरा पढ़ लिए ।
” पान खाए सैयां हमारो …मलमल के कुर्ते पर छींट लाल लाल ” 🙂
है न बढ़िया गीत …
~ रंजन / दालान / 09.12.2019