मै कोई साहित्यकार / लेखक / पत्रकार / कवी / शायर नहीं हूँ – बस जो जब दिल में आया लिख दिया – करीब ठीक दस साल पहले – मैंने यूँ ही रोमन लिपि में हिंदी भाषा में – रामेश्वर सिंह कश्यप उर्फ़ लोहा सिंह से प्रेरित होते हुए – खुद पर ही एक बेहतरीन व्यंग किया था – जिसकी दो प्रतिक्रिया हुई – एक इंटरनेट मित्र ने मुझे बड़े ही अजीब ढंग से देखा और मेरे बारे में बहुत ही गलत छवी बना ली – उन्हें मै देहाती / फलना / ढ़कना मालूम नहीं क्या क्या ..बहुत कोशिश मैंने की ..पर वो मेरे बारे में गलत ही सोचते रहे – वहीं दूसरी तरफ एक और भईया समान मित्र जो एक मल्टीनेशनल में ग्लोबल हेड हैं – मेरे पीछे पड़ गए – रंजन तुममे असीम संभावनाएं हैं – तुम लिखो – फिर मै लिखने लगा !
“एक ही लेख ..दो अलग अलग लोगों पर अलग अलग छाप छोड़ गया “
शब्द छवी बनाते हैं – कोई आपके अन्दर नहीं झांकने जाता – जैसे आपके बैंक मे आपके पास कितना पैसा है – किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है – अब क्या पहनते हैं – क्या ओढ़ते है – कैसा जीवन जीते हैं – लोग वही देख आपके लिए एक छवी बनाते हैं – ठीक उसी तरह आपके मुख से / आपके कलम से क्या निकलता है – वही आपकी छवी बनती है – “शब्द नकाब होते हैं” !
पर …पर ..आपके बैंक में कितना पैसा है …यह आपके परिवार के लिए महतवपूर्ण है …ठीक वैसे ही ..आप अन्दर से कैसे इंसान है …यह आपके करीब के लोगों के लिए काफी महतवपूर्ण है …आप क़र्ज़ लेकर खूब महंगे कपडे पहने …खूब चमक दमक से रहे ..और अन्दर ही अन्दर खोखले हैं …अन्तोगत्वा सब कुछ फीका लगेगा …ठीक उसी तरह ..आपका व्यक्तित्व अन्दर से एकदम खोखला है ..और आपके शब्द कुछ पल / दिन के लिए लोगों को भरमा सकता है …पर जिस दिन वो नकाब गिरेगा …आपको नंगा देख दुनिया घृणा करने लगेगी …!
बेहतर है …हम स्वाभाविक रहे …
~ रंजन / दालान / 21.11.2013
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