अमिताभ बच्चन 💕

वहमों गुमान से दूर दूर…यकीन के हद के पास पास ,
दिल को भरम ये हो गया…कि उनको हम से प्यार है…☺️
~ और आज आप अपने जीवन के 82 वसंत पार किए ❤️
यंग एंग्री मैन की छवि के अलावा , 70 और 80 के दसक में , अमिताभ एक बेहतरीन रोमांटिक छवि भी रखे । फिल्म कभी कभी में जब वो राखी के गोद में सर रखते हैं और राखी उनके चेहरे को अपने बालों से ढक लेती हैं या ऐसा ही कुछ एक दृश्य फिल्म सिलसिला का, जब नीला आसमान गीत के सीन में रेखा अमिताभ के क्लीन शेव गालों पर अपनी उल्टी हाथ फेरती हैं 😊 खैर , जावेद अख्तर साहेब का लिखा गीत जो शायद मैं 1000 बार अपने स्वर में भी बोल चुका हूं , बेहद नही अति पसंद ।
‘ ये रात है या, तुम्हारी जुल्फे खुली हुई है
है चांदनी या तुम्हारी नज़रों से मेरी राते धुली हुई है
ये चाँद है, या तुम्हारा कंगन
सितारें है, या तुम्हारा आँचल
हवा का झोंका है, या तुम्हारे बदन की खुशबू
ये पत्तियों की है सरसराहट, के तुम ने चुपके से कुछ कहा है’
~ शुभकामनाएं 💕
: रंजन , दालान

विदाई : रतन टाटा

रतन टाटा

बड़पन्नता 🙏 सरलता
~ बात दस साल पहले की होगी , बात बड़पन्नता और सरलता की हो रही थी तो पंकजा ठाकुर ( 95 बैच आईआरएस ) , पूर्व सीईओ , सेंसर बोर्ड ने कहा की बॉम्बे में किसी मीटिंग में रतन टाटा के साथ भेंट मुलाकात और लंच का प्रोग्राम था . लंच के बाद आदतन पंकजा अपना लेडीज पर्स / टोट बैग वहीं छोड़ अपने कार के तरफ़ बढ़ गई तो रतन टाटा उस बैग को लेकर पंकजा तक आ गए : ‘आपका बैग वहीं छूट गया था’

: शायद पंकजा ठाकुर थैंक्स भी नहीं बोल पाई . पिता से भी 10 साल बड़े , भारत ही नहीं विश्व के सबसे प्रतिष्ठित कॉरपोरेट. धन और फ़िलन्थ्रॉपी की बात ही मत पूछिए .
~ इंसान अचानक से इतने बड़े व्यक्तित्व के सरलता और बडपन्नता से इतना चकित हो जाता है की उसके मन की बात मुँह पर आ कर अटक जाती है . पंकजा आगे कहती हैं की उस पल भर की घटना ने उनके मन और आचरण को प्रभावित नहीं किया बल्कि एक बदलाव भी दिया 🙏

अभी सुहेल सेठ का एक इंटरव्यू देख रहा था . ब्रिटिश राज घराना रतन टाटा को पुरस्कार देने वाला था . सुहेल लंदन पंहुचे तो बॉम्बे से रतन टाटा का 11 मिस कॉल . सुहेल वापस रिंग बैक किए तो पता चला की करुणा से भरपूर रतन टाटा अपने पेट डॉग के बीमार होने से ब्रिटिश राजघराना पुरस्कार लेने नहीं जा रहे . प्रिंस चार्ल्स मुस्कुरा दिए : यही करुणा टाटा की पहचान है 😊

सन 2013 में जेएसएस , नोएडा त्यागने के बाद , मैंने प्रण लिया था की अब कोई नौकरी नहीं . लेकिन जब टाटा ब्रांड से प्रस्ताव आया तो ठीक एक महीना सोचने विचारने के बाद , प्रण टूट गया .
~ जो आपके प्रण को तुड़वा दे : वही ब्रांड , वही इंसान , वही भाव महान 🙏

सर , विदाई हो तो ऐसी 🙏 कल रात वाट्स एप स्टेटस पर देखा तो महज पाँच मिनट में सिर्फ़ और सिर्फ़ आप ही थे .
~ हर भारतीय की आत्मा आपके अंतिम विदाई में आपके साथ है . एक साथ अरबों लोगों के हाथ उठे और सर झुके हैं .
: सच में , विदाई हो तो ऐसी हो 🙏

: रंजन , दालान

शिक्षक दिवस

शिक्षक 🙏

~ मैंने जीवन में अनेकों काम किए . कुछ ग्रह दशा और कुछ चित चंचल 😊

लेकिन बतौर शिक्षक आत्मा को जो संतुष्टि मिली , वह कहीं नहीं मिली . क़रीब 15+ साल जीवन का एक सक्रिय शिक्षक के रूप में रहा .

मैट्रिक के बाद से स्नातक तक काफ़ी ख़राब परफॉरमेंस वाला विद्यार्थी रहा तो स्वयं को कभी बढ़िया शिक्षक नसीब नहीं हुआ . यह कसक मन में रही . जिसका रिजल्ट हुआ कि डायस पर अगर विद्यार्थी सजग रहे और ख़ुद का लेक्चर तैयार है तो हम उस वक़्त ख़ुद को दुनिया का सबसे बढ़िया शिक्षक मानते रहे थे 😀

~ मैंने मुख्यतः तीन विषय पढ़ाए : प्रोग्रामिंग , प्रोजेक्ट मैनेजमेंट और कॉरपोरेट स्ट्रेटेजी . सौभाग्य रहा कि इंजीनियरिंग के विद्यार्थी को मैनेजमेंट का ज्ञान देने का मौक़ा मिला और दुर्भाग्य रहा कि आधे सेमेस्टर के बाद ये विद्यार्थी मैनेजमेंट के विषय में रुचि खो बैठते थे 😐

~ स्नातक स्तर पर इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन की पढ़ाई की . बेसिक प्रोग्रामिंग के बाद कुछ नहीं आता था लेकिन मैंने स्वयं किताब से पढ़ कर सी लैंग्वेज सीखी , सी++ भी . और उसका नतीजा हुआ कि मेसरा में पीजी करते वक़्त ऑब्जेक्ट ओरिएंटेड टेक्नोलॉजी की मैडम अपने केबिन में बुला कर बोली : काश , हम आपको एक्सीलेंट दे सकते लेकिन मेसरा में इसकी इजाज़त नहीं है . आज भी उनके शब्द आँखों में तैर रहे हैं 😊

इसी मौसम सन 2012 की बात है . मैं बीटेक प्रथम वर्ष को सी प्रोग्रामिंग पढ़ा रहा था . तेज बारिश और पिन ड्राप साइलेंस . मैं पॉइंटर इन सी पढ़ा रहा था . पॉडियम पर ब्लैकबेरी रखा हुआ . जस्ट प्लस टू पास किए विद्यार्थियों की सारी चंचलता ग़ायब . मेरा 14 वर्ष का अनुभव . हाथ चाक से सफ़ेद , एक हाथ डस्टर . चाक गाढ़े रंग के ट्राउज़र को आधे सफ़ेद कर चुके . विद्यार्थियों का एक लगातार 50 मिनट पिन ड्राप साइलेंस हाथों के रोंगटे खड़े कर दिये 😊

~ और जीवन में ऐसे कई मौक़े आये लेकिन कब आये ? जब स्वयं का लेक्चर ज़बरदस्त प्रीपेयर हो , आपके अंदर ज्ञान को सरल और तरल कर के प्रवाह की क्षमता हो फिर पिन ड्राप साइलेंस होना तय है 😊

: टाटा जॉइन किया तो भारतवर्ष की एक अत्यंत खूबसूरत महिला पत्रकार नोएडा में स्वयं कॉफ़ी पर आमंत्रित की . अत्यंत खूबसूरत , वैजयन्ती माला जैसी लेकिन जेनिफ़र लोपेज़ 😊 कॉफ़ी मग को दोनों हाथ से पकड़ तीखे नज़र से टोंट कसी : लोग जवानी में कॉरपोरेट और 40 बाद प्रोफ़ेसर बनते हैं , लेकिन आपका उल्टा ही है 😀

हमने कहा की लगता है आपको जवान प्रोफ़ेसर से मुलाक़ात नहीं हुई है . वरना फ़ेयरवेल के रात , अंतिम वर्ष के विद्यार्थी कॉलेज पार्किंग में आपको देख सिटी बजाती है , वह एक अलग आनंद है 😊 बतौर शिक्षक कुछ ऐसे भी अनुभव होते हैं 😀

~ आईआईएम , आईआईटी , मेसरा , मैसूर , पटना के तमाम शिक्षकों इत्यादि का विद्यार्थी रहा लेकिन स्वयं का सहकर्मी रिंकज गोयल से बढ़िया शिक्षक कभी नहीं मिला . कॉलेज शुरू होने के आधे घंटे पहले आ जाना , पहला लेक्चर रिंकज़ का . पागल की तरह लड़के आधी नींद में सुबह सुबह उसके क्लास में . कभी इंटरनल परीक्षा का कॉपी चेक नहीं करना और विद्यार्थी थर्र थर् काँप रहे जबकि वो कभी किसी को फेल नहीं किया 😊 “रिंकज शिक्षक नहीं , आतंकवादी है “ : बेंच पर ऐसा लिखा भी मैंने पाया 🤣 सन 2005 में वो दूसरा यूनिवर्सिटी जॉइन कर लिया . कानपुर का रहने वाला , हमको दादा कहता था और कॉलेज के बाहर पैर छू के प्रणाम 😀

सन 2002 में , पहली बार जब जेएसएस नोएडा में पढ़ाया तो एक लेक्चर की तैयारी में तीन घंटा लगाया करता था . स्वाभाविक है कि लेक्चर बेहतरीन होगा . कोई बिहारी लड़का मेरा नाम ही बदल दिया : की रंजन सर रंजन झा हैं 😀 इतना ज्ञान झा जी लोग के ही पास होता है 🤣

~ प्रोफ़ेशन की ऊब , लेक्चर का तैयार नहीं होना , मेट्रो शहर में और ज़्यादा पैसा कमाने का दबाव इत्यादि आपको एक रोज़ बढ़िया शिक्षक से बकवास शिक्षक भी बना देती है . यह ट्रैप है . इससे बचना चाहिए वरना आगे गड्ढा है : जिसमें आप मेरी तरह गिर भी सकते हैं 😐

~ जीवन में एक बार शिक्षक का काम अवश्य करना चाहिए . डायस पर खड़ा होकर एक साथ 60/90/120 विद्यार्थी को कमांड करना पड़े तो सब स्मार्टनेस ग़ायब हो जाती है 🤣

रंजन ऋतुराज , दालान

मुझे अपने जीवन में स्वयं के ज्ञान या बुद्धिमत्ता से कहीं ज़्यादा तेज तरार और बेहतरीन विद्यार्थी मिले . आप सभी का शुक्रिया 😊

घड़ी ….

अविनाश / ब्लैक डायल

बहुत दिनों तक हाथ में घड़ी पहन सोने की आदत बनी रही – इस बीच कई बार घड़ी स्लो हो जाती और देर से नींद खुलती – बहुत अफ़सोस और कुछ खोया खोया सा महसूस होता था – अब इस ग्लानी से ऊपर उठ चूका हूँ – लगता है – पाया ही क्या हूँ जो खोने का गम रखूं !
करीब पचीस साल पहले – अपनी पहली घड़ी खरीदी थी – बाबु जी पैसे दिए थे – साइकिल से हांफते हुए – एक दम से – पटना के हथुआ बाज़ार पहुँच गया था – अकेले ! बाबु जी हिदायत दिए थे – ‘एच एम टी ‘ का ‘जनता’ खरीदना – सफ़ेद डायल वाला ! मुझे वो पसंद नहीं पड़ा – अविनाश ले लिया काला डायल वाला ! एक बार वो चोरी भी हो गया – घर में जो पोचारा ( रंग ) करने आया था – उसी ने चोरी कर लिया – फिर दो चार हाथ दिए तो पायजामा से निकल के टेबुल पर रख दिया !
घर में एक परंपरा थी – ऐसी प्रथम घड़ी पुरुष या महिला अपनी शादी के वक्त छोटों को दे देते थे – बाबू जी भी अपनी घड़ी छोटे चाचा को दिए थे – ‘जनता’ ! पर चाचा अपनी शादी के वक्त अपनी पुरानी घड़ी मुझे नहीं दिए – परंपरा टूट गयी !
प्लस टू के बाद चाचा कुछ पैसे दिए – बस पकड़ बीरगंज ( नेपाल ) पहुँच गया – भर दम शौपिंग किया – एक और घड़ी ले लिया – उसके अंदर ‘लाल दिल’ बना हुआ था – क्वार्ट्ज़ घड़ी – बाबु जी बहुत गुस्साए – बोले – ‘छुछुन्दर’ जैसा लग रहा है – पर हम छुपा लिए – कॉलेज में कुछ ही दिन पहने – जिस दिन मुझे लगा – सचमुच में छुछुन्दर जैसा लग रहा है – होस्टल के मेस वाले को दे दिए – फेंकने में दर्द हो रहा था ! चावी वाला ‘अविनाश’ हाथ में बंधा रहा !
शादी के बाद गोल्डन टाइटन मिला – पहला दिन से ही पसंद नहीं आया – मौका के तलाश में था – पत्नी ने एक बार कुछ तीखा बोला – हम एक पल बिना गवाएं -ससुराली घड़ी सीधे खिडकी से बाहर वाले गड्ढे में – जाओ ..अब ऐश करो !
अब सस्ते घड़ी पहनने लगा – सौ रुपैये वाले – डेढ़ सौ रुपैये वाले – कई लोग टोके – कोई फर्क नहीं – एक मित्रवत शिक्षक और मेरे विद्यार्थी ‘हज’ करने गए तो एक महंगी घड़ी लेकर आ गए – आदत नहीं थी – पापा को दे दिया और उनसे उनका बयालीस साल पुराना ऑटोमैटीक सीको ले लिया – अलमीरा में रखा हुआ है !
कुछ साल पहले सास इंदिरापुरम आयीं थीं – ससुराल से मिला घड़ी का पूछताछ चालू हुआ – फिर वो थोडा ताव में आ गयीं – एक काफी ज्यादा महंगी घड़ी खरीद दीं – कोई फायदा नहीं – वो भी आलमीरा में बंद है !
छोटी बहन की शादी के समय – मन था – अपने बहनोई को खूब बढ़िया घड़ी दूँ – मना कर दिए – अरमान अरमान ही रह गए और अब मै देने से रहा !
अब मोबाईल या टैबलेट या लैपटॉप पर ही समय देखने का आदत हो गया है – वो भी क्या दौर था – जब मै ‘अविनाश’ पहन के नहा भी लेता था – अंदर पानी चला जाता – फिर धुप में उसको सुखाओ :))
~ 27 August / 2012

दालान लिट्रेचर फेस्टिवल की कहानी

अंजू की गुड़िया : एक कहानी
गर्मियाँ आते ही, मैं और मेरे तमाम, हमउम्र भाई-बहन, टाइमपास के नये-नये तरीके ढूँढते ! उन्ही में से एक खेल होता गुड्डे-गुड़िया का ! सिर्फ़ एक घर नही, पूरा मोहल्ला ही बरामदे में बसा लेते हम ! जो बरामदे से निकलता, हाँक देता- “हटाओ ये टीम-टाम!” ! गर्मी की उन लंबी दोपहरियों में, बिना पंखे के, घंटों गुड्डे-गुड़ियां खेलते रहते ! गर्मी-सर्दी का एहसास बच्चों को नही, बड़ों को होता ह !| बचपन कहाँ सर्दी-गर्मी के एहसास का मोहताज होता है?
और हां, छोटा भाई बनता, गुड़िया का नौकर ! “जाओ जाके गुड़िया को घुमा के लाओ”- उससे जान बचाने के लिए हम कहते, पर वो महाशय यूँ गये और पलक झपकते ही वापिस हाजिर ! अंजू के गोरे गुलाबी गुड्डे की शादी, मेरी सफेद बालों वाली गुड़िया (या कहें बुढ़िया से!), सिर्फ़ एक शर्त पर होती, कि दहेज में मुझे अपनी गुड़िया की पुश्तैनी, कुंडे-लगी, मरून कपड़े से मॅढी, दिग्गज अटैची, और हरी साड़ी ज़रूर देनी पड़ती; वरना शादी कैंसेल !
अंजू गुडियों के मामले में मुझ से बहुत धनी थी ! शोभना दीदी गुड़िया बनाने की कला में माहिर थी, कपड़े की ऐसी जीवंत गुड़ियाँ बनती, कि बस प्राण फूकनें की कसर रह जाती ! कभी जार्जेट के सफेद दुपट्टे काट कर, तो कभी पुरानी सिल्क साड़ियों के बॉर्डर से तैय्यार की गईं गुडियों की वो साड़ियाँ, मन को लुभाती भी, और जलाती भी ! उन्ही में से एक थी, खूबसूरत पीली साड़ी ! जार्जेट के सफेद दुपट्टे को पीले रंग में रंग कर, ऊपर से लाल छीटें मार कर बनी वो साड़ी ! साड़ी क्या थी, आँखों की किरकिरी! कई बार अंजू की मनुहार करती, आपसी विनिमय से बात बनाने की कोशिश करती, कि किसी तरह वह साड़ी मुझे दे दे, मगर सब बेकार !
गाँव में भागवत होना तय हुआ था ! ताई के साथ, अंजू, प्रीति और मैं भी गाँव गई ! हम जब भी गाँव जाते, दो ही चीज़ों का सहारा होता- गुड्डे-गुड़ियाँ, और गाँव में रखी ढेरों पॉकेट बुक्स, जिसमें होती राजा-रानी, और परियों की मन को बाँध लेने वाली कहानियाँ !
सावन का महीना था, भागवत की आरती के बोल, सुबह-शाम माहौल को गुंजायमान करते, पर मेरा मन आरती में नही, गुड़िया की उस साड़ी के पल्लू में बँधा पड़ा रहत|!| देखते ही देखते, हफ़्ता निकल गया; शाम को हम सब शहर वापिस आने वाले थे ! धीमी-धीमी पानी की फुहारें पड़ रहीं थी ! दोपहर में यूँ भी उस बड़ी दो-मंज़िली हवेली में, सूना हो जाया करता, नौकर-चाकर भी ना होते उस समय; अजीब-सा सन्नाटा तना रहता ! मैने चुपचाप गुड़िया के सामान से साड़ी निकाल ली थी, दबे पाँव सीढ़ी चढ़कर, गोल कमरे को पार कर, पीछे की बाउंड्री से झाँक कर देखा- गढ़ी चढ़ने का रास्ता साफ दिखाई दे रहा था ! मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा ! गला सूखने लगा ! पानी तेज हो गया था, मैनें देर नहीं की ! साड़ी को मुट्ठी में दबा कर, ज़ोर-से झटका दिया और नीचे फेक दिया ! ये क्या, वह तो झाड़ी में ही अटक गई थी ! गीले मन और आँखों से आखरी बार साड़ी को जी-भर के देखा ! झाड़ी के उपर खुल के बिखरी हुई कितनी सुंदर लग रही थी! चुप-चाप सीढ़ी से नीचे उतर आई थी मैं, पर अंजू को तो पता चलना ही था, सो चल गया ! बहुत ढूँढा, रोई भी बेचारी, मगर साड़ी होती तो मिलती? “जल्दी चलो! वापिस नही जाना क्या?” ताई चिल्ला रहीं थी, गाड़ी तैय्यार थी; अंजू को दिलासा दे कर, मैं तेज़ी से गोल कमरे की सीढ़ियाँ चढने लगी ! बाउंड्री से झाँक कर नीचे देखा, साड़ी अभी भी हवा में लहरा रही थी ! मगर यह क्या? रंग कहाँ गये इसके सारे? पानी से साड़ी बदरंग हो चुकी थी ! बरसात के पानी ने, ना लाल रंग को छोड़ा, ना पीले को ! गाड़ी में बैठ गई थी मैं- ना बरसात थमने का नाम ले रही थी, ना ही आँसू !


~ श्रीमती रत्ना सिंह , एमए ( अंग्रेज़ी साहित्य एवं साइकोलोजी ) , स्कूल एवं कॉलेज में पढ़ाने का अनुभव – दालान की प्रशंसक !


दालान लिटरेचर फेस्टिवल सावन – 2015 के दौरान प्रकाशित मौलिक कहानी ।

छाता …

आइये मेरे पटना में – बारिशों का मौसम है ..:)) जबरदस्त बारिश हो रही है – मेरे पटना में …
छाता ….पहले लकड़ी वाला छाता होता था …जैसा छाता वैसा उस इंसान का हैसियत …कलकत्ता से छाता आता था …एक फेमस ब्रांड होता था …नाम भूल रहा हूँ …स्प्रिंग एकदम हार्ड …सब अजिन कजिन उस छाता को खोलने का प्रयास …किसी का उंगली ‘चिपा’ गया …बाकी सब फरार ..:)) फिर आया ..स्टील वाला छाता …नेपाल से …बटन वाला ….कोई गेस्ट अगर वैसा छाता के साथ आ गया …इतना न उसका बटन ‘पुट-पुटाते’ थे …जैसे ही बटन दबाते वो छाता खुलता …चेहरे पर एक विजयी मुस्कान …:)) फिर उसको बंद करो …फिर बटन दबाओ …फिर उस छाते को गीली जमीन में उल्टा कर के धंसा देना …लगता था ..जैसे वहां कोई किला फतह कर लिए ..:)) फिर आया ‘लेडिज छाता’ फोल्ड वाला …लाल – नीला – अलग अलग रंग वाला ….घर में छाता नहीं मिल रहा …कोई हाथ में ‘लेडिज छाता’ थमा दिया …बहुत बेइज्जती जैसा लगता था ….हूँ…रोड पर लेडिज छाता लेकर जायेंगे …हुंह …कोई देखेगा तो क्या बोलेगा …हा हा हा हा …अब वो फोल्ड हो जाने वाला छाता काला मिलने लगा …यूनिसेक्स हो गया …एक ही छाता सब लोग यूज करने लगे …
सीढीघर में …रेलिंग के सहारे खडा वो छाता …बूँद – बूँद टपक रहा ..वो छाता …कोई आया है …मेरे गाँव से … :))

14.08.14

कहानी साबुन की …

खस साबुन

इस छोटे से जीवन में तरह तरह का साबुन देखा और लगाया लेकिन आज भी गर्मी के दिनों में खस और जाड़ा में पियर्स का कोई जोड़ नहीं है ।
बाबा को लक्स लगाते देखते थे । दे लक्स …दे लक्स । ढेला जैसा लेकिन सुगंधित । किसी पर चला दीजिए तो कपार फुट जाए । बाबू जी का पसंदीदा होता था – मार्गो – नीम वाला । जब हम लोग टीन एजर हुए तो – जिसका टीवी प्रचार बढ़िया – उहे साबुन खरीदाएगा । लिरिल 😝 आज भी लिरिल के प्रचार का कोई बराबरी नहीं कर पाया । नींबू की खुशबू के साथ – लिरिल से नहा लीजिए तो तन से लेकर मन तक फ्रेश फ्रेश 😊 नहाते वक़्त उसका प्रचार भी याद कर लीजिए 😝 मन कुछ और भी फ्रेश । फिर सिंथॉल आया – घोड़ा लेकर विनोद खन्ना अंकल ऐसा दौड़े की सिंथॉल भी बाज़ार में दौड़ने लगा – लेकिन हम कभी नहीं लगाए 😐 पिता जी उम्र के विनोद खन्ना नहीं पसंद 😐 आज तक सिंथॉल नहीं लगाए 😝
एक आता था – मोती साबुन । वो और भी ढेला । तराजू के बटखरा जैसा । चंदन की खुशबू पहली बार मोती में ही सुंघे । फिर दक्षिण भारत गए तो मैसूर चंदन वाला – सरकारी साबुन । ऐसा लगता था कि नहाने के बाद अब सीधे पूजा ही करना है – चंदन का असर होता था । कभी कभार खरीद कर थोक में घर भी लाते । अलग अलग क्वालिटी । एक्सपोर्ट क्वालिटी खरीदते वक्त एनआरआई टाइप फिल होता था 😁
लाइफबॉय का नसीब देखिए । उसका जिंदगी टॉयलेट के पास ही कट गया । कटा हुआ लाइफबॉय । जब किसी के शरीर में चमड़े का कोई बीमारी होता था तो बाबू उसको सलाह देते थे कि लाइफबॉय लगाव । हम उनका मुंह देखते थे – कोई कैसे शरीर में लाइफबॉय लगा सकता है 😐 लेकिन बैक्टीरिया मारने का सबसे बेजोड़ साबुन लाइफबॉय ही होता था ।
उसी टीनएज डिंपल आंटी गोदरेज के किसी साबुन के प्रचार में आई । कुछ ग्लोरी टाइप । ऐसा ना जुल्फ झटकी की दो चार महीना वो भी खारीदाया । कोई दोस्त महिम बोल दिया – लेडिस साबुन है । डिंपल आंटी का प्रचार मन में रह गया और साबुन दूर हो गया ।
पार्क एवेन्यू भी दूध के स्मेल टाइप कुछ प्रोडक्ट लाया लेकिन हम नहीं लगाए । बेकार । पूरा शरीर दुधाईन महकता था । फिर कुछ ओव डोब आया – जनानी टाइप । लगा के नहाने के बाद , कितना भी तौलिया से देह पोंछिए – लगता था अभी भी साबुन देह में लगा ही हुआ है 😐
लेकिन 15 साल दिल्ली / एनसीआर रहा । नया नया में फैब इंडिया गया – जेएनयू टाइप फिल करवाने के लिए – वहां से भी खस खरीदा लेकिन अफ़ग़ान ऑटो खस जैसा कहीं नहीं मिला । उत्तर भारत में ही बनता है लेकिन बिहार में बिकता है । हर साल थोक में अफ़ग़ान ओट्टो खस साबुन पटना से खरीद कर नोएडा / इंदिरापुरम जाता था । अब इसका लिक्विड भी आया है । गर्मी के दिन में ठंडा पानी से नहाने के साथ खस लगा लीजिए – पूरा दिन मन ठंडा ठंडा रहेगा । अब ये भी पहले वाला जैसा नहीं रहा – अलोए वेरा और गिलिश्रिन मिला दिया है । अब एक साबुन केक का दाम – 40 है ।
नोएडा में मॉल संस्कृति आया तो ‘ द बॉडी शॉप ‘ खुला । 300 -400 वाला साबुन भी आया । स्ट्राबेरी और मालूम नहीं क्या क्या सुगंध । वह दुकान पटना के मौर्या होटल में भी है ।
फिर , भारत का सबसे महंगा साबुन – मिलेनियम । ₹ 850 प्रति केक । 12 % चंदन का तेल । लगा लीजिए तो ऐसे ही खुद को मैसूर महाराजा समझने लगिएगा । अखोर बखोर से बात करने का मन नहीं करेगा 😝 7-8 साल से यही साबुन । बाबू जी किसान के बेटा हैं – एक दिन धमका दिए – जमीन जायदाद बेच के साबुन लगाओ 😐
हद हाल है …अब जन्मकुंडली के केंद्र में शुक्र बहुत मजबूती से बैठे हैं तो मेरा क्या दोष 😐 अब यही सब पसंद आएगा – साबुन तेल पाउडर गीत ग़ज़ल इत्यादि इत्यादि 😝
खैर …इस गर्मी अफ़ग़ान ओट्टो खस का कोई जवाब नहीं :))
~ रंजन / दालान

इंस्टैंट मुहब्बत …

InstantMuhabbat

नॉएडा के , सेक्टर अठारह के , एचएसबीसी बैंक ब्रांच में उस रोज – झुकी पलकों को आहिस्ता से उठा , अपने गेशुओं को एक तरफ़ शाने पर रख , वो एक हमउम्र जब पाँच क़दम चल कर, मुझ अनजान तक पहुँच , कहती है – ‘एक्सक्यूज मी , पेन प्लीज़’ । सेकेंड के सौवें हिस्से में – मेरे मन में झंकार बिट्स बजने लगते है 😐 मैं मासूम छोरा – पेन की ढक्कन खोल ख़ुद को पृथ्वीराज चौहान समझ उनको अपना पेन समर्पित करता हूँ – इस घमंड के साथ की , बैंक में अन्य बीस मर्द भी थे पर उस मासूम ने मुझसे ही पेन माँगा है । जब तक वो अपने चेकबुक पर कुछ लिखती हैं – मेरे मन मंदिर में एक ही गाना बजता है – ‘यह पेन नहीं मेरा दिल है’ ।
इंसान ख़्वाबों में जीता है । मेरे मासूम मन में ख़्वाब जाग जाते है – जब वो क़लम वापस करेंगी , मैं उन्हें कॉफ़ी के लिए पूछूँगा , कॉफ़ी पर ही बातों का सिलसिला चल पड़ेगा , इस कॉफ़ी के ख़त्म होने के साथ , अगली मुलाक़ात का समय तय होगा । ख़्वाबों के सिलसिले भला कब रुकते हैं 😐
पर ऐसा हो न सका – टेलर से पैसे निकाल , लूई वेटन के लाल टोट बैग में पैसा रखते ही वो झुकी पलकें थोड़ी कठोर हो गयीं । बड़े ही कठोर निगाहों से उन्होंने मेरा पेन वापस किया – मेरे दिल ने कहा – काश आप ये क़लम रख लेती । पर अब तो पेन का काम ख़त्म हो चुका था , भला क्यों वो उसी अदा में रहतीं 😐
ताश के पत्ते की तरह सारे ख़्वाब बिखरते चले गए । अंतिम आस थी – काश वो थैंक यू कहती । पर मुझ जैसे नसीब के छोटे आदमी को थैंक्स भी नसीब नहीं हुआ । पेन लौटाते वक़्त वो निगाहें भी नहीं मिल सकीं । हाँ , वो वही क़ातिल निगाहें थी जिन्होंने बड़े मासूमियत से पेन माँगा था । एक झटके में वो बाहर निकल गयीं ….और मैं देखता रह गया …अपने टूटे दिल के बिखरते ख़्वाबों को समेटते हुये …
फिर सोचा …कुछ देर और रुक जाऊँ …फिर कोई और पेन माँगनेवाली आ जाए …😐
~ रंजन ऋतुराज / #Daalaan / 11.01.17
यह महज़ एक कल्पना है , हास्य है , एक व्यंग्य है – उन सोख हमउम्र हसीनाओं पर जो हज़ारों के लूई वेटन बैग में एक क़लम तक नहीं रखती हैं और काम ख़त्म हो जाने के बाद , क़लम वापस करते वक़्त – थैंक्स तक नहीं बोलतीं है । और हम पुरुष न जाने कितने ख़्वाब बुन लेते हैं – क़लम देने और वापस लेने के बीच 😕
लेकिन यह शुद्ध कल्पना भी नहीं है , यह दुर्घटना सितंबर , 2016 में नोएडा में हुई और चेक पर साईन करते वक़्त , मैंने उनका नाम भी पढ़ा और फेसबुक खोल उनका प्रोफाईल भी चेक किया , फ्रेंड रिक्वेस्ट का कोई ऑपशन नहीं दिखा – मर्द जात …कुकुर 😐 बड़का भारी कुकुर …हा हा हा ।

कौन किसका दीदार करे …

तुम और ताज

कौन किसका दीदार करे …
तू ताज का करे
या ताज तेरा करे …
सुना है संगमरमर है
तराशे हुए दोनो तरफ़ …
कौन किसको स्पर्श करे …
तू ताज को करे
या ताज तुझे करे …

~ RR / #Daalaan / 09.01.2017

तस्वीर साभार : ऑनलाइन मैगज़ीन ‘ब्यूटिफ़ुल डेस्टिनेशन’ – जहाँ एक फ़ोटो प्रतियोगिता में लंदन के Joe O ने इस ताज की तस्वीर को डाल 7000 प्रतिभागियों में पहला स्थान लिया । Joe O महज़ 17 साल के हैं ।

छोटे व्यापार और मिडिल क्लास

नया नया नोएडा गया था तो सोसायटी के गेट पर ही एक सब्जी विक्रेता थे । पटना के ही थे सो उन्ही के यहां से सब्जी आता था । सुबह सुबह वो अपना दुकान लगा लेते । सेक्टर 62 नोएडा के सोसायटी पब्लिक सेक्टर कंपनी के थे । मदर डेयरी का बूथ नहीं आया था ।
सब्जी विक्रेता से परिचय हो गया । दुआ सलाम होने लगा । उन्हें पता था कि मुझे गोभी सालों भर पसंद सो वो बिन मौसम भी लेे आते ।
शुरुआती दौर था सो बाबा दो किचेन हेल्पर भी गांव से भेज दिए । सब्जी विक्रेता भी मेरे रहन सहन और बात बर्ताव से कुछ छवि बना लिए । एक रोज वो बोले – सर , तीन लाख रुपया मिलेगा ? हम एकदम से हड़बड़ा गए । पंचम वेतन आयोग में मुश्किल से 16-17 हज़ार तनख़ाह , ऊपर से एक तिहाई किराया में । फिर भी हम उनसे पूछे – क्या कीजिएगा तीन लाख का ? वो बोले – पटना बाईपास पार दो कट्ठा ज़मीन तय किए हैं – छह लाख का , तीन का इंतजाम हो गया है । बाकी तीन का करना है ।
तब मेरे पास पचास हज़ार भी होता तो हम फ्लैट बुक कर देते । ई हमसे तीन लाख मांग रहे हैं ।
लेकिन एक बात समझ में आई – इस बिजनेस में पैसा था । जब सड़क किनारे सब्जी वाला उस दौर में तीन लाख जमा कर सकता था तो हम ई पैंट बुशर्ट झाड़ के क्या कर रहे हैं ।
खैर , कुछ वर्षों बाद – सेक्टर 58 नोएडा में लिट्टी वाले मिल गए – मुजफ्फरपुर के थे सो दोस्ती भी हो गई । वो इतने बढ़िया लिट्टी बनाते की टाइम्स ऑफ इंडिया वाला खबर भी बना दिया । बेहतरीन लिट्टी । उनका भी हाल इस सब्जी वाले जैसा था । बोरा के नीचे सौ टकीया तहिया के रखते थे ।
कहने का मतलब – आई ए , बी ए , इंजीनियरिंग पास कर के कटोरा लेकर मत घूमिए । थोड़ा लाज संकोच छोड़िए । छोटे व्यापार कीजिए । घर का मोह माया त्याग कीजिए । बड़े शहर में अवसर हैं । लिखना तो नहीं चाहिए लेकिन लोग कहते हैं – नोएडा के एक बड़े बिल्डर का छोटा पार्टनर एक चाय वाला था । कभी जरूरत पड़ा तो उसने उस बिल्डर को दो चार लाख का मदद किया और इस बदले उसे कंपनी में शेयर मिला । अब सच झूठ नहीं पता ।
अब पटना में मेरे ऑफिस के बगल में – जो चाय वाला है , वो नवंबर से मार्च तक प्रतिदिन पांच हज़ार कमाता है । खोजिए जगह , लडिए ।
पॉकेट में पैसा रहेगा – दुनिया पूछेगा । जब बड़े लोगों के नजदीक जाइएगा तो वो तो ऐसे ऐसे काम करते हैं – जो आपके लिए अकल्पनीय है । वैसे कामों से ये सब काम बेहतर है – किसी का पैसा तो चोरी नहीं कर रहे । किसी नेता को दिल्ली या बॉम्बे तो नहीं घुमा रहे । किसी अफसर की शाम का इंतजाम तो नहीं कर रहे ।
मेहनत कीजिए । काम बड़ा या छोटा नहीं होता ।
~ रंजन / 23.01.20