हिन्दी दिवस …

हिन्दी दिवस …

आज हिंदी दिवस है – बचपन में ईकार को लेकर बड़ी मार पडी है – शब्दों के स्त्री लिंग / पुलिंग को भी लेकर – बताईये तो महाराज – एक बच्चा क्या क्या समझे 🙁 ? ये बात हम पूछते भी तो किससे पूछते 🙁 जिससे पूछते – वही दो चटकन देने को तैयार रहता – “घी, दही हाथी , मोती , पानी ” – ये सब पुलिंग हैं …बाकी के वो सारे शब्द जो दीर्घ ईकार से बने हैं – सभी स्त्रीलिंग – लीजिये , फोर्मुला आ गया ! मैट्रीक में सबसे कम नंबर हिंदी और अंग्रेज़ी में आये – गणीत / विज्ञान / संस्कृत में बहुत ज्यादा – हिंदी / अंग्रेज़ी में जस्ट पास …:( पूरा परसेंटेज घींच के निचे 🙁
भाषण देना और लेख लिखना – बढ़िया लगता था – डॉ वचन देव कुमार से तनिक भी कमज़ोर लेख नहीं लिखते थे – व्याकरण से कोई लेना देना नहीं – बचपन में सिखाया गया – ” भाषा और सभ्यता दोनों हर चार कोस पर बदल जाती है ” – फिर ये व्याकरण कहाँ से आया ..भाई ? जब हर चार कोस पर बदल ही जाना है – फिर काहे को इतना हेडेक लें …हर समझदार भाषा लचीली होती है …समय / जगह के हिसाब से खुद में बदलाव – शुद्ध भाषा होना मतलब – अपने अस्तित्व पर ही खतरा !
अपनी अंग्रेज़ी को ही देखिये – समुन्दर है – हर साल टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में एक खबर – ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी वालों ने फलाना – फलाना शब्द जोड़ लिए ..संस्कृत / लैटिन / अरबी ..संभवतः अपने आप में एक पूर्ण भाषा हैं …
ज्यादा हमको जानकारी नहीं है ..भाई …आठवां – नौवां में हिंदी पढ़े थे ..बस …जी भर पढ़े …उसके बाद ..जो बोलते हैं…वही लिखते हैं …
पर अब …थोडा बढ़िया ..बोलना – लिखना चाहते हैं …:))

रंजन / दालान / १४.०९.२०१३

हिंदी की जिम्मेदारी किन कन्धों पर होनी चाहिए – यह महत्वपूर्ण है ! सबसे ऊपर हैं – हिंदी के पत्र पत्रिका और पत्रकार – ये वो हैं जिन्हें हम हर रोज सुनते पढ़ते हैं – हिंदी को आकर्षक बनाने की जिम्मेदारी इन कन्धों पर है – जब तक यह आकर्षक नहीं बनेगी तब तक यह जन मानस को अपील नहीं करेगी और समाज हमेशा अपनी खूबी और गन्दगी दोनों ऊँचे तबके से लेता है – “बहाव हमेशा ऊपर से निचे होता है “- हिंदी को समाज के उस तबके में अपनी पैठ बढानी होगी ! कई बेहतरीन पत्रिका बिलकुल नीरस हो चुकी हैं – कालिदास / दिनकर / निराला / जयशंकर प्रसाद को लोग हर रोज नहीं पढ़ते हैं –
दूसरी बात – साहित्य / सिनेमा इत्यादी हमेशा काल को दर्शाता है – आज के दौर के बच्चों को प्रेमचंद के किस्से की कल्पना में ढालने में बहुत दिक्कत होगी – जुम्मन शेख जैसे पात्र जब तक उनके आँख के सामने नहीं आयेंगे – वो कहानी का मर्म नहीं समझ पाएंगे – समाज का एक बड़ा तबका शहरों और विदेशों में पल बढ़ रहा है – यह वही तबका है जो हर चीज़ों का मापदंड निर्धारीत करता है – दुसरे भी उसी को फौलो करते हैं – निराला / दिनकर इत्यादी के अलावा भी कई साहित्यकार हैं जिन्हें पढ़ा जाता है – उनको जमाने के हिसाब से अपनी कथाएं लिखनी होंगी ..लिखी भी जा रही हैं …पर मौलिकता के चक्कर में वो कभी कभी गंदी भी दिखने लगती हैं ….
कई बार समाज लिड करता है – कई बार समाज को दिशा दिखानी पड़ती है – हिंदी अखबारों के पत्रकारों के लिए यह बहुत आसान है – पर दुःख है – अंग्रेज़ी की नक़ल में वो बड़े बेढंगे दिखते हैं और तब एक दर्द होता है ! जो बढ़िया लेख हैं – समाज में जो कुछ असल में हो रहा है वो सब उसी रूप और रंग में हिंदी में भी नज़र आनी चाहिए !
हाँ …पढने वालों को भी अपनी परीपक्वता बढानी होगी …और मेरा यह मानना है …परिपक्वता पढ़ते पढ़ते बढ़ जायेगी ….
~ 14 September 2014 / दालान

हिंदी पत्रिकाएं अपने बूते नहीं चलती और फलतः बीच रास्ते में ही दम तोड़ देती हैं। अपने बचपन को जब याद करते हैं तो चंदामामा की पहली याद आती है। फिर मित्र प्रकाशन की मनमोहन।१९५५-५६ में पराग का प्रकाशन आरम्भ हुआ जिसकी अतिथि संपादक कामिनी कौशल जी थी। पराग के देखा-देखी नंदन का प्रकाशन आरम्भ हुआ। चुन्नू-मुन्नू,बालक आदि का प्रकाशन बच्चों को ज्ञान वर्धन के लिए मील का पत्थर साबित होने वाली थी। किन्तु आपसी स्पर्द्धा के कारण शिव पूजन सहाय तक बालक को युवा नहीं बना सके। देखा-देखी कई समाचार प्रकाशकों ने हिंदी क्षेत्र में बाल पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया,जिसमें कलकत्ता से प्रकाशित अमृत बाज़ार पत्रिका ने आनंद मेला ने पकड़ मजबूत की। एक बात गौर करने वाली है कि अधिकाँश बाल पत्रिकाएं गैर हिंदी संगठनों ने आरम्भ किया क्योंकि उन्हें इनमें लाभ नज़र आया। चंदामामा दक्षिण भारत से निकलती थी। मनमोहन मित्र प्रकाशन (बंगाली परिवार) से निकलती थी। आनंद मेला भी बंगाल से ही निकली। इसी प्रकार कई प्रकाशन लाभ के कारण पत्रकारिता जगत में आये और फिर कुछ दिनों में समेट कर निकल पड़े। इसी प्रकार हिंदी की अन्य पत्रिकाएं भी ,यथा धर्मयुग,साप्ताहिक हिंदुस्तान,सारिका आदि ,दम तोड़ कर ख़त्म हो गयी। एक पत्रिका कहानी नाम की निकलती थी, जिसकी कहानियाँ कलेजे को छूती थी। ज्ञानोदय,नवनीत जैसी ना जाने कितनी साहित्यिक पत्रिकाएं हिंदी पाठकों के बीच अपनी पैठ जमा ली थी,पर वह भी चली गयी। कुछ समय उपरांत नया ज्ञानोदय नाम से छपने लगी किन्तु मासिक से द्वै मासिक हो गयी ,पर रुक-रुक कर निकलती है। प्रेमचंद जी की हंस का पुनर्प्रकाशन उनके पुत्र अमृत राय ने आरम्भ किया और हिंदी साहित्य जगत को काफी उम्मीदें थी,पर संभवतः अमृत राय और श्रीपत राय के आपसी मनमुटाव में उसके प्राण पखेरू तिलमिलाने लगे तो राजेन्द्र यादव नें हंस का संपादन अपने हाथ में ले लिया। हंस ठीक ही चल रहा था पर फिर उसका भी अवसान हो गया। इसी प्रकार ना जाने कितनी पत्रिकाओं ने जन्म लिया और ना चल पाने के कारण बंद कर दी गयी। हमने तो बड़े चाव से इन पत्रिकाओं को सहेज कर रखा था।वर्ष १९५५ से धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दूस्तान ,सारिका आदि का संग्रह मैंने १९७१ के फरवरी महीने तक रखा।मार्च में मेरी बदली झरिया हो गयी तो माँ ने सारी पत्रिकाएं रद्दीवाले को बेच दी। बाद में जब पता चला तो मन मसोस कर रह गया। माँ के अनपढ़ होने का नुकशान मुझे उठाना पड़ा। इसके बाद मैंने संग्रह करना बंद कर दिया। बस खरीदता,पढता और बेच देता। लेकिन मन के एक कोने में साहित्य का कीड़ा जमा रहा और वह पिछले पांच-छह वर्षों पूर्व निकला। किन्तु इस बीच हिंदी की पत्रिकाओं की दुर्दशा देखता रहा, पर कुछ कह और कह नहीं सका था ।आज रंजन जी ने प्रसंग छेड़ा तो मन बिफर गया और अपनी यादों की पिटारी से कुछ नामचीन पत्रिकाओं को स्मरण कर लिया। धन्यवाद रंजन जी।
~ बालमुकुंद द्विवेदी / 14.09.2015 / कमेंट के रूप में

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