कहानी साइकिल की …

कहानी साइकिल की : ब्रांड रेलेे 😊
कोई राजा हो या रंक – हमारे समाज में उसकी पहली सवारी साइकिल ही होती है और साइकिल के प्रति उसका प्रेम आजीवन रहता है – भले ही वो चढ़े या नहीं चढ़े ।
अगर आप अपने बचपन को याद करें तो बड़े बुजुर्ग ब्रांड रेलेे की बात करते थे । सन 1885 के आस पास इंग्लैंड कि यह ब्रांड भारत के इंग्लिश राज में मंझौले रईसों की पहचान हो गई थी ।
हमारे सम्मिलित परिवार में सन 1975 के आस पास तक मोटर नहीं था , आया भी तो सरकारी । हाथी घोड़ा पालकी और समपनी थी लेकिन मोटर नहीं । लेकिन बाबा के पास फिलिप्स कंपनी की हरे रंग की साइकिल होती थी । दोपहर के भोजन और विश्राम के बाद उनकी साइकिल साफ होती , बाबा बेहतरीन खादी कुर्ता और धोती में – अपने मित्रो के साथ आस पास के बड़े बाज़ार निकल जाते । गांव गांव उसी साइकिल से घूमते । आजीवन साइकिल चलाए तो उनके श्राद्ध में मैंने खुद से पड़ोस के गांव से नया साइकिल कसवा कर दान भी दिया । ऐसे जैसे टॉर्च , छाता और साइकिल – यही पहचान ।
खैर , साइकिल पर चलने के अपने एटिकेट्स होते थे । जैसे अगर आप साइकिल से हों और सामने से गांव घर का कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति आ रहा हो तो आपको चंद मिनट के लिए साइकिल से उतर कर अभिवादन करना है । इस घटना को आपमें से कई नहीं देखे होंगे – लेकिन मैंने देखा और किया भी है । सब कुछ बदल गया तो ये भी संस्कार बदल गया ।
गांव में साइकिल मांगने की प्रथा होती थी । बाबा से कोई साइकिल मांगने आया तो महिन नेता आदमी – आंगन से पूछ लो कह के अपना इज्जत बचा लेते थे और जो साइकिल मांग दिया – मेरी दादी उसकी इज्जत उतार देती थी । हा हा हा । क्या मजाल की कोई दुबारा साइकिल मांगने आए 😉
परबाबा मुजफ्फरपुर ज़िला स्कूल पढ़ने गए तो उधर से रेलेे खरीदते आए – बाबा कहते थे – रेलेे साइकिल को देखने के दस कोस से लोग आया था । हा हा हा । शायद वह तब के सम्मिलित परिवार की पहली साइकिल रही होगी । सन 1920 के आस पास । तब से लेकर आज तक हर पीढ़ी के पास उसके हाईस्कूल के दौर से साइकिल खरीदना एक प्रथा है और शायद हर मिडिल क्लास में ।
मेरी पहली बाई साइकिल भी सातवीं कक्षा में खरीदी गई थी । शायद 18 इंच वाली । उसी नए साइकिल पर सीखे भी । गजब का थ्रील आता था – जैसे इस सड़क पर हम भी अब दू पैसा के आदमी हो गए हैं :)) शायद एवन थी । फिर हीरो और फिर ब्लू कलर की बीएसए एसएलआर । कॉलेज में फैशनेबल साइकिल रखे थे । कई स्कूटर और बाइक वाले मित्र मांग कर ले जाते थे – कैट टाइप 😎
अब फिर से साइकिल खरीदने का मन । बहुत हल्का नहीं लेकिन बेहतरीन ब्रांड । रेलेे । साइकिल खरीदने जाना और दुकान में उसको कासवाना फिर घर आना :)) साइकिल को सूती कपड़ा से हर रोज पोछना और कभी कभी कभार उसका ओवर हौलिंग करवाना । नारियल के तेल से उसका रिम साफ करना इत्यादि इत्यादि – सब याद है :))
टीन येज में साइकिल से पूरा पटना धांगे हुए हैं 😎 गॉगल्स पहन कर ।
बहुत कुछ छूट गया – बहुत कुछ लिख दिया – अब कुछ आप भी लिखें :)) अपनी साइकिल की यादें …!!!
~ रंजन / दालान / 29 मई 2020

मेरा गांव – मेरा देस – मेरा होली

छठ / होली में जो अपने गाँव – घर नहीं गया – वो अब ‘पूर्वी / बिहारी’ नहीं रहा ! मुजफ्फरपुर / पटना में रहते थे तो हम लोग भी अपने गाँव जाते थे – बस से , फिर जीप से , फिर कार से ! जैसे जैसे सुख सुविधा बढ़ने लगा – गाँव जाना बंद हो गया ! अब पटना / नॉएडा / इंदिरापुरम में ही ‘होली’ मन जाता है ! चलिए ..होली की कुछ यादें ताजा करते है ! 
चलिए आज पटना की होली याद करते हैं ! होली के दस दिन पहले से माँ को मेरे कुर्ता – पायजामा का टेंशन हो जाता था क्योंकी पिछला साल वाला कुर्ता पायजामा छोटा हो चुका होता ! मेरा अलग जिद – कुछ भी जाए – ‘सब्जीबाग’ वाला पैंतीस रुपैया वाला कुर्ता तो हम किसी भी हाल में नहीं पहनेंगे ! बाबु जी का अलग थेओरी – साल में एक ही दिन पहनना है ! बाबु जी उधर अपने काम धाम पर् निकले – हम लोग रिक्शा से सवार – हथुआ मार्केट – पटना मार्केट  ! घूम घाम के कुछ खरीदा गया …सब बाज़ार में ‘हैंगर में लटका के कुर्ता रखता था ..झक झक उजला कुर्ता ! पटना मार्केट के शुरुआत में ही एक दो छोकरा लोग खडा रहता – हाथ में पायजामा का डोरी लेकर 😉 आठ आना में एक 😉

अब कुर्ता – पायजामा के बाद – मेरा टारगेट ‘पिचकारी’ पर् होता – गाँव में पीतल का बड़ा पिचकारी और शहर में प्लास्टिक 🙁 ‘सस्तऊआ प्लास्टिक का कुछ खरीदा गया – रंग के साथ – हम हरा रंग के लिये जिद करते – माँ कोई हल्का रंग – किसी तरह एक दो डिब्बा हरा रंग खरीद ही लेता था !

धीरे धीरे बड़ा होते गया …पिता जी के सभी स्टाफ होली में अपने गाँव चले जाते सो होली के दिन ‘मीट खरीदने’ का जिम्मा मेरे माथे होता था ! एक दिन पहले जल्द सो जाना होता था ! भोरे भोरे मीट खरीदने ‘बहादुरपुर गुमटी’ ! जतरा भी अजीब ..स्कूटर स्टार्ट नहीं हो रहा …टेंशन में साइकिल ही दौड़ा दिया ..हाँफते हुन्फाते हुए ‘चिक’ के पास पहुंचे तो देखे तो सौ लोग उसको घेरे हुए है ..देह में देह सटा के ..मेरा हार्ट बीट बढ़ गया …होली के दिन ‘खन्सी का मीट’ नहीं खरीद पायेंगे …जीना बेकार है वाला सेंटीमेंट हमको और घबरा देता था …इधर उधर नज़र दौडाया …डब्बू भईया नज़र आ गए …एक कोना में सिगरेट धूकते हुए …सुने थे ..डब्बू भईया का मीट वाला से बढ़िया जान पहचान है …अब उनके पास हम सरक गए …लाइए भईया ..एक कश हमको भी ..भारी हेडक है ..ई भीड़ देखिये ..लगता है हमको आज मीट नहीं मिलेगा …डब्बू भईया टाईप आईटम बिहार के हर गली मोहल्ला में होता है ..हाफ पैंट पहने ..एक पोलो टी शर्ट ..आधा बाल गायब …गला में ढेर सारा बध्धी ..हाथ में एक कड़ा …स्कूटर पर् एक पैर रख के ..बड़े निश्चिन्त से बोले …जब तक हम ज़िंदा है ..तुमको मीट का दिक्कत नहीं होगा ..उनका ई भारी डायलोग सुन ..दिल गदगद हो गया …तब उधर से वो तेज आवाज़ दिए ….’सलीम भाई’ …डेढ़ किलो अलग से ..गर्दन / सीना और कलेजी ! तब तक डब्बू भईया दूसरा विल्स जला लिये ..अब वो फिलोसफर के मूड में आने लगे ..थैंक्स गोड..सलीम भाई उधर से चिल्लाया …मीट तौला गया ! जितना डब्बू भईया बोले …उतना पैसा हम दे दिए …फिर वो बोले ..शाम को आना …मोकामा वाली तुम्हारी भौजी बुलाई है ! डब्बू भईया उधर ‘सचिवालय कॉलोनी’ निकले …हम इधर साइकिल पर् पेडल मारे …अपने घर !
मोहल्ला में घुसे नहीं की ….देखे मेरे उमर से पांच साल बड़ा से लेकर पांच साल छोटा तक …सब होली के मूड में है ! सबका मुह हरा रंग से पोताया हुआ ! साइकिल को सीढ़ी घर में लगाते लगाते ..सब यार दोस्त लोग मुह में हरा रंग पोत दिया ! घर पहुंचे तो पता चला – प्याज नहीं है …अब आज होली के दिन कौन दूकान खुला होगा …पड़ोस के साव जी का दूकान ..का किवाड आधा खुला नज़र आया …एक सांस में बोले …प्याज – लहसुन , गरम मसाला ..सब दे दीजिए …! सब लेकर आये तो देखा ..मा ‘पुआ’ बना दी हैं …प्याज खरीदने वक्त एक दो दोस्त को ले लिया था …वो सब भी घर में घुस गए …मस्त पुआ हम लोग चांपे ..फिर रंगों से खेले ! 
कंकरबाग रोड पर् एक प्रोफेशनल कॉलेज होता है – यह कहानी वहीँ के टीचर्स क्वाटर की है – हमलोग के क्वाटर के ठीक पीछे करीब दो बीघे के एक प्लाट में एक रिटायर इंजिनियर साहब का बंगलानुमा घर होता था ! हमारी टोली उनके घर पहुँची ! बिहार सरकार के इंजिनियर इन चीफ से रिटायर थे – क्या नहीं था – उनके घर ! जीवन में पहली दफा 36 कुर्सी वाला डाइनिंग टेबुल उनके घर ही देखा था ! एकदम साठ और सत्तर के दसक के हिन्दी सिनेमा में  दिखने वाला ‘रईस’ का घर ! पिता जी के प्रोफेशन से सम्बंधित कई बड़े लोगों के घर को देखा था – पर् वैसा कहीं नहीं देखा ! हर होली में मुझे वो घर और वो रईस अंदाज़ याद आता है ! 
देखते देखते दोपहर हो गया – मीट बन् के तैयार ! अब नहाना है ! रंग छूटे भी तो कैसे छूटे …जो जिस बाथरूम में घुसा ..घुसा ही हुआ है 🙂

~ रंजन / 04.03.12

श्री बाबू : बिहार के प्रथम प्रधानमंत्री

#SriBabu
आज बिहार के प्रथम प्रधानमंत्री एवम मुख्यमंत्री श्री बाबु की पुण्य तिथि है । मेरे ननिहाल क्षेत्र ‘बरबीघा’ / पुराना मुंगेर के रहने वाले थे । मेरे ननिहाल का नाम ‘तेउस’ है और उनके गाँव का नाम ‘माऊर’ है …:))
जब तक दिल्ली रहा – वहाँ के बिहारी समाज द्वारा जब जब उनके जन्मदिवस या पुण्यतिथि के अवसर पर कोई भी आयोजन हुआ – दल बल / घोड़ा गाड़ी / आफ़िला क़ाफ़िला / दोस्त महिम के साथ ज़रूर गया । कुछ एक बार आशन भाषण भी दिया ।
बेगूसराय निवासी एवम सिक्किम के पूर्व राज्यपाल बाल्मीकी बाबू का श्री बाबु पर भाषण सुनना बढ़िया लगता था । एक बार वो भी तारीफ़ कर दिए – बढ़िया बोलते हो – चार दिन हम नशा में रहे – मुझसा कोई नहीं टाइप ।
श्री बाबु मेरे गाँव भी आए थे – गोपालगंज । मुख्यमंत्री थे । महेश बाबू के पीए होते थे – राम किशून बाबा । श्री बाबु दोपहर का भोजन महेश बाबु के आवास पर करते थे – महेश बाबु का रसोईया बेहतरीन था – ख़ानदानी थे महेश बाबु । एक दोपहर खाने के बाद – श्री बाबु अँचा रहे थे – राम किशून बाबा बोले – मेरी बहन की शादी है आपको मेरे गाँव आना होगा । श्री बाबु तैयार हो गए । छपरा से रेल का सैलून लगा । मेरे गाँव के बग़ल वाले स्टेशन पर रुका । सफ़ेद ऐंबेस्सडर लगा । गाँव के सबसे बड़े परिवार – रेवतिथ दरबार में दोपहर का भोजन हुआ । फिर वहाँ से मेरे दालान तक – सड़क पर एकरंगा बिछा दिया गया । भारी भरकम श्री बाबु और पीछे पीछे पुरा गाँव । न्योता पेहानी किए । रात हो गयी तो वापस अपने सैलून में विश्राम को चले गए । उनके परम मित्र अनुग्रह बाबू की मृत्यु हो चुकी थी – सो उसी सैलून में बैठे बैठे अनुग्रह बाबु के नाम पर एक स्कूल का अनुमोदन किए । किसी ने कहा – बिना स्कूल देखे – कैसे अनुमोदन – श्री बाबु बोले – बाबूसाहेब का नाम ही काफ़ी है ।
श्री बाबु अनुग्रह बाबु को बाबूसाहेब कहते थे और अनुग्रह बाबु श्री बाबु को मालिक कहते थे । आज यह दोनो पुकारू नाम – जातिविशेष से जोड़ दिए गए …:))
श्री बाबु बहुत बड़े विजनरी थे । देवघर के मंदिर में दलित समाज को इंट्री नहीं देते थे । १९५७ में समाज की गंदी सोच को तोड़ते हुए अपनी हुकूमत के बल पर दलित समाज के लोगों के साथ मंदिर में प्रवेश किए । समाज और सरकार हिल गयी – और राजनीति इस क़दर पलटी की – श्री बाबु के मृत्यु के बाद देवघर के एक पुजारी को ही कोंग़्रेस ने मुख्यमंत्री बना दिया :))
~ रंजन / दालान / 31 जनवरी