कहानी साबुन की …

खस साबुन

इस छोटे से जीवन में तरह तरह का साबुन देखा और लगाया लेकिन आज भी गर्मी के दिनों में खस और जाड़ा में पियर्स का कोई जोड़ नहीं है ।
बाबा को लक्स लगाते देखते थे । दे लक्स …दे लक्स । ढेला जैसा लेकिन सुगंधित । किसी पर चला दीजिए तो कपार फुट जाए । बाबू जी का पसंदीदा होता था – मार्गो – नीम वाला । जब हम लोग टीन एजर हुए तो – जिसका टीवी प्रचार बढ़िया – उहे साबुन खरीदाएगा । लिरिल 😝 आज भी लिरिल के प्रचार का कोई बराबरी नहीं कर पाया । नींबू की खुशबू के साथ – लिरिल से नहा लीजिए तो तन से लेकर मन तक फ्रेश फ्रेश 😊 नहाते वक़्त उसका प्रचार भी याद कर लीजिए 😝 मन कुछ और भी फ्रेश । फिर सिंथॉल आया – घोड़ा लेकर विनोद खन्ना अंकल ऐसा दौड़े की सिंथॉल भी बाज़ार में दौड़ने लगा – लेकिन हम कभी नहीं लगाए 😐 पिता जी उम्र के विनोद खन्ना नहीं पसंद 😐 आज तक सिंथॉल नहीं लगाए 😝
एक आता था – मोती साबुन । वो और भी ढेला । तराजू के बटखरा जैसा । चंदन की खुशबू पहली बार मोती में ही सुंघे । फिर दक्षिण भारत गए तो मैसूर चंदन वाला – सरकारी साबुन । ऐसा लगता था कि नहाने के बाद अब सीधे पूजा ही करना है – चंदन का असर होता था । कभी कभार खरीद कर थोक में घर भी लाते । अलग अलग क्वालिटी । एक्सपोर्ट क्वालिटी खरीदते वक्त एनआरआई टाइप फिल होता था 😁
लाइफबॉय का नसीब देखिए । उसका जिंदगी टॉयलेट के पास ही कट गया । कटा हुआ लाइफबॉय । जब किसी के शरीर में चमड़े का कोई बीमारी होता था तो बाबू उसको सलाह देते थे कि लाइफबॉय लगाव । हम उनका मुंह देखते थे – कोई कैसे शरीर में लाइफबॉय लगा सकता है 😐 लेकिन बैक्टीरिया मारने का सबसे बेजोड़ साबुन लाइफबॉय ही होता था ।
उसी टीनएज डिंपल आंटी गोदरेज के किसी साबुन के प्रचार में आई । कुछ ग्लोरी टाइप । ऐसा ना जुल्फ झटकी की दो चार महीना वो भी खारीदाया । कोई दोस्त महिम बोल दिया – लेडिस साबुन है । डिंपल आंटी का प्रचार मन में रह गया और साबुन दूर हो गया ।
पार्क एवेन्यू भी दूध के स्मेल टाइप कुछ प्रोडक्ट लाया लेकिन हम नहीं लगाए । बेकार । पूरा शरीर दुधाईन महकता था । फिर कुछ ओव डोब आया – जनानी टाइप । लगा के नहाने के बाद , कितना भी तौलिया से देह पोंछिए – लगता था अभी भी साबुन देह में लगा ही हुआ है 😐
लेकिन 15 साल दिल्ली / एनसीआर रहा । नया नया में फैब इंडिया गया – जेएनयू टाइप फिल करवाने के लिए – वहां से भी खस खरीदा लेकिन अफ़ग़ान ऑटो खस जैसा कहीं नहीं मिला । उत्तर भारत में ही बनता है लेकिन बिहार में बिकता है । हर साल थोक में अफ़ग़ान ओट्टो खस साबुन पटना से खरीद कर नोएडा / इंदिरापुरम जाता था । अब इसका लिक्विड भी आया है । गर्मी के दिन में ठंडा पानी से नहाने के साथ खस लगा लीजिए – पूरा दिन मन ठंडा ठंडा रहेगा । अब ये भी पहले वाला जैसा नहीं रहा – अलोए वेरा और गिलिश्रिन मिला दिया है । अब एक साबुन केक का दाम – 40 है ।
नोएडा में मॉल संस्कृति आया तो ‘ द बॉडी शॉप ‘ खुला । 300 -400 वाला साबुन भी आया । स्ट्राबेरी और मालूम नहीं क्या क्या सुगंध । वह दुकान पटना के मौर्या होटल में भी है ।
फिर , भारत का सबसे महंगा साबुन – मिलेनियम । ₹ 850 प्रति केक । 12 % चंदन का तेल । लगा लीजिए तो ऐसे ही खुद को मैसूर महाराजा समझने लगिएगा । अखोर बखोर से बात करने का मन नहीं करेगा 😝 7-8 साल से यही साबुन । बाबू जी किसान के बेटा हैं – एक दिन धमका दिए – जमीन जायदाद बेच के साबुन लगाओ 😐
हद हाल है …अब जन्मकुंडली के केंद्र में शुक्र बहुत मजबूती से बैठे हैं तो मेरा क्या दोष 😐 अब यही सब पसंद आएगा – साबुन तेल पाउडर गीत ग़ज़ल इत्यादि इत्यादि 😝
खैर …इस गर्मी अफ़ग़ान ओट्टो खस का कोई जवाब नहीं :))
~ रंजन / दालान

ब्लैकबेरी

सहरा की भिंगी रेत पर , मैंने लिखा आवारगी
~ मोहसिन की बेहतरीन पोएट्री ।
तस्वीर इसी मौसम और शायद इसी महीने की है , वर्ष था 2012 . सात साल पहले की है । शनिवार का दिन था और कॉलेज से हाफ डे के बाद मुझे अपने कॉलेज के दिनों के दोस्तों से मिलने जाना था । बेटी ने ब्लैकबेरी से मेरी तस्वीर उतारी । कई फोन आए और गए लेकिन जो रईसी ब्लैकबेरी में था – वो आईफोन में भी नजर नहीं आया । बेहतरीन लेदर के होल्डर में ब्लैकबेरी को रखिए और आराम से उस होल्डर से ब्लैकबेरी को निकालिए ।
शायद इस वक्त मेरे जेहन में कहीं से भी कुछ नहीं था कि अगले कुछ महीनों में ज़िन्दगी बदलने वाली है । राहु अपनी आयु के चरम सीमा पर था ।
खैर , जिंदगी बड़ी गुलज़ार थी । सुबह ठीक 7.35 में गाढ़ी और बासी दूध के चाय के साथ नींद खुलती थी । करीब 8 अख़बार लेता था । लेकिन सुबह टाइम्स ऑफ इंडिया से ही होती थी । अख़बार और चाय के खत्म होते ही , तैयार होने की हड़बड़ी । ठीक 8.10 में तैयार ।घी से तरबतर पराठा और आलू गोभी की सब्जी । सालों भर गोभी चाहिए – जहां से आए , वो मेरा हेडेक नहीं रहता था । आराम से 8.45 में कॉलेज । 2009 में ही एसोसियेट प्रोफेसर बन चुका था सो क्लास भी कम । मुश्किल से एक क्लास प्रतिदिन । दोपहर 1 बजे वापस घर – दाल , भात , घी , अचार , नेनुआ का सब्जी , पापड़ , तीलौड़ी । डाइनिंग टेबल पर अकेले । फिर एक राउंड बाकी का अख़बार । फिर 2 बजे वापस कॉलेज । और 4.30 बजे वापसी । वापस लौट कर खुद चाय बनाते थे । बेहतरीन दार्जिलिंग चाय । बिन बैग पर पसर कर टीवी और अख़बार । मूड हुआ तो एक आध घंटे बाद , किसी दोस्त यार की महफ़िल में – टेनिस , बैडमिंटन हुआ । और देर शाम वापस । फिर लैपटॉप पर दे फेसबुक …दे फेसबुक । हा हा हा । रात 1.30 तक जागना । लेकिन तकिया के बगल में किताब का जरूर होना ।
लेक्चर भी मस्त होता था । पांच मिनट लेट घुसना , पांच मिनट जल्दी निकल जाना । दस मिनट अटेंडेंस । हां जी फलाना , तुम कल क्यों नहीं आए टाइप भाषण । एक घंटा के लेक्चर में – सिर्फ 35 मिनट पढ़ाते थे । वो 35 मिनट किसी परम आनंद से कम नहीं होता था । ऐसा लगता था कि जैसे झामझामा कर बारिश हो रही हो ।खुद को प्रफुल्लित महसूस करते थे ।
इज्जत बहुत थी । पेशा का असर था । एक तो प्रोफेसर ऊपर से दालान का लेखक । बीच में दाएं बाएं भी कमाए लेकिन उसको भी बड़ी इज्जत के साथ ।
लेकिन राहु कब तक इंतजार करता । 25 फरवरी , 2013 को माथा में घुस गया – चलो पटना , वापस ।
यहां कोई ज़िन्दगी नहीं है । हर एक इंसान असुरक्षित है । इस असुरक्षा की भावना में वो खुल कर किसी से हाथ भी नहीं मिला पाता है ।

~ रंजन / 02.09.19

स्व तारकेश्वरी सिन्हा का लिखा एक लेख

स्व तारकेश्वरी सिन्हा जी देश की आज़ादी के वक़्त ‘लंदन स्कूल ओफ इकोनोमिक्स’, लंदन में थी । महज़ 26 साल में सांसद बनी और बाद में नेहरु मंत्रिमंडल में उप वित्त मंत्री भी । पटना पूर्वी / बाढ़ से चार बार सांसद भी रही ।
उनका यह लेख मैंने वर्षों पहले पढ़ा था । बेहतरीन वक़्ता थी और विचारक / लेखक भी । फ़ुर्सत हो तो यह लेख पढ़िए ।

तारकेश्वरी सिन्हा

इस आपाधापी के जीवन में जब कोई पूछ बैठता है कि संसद में नहीं रहने के बाद आप क्या कर रही हैं, तो जी चाहता है उत्तर दूँ कि ‘झख’ मार रही हूँ। तारकेश्वरी सिन्हा का जीवन अकसर लोग संसद के घेरे में ही देखते रहे हैं। जैसे, मैं कोई कबूतर हूँ जो संसद में ही घर बनाकर ‘गुटर गूँ’ करती रही हूँ। पर कबूतर का भी तो अपना जीवन होता है और संसद की मुँडेरों पर घोसला बना कर वह प्यार करता है, बच्चों को जन्म देता है, दाना–चारा लाकर बच्चों का पेट भरता है, उड़ना सिखाता है, और फिर एक दिन उन्हें उड़ाकर स्वयं भी घोसले को छोड़ देता है और भविष्य में नया घोसला बनाने का उपक्रम भी शुरू कर देता है।

फिर मैं क्यों संसद की सदस्य बनकर उड़ान भरने का हक नहीं रखती। संसद की सदस्य तो मैं थी, पर घर–परिवार को छोड़ा तो नहीं था, माँ बनकर माँ की जिम्मेदारी को भी निभाया था। पर यह प्रश्न तो कोई पूछता ही नहीं। जो मेरी जिंदगी में वर्षों तक छाये रहे, वो भी यही कहते हैं, “तारकेश्वरीजी, अब आप क्या कर रही हैं?” मैं यह तो कहने की जुर्रत कर नहीं कर सकती कि यह प्रश्न आप लोगों ने महात्मा गांधी से नहीं पूछा, जयप्रकाश नारायण से नहीं पूछा, अरूणा आसफ अली से नहीं पूछा कि संसद के तो आप लोग कभी सदस्य रहे नहीं, तो जीवन कैसे बिताया? फिर मुझ पर ही क्यों, आप लोग, अपने सितुए की धार तेज करते रहते हैं, जैसे मैं सिर्फ कद्दू का टुकड़ा हूँ।

वैसे राजनीतिज्ञ की जिंदगी अपने और गैरों का फर्क निरंतर मिटाने की कोशिश करती रहती है। पर क्या अंतर सिर्फ संसद के दायरे में उलझा रहता है? या फिर राजनीतिक जीवन की आपाधापी में, ‘संसद के बाहर’ उसका आधार सामाजिक परिवेश में, आर्थिक परिवेश में बहुत बड़ा होकर अपनी ही गहराइयों की तरफ खसकाता है और महसूस कराता रहता है ––
सफर है, रास्ता है, फासला है
कदम मंजिल, कदम ही रहनुमा है
और निरंतर इन्हीं क्षणों में जीना, हमारी जिंदगी का अनूठा क्षण होता है। पर जब कोई पूछ बैठता है कि वह कौन–सा क्षण है, तो ऐसा लगता है जैसे, मैं समुद्र के किनारे बसे एक शहर के मकान की बालकनी में खड़ी हूँ और अपने सामने देख रही हूँ अनगिनत लहरों के थपेड़ों को, जो बीच से उमड़कर किनारे पर आते हैं और हलके से टकराकर न जाने कहाँ खो जाते हैं। न जाने कितनी बार उनकी गिनती की है, पर हिसाब नहीं रख पायी हूँ अब तक।

हाँ, देखा है कुछ हरे–मुरझाये पत्ते, कुछ कागज के टुकड़े, कुछ लकड़ियों के टूटे–फूटे हिस्से, कुछ बिखरे फूल और उन्हीं के बीच, जिंदगी का अहसास देती और इधर–उधर दौड़ती–सरसराती मछलियाँ। अगर मैं कहूँ कि मेरे जीवन के अनूठे अनुभवों का यही सिलसिला है –– तो क्या किसी को आश्चर्य होगा? उसी तरह की तो मेरी जिंदगी की झलकियाँ हैं –– जिनका संसदीय जीवन से कोई रिश्ता नहीं, पर मुझसे बहुत गहरा है।

अहसास मछलियों का

संसद के भवन में रहते–रहते, एक दिन महसूस हुआ कि मेरी जिंदगी भी समुद्र के तट की तरह है –– जहाँ मैं खुद एक बालकनी पर खड़ी हूँ। समुद्र की लहरों को रोज गिनती हूँ पर पकड़ नहीं पाती। और घर में रहनेवाले मेरे बच्चे उन मछलियों की तरह हो गये हैं जैसे, समुद्र में दौड़ती–सरसराती मछलियाँ। जिस दिन पहली बार यह महसूस हुआ, वही शायद मेरे जीवन का सबसे अनूठा संस्मरण है।

मेरे बड़े लड़के का इम्तहान था। उसने एक दिन मेरे कमरे में आकर कहा, “अम्मा! आप जरा मुझे नागरिक शास्त्र पढ़ा दें। मैं उसी दिन दिल्ली से बाहर जानेवाली थी। मैंने कहा कि तीन–चार दिन में लौटकर आती हूँ तो तुम्हें पढ़ा दूँगी। मैं जिस दिन सुबह लौटकर आयी, वह ऊपर के कमरे से दौड़ता हुआ किताब लेकर नीचे आया, तब तक कुछ लोग आ गये और मैं उनमें उलझ गयी। ऐसा उस दिन तीन बार हुआ। फिर वह मुझसे पढ़ने कभी नहीं आया। उस दिन से वह बहुत कुछ बदल गया। जब भी घर आता, सीधे ऊपर चला जाता अपने कमरे में, वैसे भी ज्यादातर वह बाहर ही रहता। एक बार मोटर साइकिल से गिरने से उसे बहुत सख्त चोट आयी थी। उस दिन भी उसने मुझसे कुछ नहीं कहा और सीधे ऊपर चला गया। जब मुझे मालूम हुआ कि उसे गहरी चोट लगी है, तो मैं भागकर ऊपर गयी। मुझे देखकर, लगा जैसे उसकी आँखें एकाएक अपरिचित–सी हो गयीं हैं।

उस दिन मैं बहुत ही डर गयी थी। इसलिए कि माँ, बेटे से बहुत दूर चली गयी थी। उस घटना को बरसों बीत गये हैं। अब वह लड़का काम करने लगा है दिल्ली से बाहर। दूरी में –– मैंने उसे शायद, फिर पा लिया है। उसकी चिठ्ठियों में वही प्यार और अपनापन झलकता है। पर अभी हाल में ही मैं उसकी पुरानी फाइलों को साफ कर रही थी। उसमें उसकी लिखी एक डायरी मिली। डायरी में लिखा था – ‘जब तक जीवित रहूँगा, अपनी माँ को कभी माफ नहीं कर सकूँगा। मेरी माँ संसद और राजनीति के समुद्र में खो गयी है। मैं अपने घर में भी बहुत अकेला महसूस करता हूँ, आखिर क्यों? माँ के पास सबके लिए समय है, संवेदना है, तड़प है –– पर इतनी फुरसत कहाँ कि मेरे और उनके दरम्यान उठती दीवार को वह तोड़ सकें। मैं भी बहुत चुप होता जा रहा हूँ। पर फिर भी अपने बारे में एक कविता लिख रहा हूँ।

अकेलेपन से ओतप्रोत उसकी वह कविता मेरे जीवन में, सबसे अनोखा अहसास बन गयी है और इसलिए जब–तब मुझे महसूस होता है कि मैं बालकनी में खड़ी हूँ, समुद्र के किनारे और गिन रही हूँ जिंदगी की लहरों में खोये हुए अहसासों को, मुरझाए हुए रिश्तों को और साथ ही कभी–कभी तैरती हुई मछलियों को, जिन्हें पकड़ पाना तो संभव नहीं, पर महसूस करना संभव है, इस अहसास के साथ, जैसे वो कह रही हों ––
तुम हो जहाँ, बेशक वहाँ ऊँचाई है
मगर इस सागर की कोख में
गहरी खाई है ….
~ तारकेश्वरी सिन्हा

वसंत पंचमी और सरस्वती

वसंत पंचमी और सरस्वती पूजा की शुभकामनाएं …!!!

शिशिर का भाई हेमंत अभी भी उत्तर भारत में अपने पैरों को जमाए खड़ा है और ऋतुराज वसंत भी चौखट पर है । कहने का मतलब की ठंड है ।
यह तस्वीर 1650 की मेवाड़ स्टाइल पेंटिंग है । मैंने इधर करीब 5 सालों में लाखों अलग अलग तरह की देवी और देवताओं की पेंटिंग देखी है । मेरे पिछले ही मोबाईल में करीब 16000 तस्वीरें थी । सरस्वती क्रिएटिविटी की देवी हैं और मैंने देखा कि हर एक क्रियेटिव इंसान अपने क्रिएटिविटी में काल और स्थान / जियोग्राफिकल लोकेशन को ही दर्शाया है । उसकी कल्पना वहीं सिमट कर रहती हैं । अगर देवी / देवताओं की पेंटिंग करनी है तो वह कहीं न कहीं अपने मन को रंगों में उतार देता है । तिब्बत की देवी और दक्षिण की देवी की आकृति में अंतर है । अधिकांश देवताओं के चेहरे को कोमल बनाया गया क्योंकि यह मान कर चला जाता है कि जो सच में शक्तिशाली है उसके अंदर क्षमा की शक्ति आएगी ही आएगी और क्षमा आपके अंदर की कोमलता को बढ़ाएगी । हालांकि आजकल के शिव जिम से लौटते ज्यादा नजर आते हैं , शक्ति के लिए बेचैन कम । हा हा हा । खैर , फिर से एक बार लिख रहा हूं – शक्ति के हजारों रूप और उन रूपों तक पहुंचने का दो ही आधार – या तो ईश्वरीय देन या फिर साधना । अब मेरा यह पुरजोर मानना है कि साधना से प्राप्त शक्ति कि आयु कम होती है और ईश्वरीय देन अंतिम दिन तक रहता है और आकर्षण हमेशा ईश्वरीय देन वाली शक्ति ही पैदा करती है । लेकिन शक्ति का असल आनंद आकर्षण पैदा करने में नहीं है , खुद से उसके आनंद पाने में हैं । लेकिन इंसान का व्यक्तित्व ही इतना छोटा होता है कि वह आनंद छोड़ बाज़ार में आकर्षण पैदा करने निकल पड़ता है । अब यह सही है या गलत – बहस का मुद्दा है ।
लेकिन , मैंने सरस्वती को खुद को छूते हुए महसूस किया है , कब , कैसे और क्यों – पता नहीं । और शक्ति के किसी भी रूप का खुद को छूते हुए महसूस करना ही असल आनंद है या कभी कभी पीड़ा भी :)) हा हा हा ।
फिर से एक बार – वसंत पंचमी की ढेरों शुभकामनाएं …!!! ऋतुराज वसंत का आनंद लीजिए …
धन्यवाद ..!!!
~ रंजन / दालान / वसंत पंचमी – 2020

प्रकृति , धरा और ऋतुराज

धरा – सखी , ये किसकी आहट है ?
प्रकृति – ये वसंत की आहट लगती है ..
धरा – कौन वसंत ? हेमंत का भाई ऋतुराज वसंत ?
प्रकृती – हाँ , वही तुम्हारा ऋतुराज वसंत …:))
धरा – और ये शिशिर ?
प्रकृति – वो अब जाने वाला है …
धरा – सुनो , मैं कैसी दिख रही हूँ …
प्रकृति – बेहद ख़ूबसूरत …
धरा – सच बोल रही हो …न..
प्रकृति – मैंने कब झूठ बोला है …
धरा – ऋतुराज के साथ और कौन कौन है …
प्रकृति – कामदेव हैं …
धरा – ओह …फिर मुझे सजना होगा …
प्रकृति – मैंने तुम्हारा श्रृंगार कर दिया है …
धरा – वो कब और कैसे …
प्रकृति – सरसों के लहलहाते खेतों से ..आम्र की मंजरिओं से …
धरा – सुनो , फागुन भी आएगा ..न …
प्रकृति – तुम बुलाओ और वो न आए …:))
धरा – अबीर के संग आएगा ?
प्रकृति – गुलाल के संग भी …
धरा – सुनो ..मेरा और श्रृंगार कर दो …
प्रकृति – सूरज की नज़र लग जाएगी …
धरा – सुनो ..ये ऋतुराज वसंत कब तक रुकेंगे ?
प्रकृति – कहो तो …पूरे वर्ष रोक लूँ …
धरा – नहीं …नहीं…सच बताओ न …
प्रकृति – चैत कृष्ण पक्ष तक तो रुकेंगे ही …
धरा – कामदेव कहाँ हैं ?
प्रकृति – तुम्हारे नृत्य का इंतज़ार कर रहे हैं …
धरा – थोड़ा रुको …कब है नृत्य…
प्रकृति – वसंत पंचमी को …
धरा – सरस्वती पूजन के बाद ?
प्रकृति – हां …
धरा – सरस्वती कैसी हैं ?
प्रकृति – इस बार बड़ी आँखों वाली …
धरा – और उनका वीणा ?
प्रकृति – उनके वीणा के धुन पर ही तुम्हारा नृत्य होगा …
धरा – सुनो …मेरा और श्रृंगार कर दो …
प्रकृति – कर तो दिया …
धरा – नहीं …अभी घुँघरू नहीं मिले …
प्रकृति – वो अंतिम श्रृंगार होता है …
धरा – फिर अलता ही लगा दो …
प्रकृति – सारे श्रृंगार हो चुके हैं …
धरा – फिर नज़र क्यों नहीं आ रहा …
प्रकृति – जब ऋतुराज आते हैं …धरा को कुछ नज़र नहीं आता …
धरा – कहीं मै ख्वाब में तो नहीं हूँ …
प्रकृती – नहीं सखी …हकीकत …वो देखो तुम्हारा सवेरा …
धरा – दूर से आता …ये कैसा संगीत है …
प्रकृती – कामदेव के संग वसंत है …ढोल – बताशे के संग दुनिया है …
धरा – मेरा बाजूबंद कहाँ है …?
प्रकृती – धरा को किस बाजूबंद की जरुरत ?
धरा – नहीं …मुझे सोलहों श्रृंगार करना है ..मेरी आरसी खोजो ..
प्रकृती – मुझपर विश्वास रखो – मैंने सारा श्रृंगार कर दिया है …
धरा – नारी का मन ..कब श्रृंगार से भरा है ..
प्रकृती – चाँद से पूछ लो …:))
धरा – सुनो …ऋतुराज आयें तो तुम छुप जाना …आँगन के पार चले जाना …
प्रकृती – जैसे कामदेव में ऋतुराज समाये – वैसे ही तुम में मै समायी हूँ …
धरा – नहीं …तुम संग मुझे शर्म आएगी …
प्रकृती – मुझ बिन ..तुम कुछ भी नहीं …
धरा – सखी ..जिद नहीं करते …
प्रकृती – मै तुम्हारी आत्मा हूँ …आत्मा बगैर कैसा मिलन ..
धरा – फिर भी तुम छुप जाना …:))
ऋतुराज के रुकने तक …उनके ठहरने तक ….:))
………………
~ RR / 09.02.2016 / Patna

तस्वीर साभार : सुश्री गीता कामत , आसाम , भारत