दिन की थकान और देर शांत रात – मन में हलचल पैदा करती है – वहीं से मिज़ाज के हिसाब से विचार उत्पन्न होते हैं ।
मैंने कुछ दिन पहले ‘छवि’ को लेकर लिखा था । कई बार लिखा और सोचता हूँ – कोई भी इंसान एक ख़ास छवि में कैसे हर वक़्त बँधा रह सकता है । यह मेरी सोच वर्षों पुरानी है – जब मैं प्लस टू में था और छवि को लेकर एक संघर्ष था ।
जब प्रकृति ही एक छवि में रहने को इजाज़त नहीं देती है – समाज एक इंसान को अलग अलग छवि में रहने को कहता है फिर सामने वाला उससे एक ख़ास छवि की डिमांड क्यों करता है । कुछ अजीब नहीं लगता ?
आप एक ख़ास नक़ाब कब तक पहन रखेंगे ? चरित्र का वेग इतना तेज़ होता है कि वह नक़ाब को ज़्यादा देर बर्दाश्त नहीं कर पाता । चरित्र उभर कर आ ही जाता है – क्योंकि वह ईश्वरीय दें है ।
मैं एक शिक्षक था – स्वभाव से मज़ाक़िया । दिन भर कॉलेज में एक आदर्श व्यक्तित्व का नक़ाब ओढ़े ओढ़े थकान हो जाती थी तो दोस्तों के साथ समय :)) ऐसा हर किसी के साथ होता है ।
क्योंकि सबसे ऊपर है – इंसान का मिज़ाज । अब आप किस मिज़ाज में उसे देखते हैं – और आप वहीं से उसके लिए एक छवि बना लेते हैं । पर यह ग़लत है । मैंने अपने एक पुराने लेख में – अमिताभ बच्चन के पटना दौरा का वर्णन किया था – कैसे वो बिना हेयर ड्रेसर के नीतीश से नहीं मिले – मुख्यमंत्री आवास के अंदर वो अपने कार में तब तक बैठे रहे जब तक की उनका हेयर ड्रेसर नहीं आया । वो अपने बाल बिना सँवारे भी जा सकते थे ।
एक बार पढ़ा – हिंदी सिनेमा के कलाकार – राजकुमार गंजे थे – एक सुबह उनका नौकर उन्हें बिना बिग का देख – बेहोश हो गया ।
हर किसी की चाहत की हमें एक सच्चे इंसान से दोस्ती हो – पर क्या हम उस सच्चे इंसान को बर्दाश्त कर सकते हैं ? जब मेरे अंदर हर तरह की भावना – वैसा ही उस इंसान के साथ होगी ।
पर हम सभी को एक फ़ेक / नक़ाब वाला इंसान चाहिए । तभी उर्वशी के परिचय में – दिनकर लिखते हैं – समाज बिना नक़ाब के इंसान को बर्दाश्त नहीं कर पाता है ।
हेलो….एक बढ़िया नक़ाब मुझे भी देना …शरीफ़ वाला …:))
12.09.2016 / दालान