मदारी July 31, 2023 / ranjanrituraj मदारी की भी तो कुछ मजबूरियां रही होंगी … वर्ना कौन अपना वक्त जाया कर के मुझे इस कदर नचाता …~ अब जब मदारी जिस रोज घर से बाहर नहीं निकलता है , उस रोज मै भयभीत हो जाता हूं । आज ना वो मुझे नचाएगा और ना ही मेरे नाचने पर चंद सिक्के आएंगे …फिर भोजन कहां से आएगा ?देर सुबह मै उसके पैर झकझोरता हूं – उठो , जागो अब देर हो रही । तुम्हे कमाने जाना है और मुझे नाचने । अब यही बंधन अच्छा लगता है । बंधन तो है लेकिन दो वक़्त की रोटी भी तो मिलती है । हां , मदारी जब अपने बड़े एल्युमिनियम के कटोरे से कुछ कुछ निकाल खाता है । मै भी वहीं बैठा रहता हूं – अब मुझे भी कुछ मिल जाएगा 😐 देह हाथ कि थकान खत्म हो जाती है जब अंत में वो अपने झोले से केला निकालता है ।कभी कभी मन करता है – भाग जाऊं , वापस लौट जाऊं अपने झुंड में । फिर अपने झुंड में अपनों को किस्से सुनाऊं – शहर के मदारी का खेल और उस खेल से निकले दो वक़्त की रोटी का…कौन सुनेगा उस झुंड में मेरे किस्से … वो तो अपनी दुनिया में मस्त होंगे …एक टहनी से दूसरी टहनी …अपनी प्रकृति के संग …अपनी दुनिया में मस्त …या फिर मै ही फंस गया या यही मेरी प्रकृति बन गई …मदारी के साथ …इस शहर से उस शहर … इस गली से उस गली…इस दरवाजे से उस दरवाजे …~ रंजन / दालान / 28 जुलाई 2020 Share this:TwitterFacebookLike Loading... Related