छठ की यादें : रंजन ऋतुराज

छठ की यादें : रंजन ऋतुराज

कल से ही अखबार में ‘छठ पूजा’ को लेकर हो रही तैयारी के बारे में समाचार आने लगे ! आज तो दिल्ली वाला ‘हिंदुस्तान दैनिक’ फूल एक पेज लिखा है ! कल दोपहर बाद देखा – फेसबुक पर् शैलेन्द्र सर ने एक गीत अपने वाल पर् लगाया था – शारदा सिन्हा जी का ! गीत सुनते सुनते रोआं खडा हो गया और आँख भर आयी !
“छठी मैया …छठी मैया…..” …………..
क्या लिखूं ? अपना वतन याद आ रहा है ! अपना गाँव – शहर – अपने लोग ! क्या खोया – क्या पाया ..इसका हिसाब तो बाद में होगा ! ये चमक – ये दमक – ये धन – ये दौलत – ये रोब – ये अकड – ये घमंड ..कभी कभी ये सब फीका लगता है ! खैर …
दशहरा के बाद ही ‘कैलेण्डर’ में ‘चिन्हा’ लगा दिया जाता था – कहिया गाँव जाना है ! हमारे गाँव में एक बहुत खूबसूरत परंपरा थी – दशहरा से लेकर दीपावली के बीच ‘नाटक’ खेला जाता था ! कभी पहले पहुंचा तो ..नाटक में भाग ले लेता था ! अब कुछ नहीं होता – अब हर घर में टी वी है ! मेरे घर में एक परंपरा है – हर होली और छठ में परिवार के सभी लोगों के लिये ‘कपड़ा’ खरीदने का पैसा – बाबा देते हैं – आज उनकी उम्र करीब चौरासी साल हो गयी – फिर भी इस बार दशहरा में उनसे मिला तो ‘छठ’ के नाम पर् वो बच्चों और पत्नी के कपडे के लिये कुछ पैसा – मां को दिए – फिर मां ने हमारी पत्नी को दीं ! 🙂 पैसा से ज्यादा ‘आशीर्वाद’ होता है !
बचपन में ये पैसा से हमलोग का कपड़ा खरीदाता था ! रेडीमेड का जमाना नहीं था ! मा बाबु जी के साथ रिक्शा से जाना – कपड़ा खरीदना – फिर उसको ‘फेरने’ जाना 😉 ‘फेरते’ वक्त बाबु जी नहीं जाते – खैर ..कपडा खरीदा गया ! दीपावली भी मन गया ! मुजफ्फरपुर में रहते थे – एक दिन पहले रिक्शा वाले को बोल दिया जाता की – सुबह सुबह ३ बजे आ जाना ! उस रात ..माँ रात भर कपडा को सूटकेस में डालती ! हल्का ठण्ड भी होता था सो स्वेटर वैगरह !
सुबह सुबह रिक्शा आ जाता ! सूटकेस रखा जाता ! एक रिक्शा पर् माँ और बहन और एक पर् बाबु जी और हम ! पैर को सूटकेस के ऊपर लटका के ! बाबु जी के गला में मफलर और एक हाफ स्वेटर ! चार बजे एक बस – रेलवे स्टेशन के सामने से खुलता था ! ठीक उसी वक्त एक ट्रेन ‘कलकत्ता’ से आता – हम लोग जब तक पहुंचते बस भर चूका होता ! सिवान के बच्चा बाबु का बस होता था – कंडक्टर – खलासी – ड्राईवर जान पहचान का सो सीट का इंतजाम हो जाता ! अब इमेजीन कीजिए – पूरा बस ‘कलकतिया’ सब से भरा हुआ ! “चुकुमुकू” कर के सीट पर् बैठ कर बीडी ! भर माथा ‘कियो-कारपीन’ तेल ! एक झोला और झोला में तरह तरह का साबुन 🙂 और पाकीट में ‘गोल वाला चुनौटी’ 😉 खिडकी खोल के हवा खाता 🙂
गाँव से कुछ दूर पर् ही एक जगह था – वहाँ हम लोग उतरते ! माँ को चाय पीने का मूड होता ! तब तक बाबु जी देख रहे होते ही गाँव से कोई आया है की नहीं ! पता चलता की ‘टमटम’ आया हुआ है ! माँ और बहन टमटम पर् ..पूरा टमटम साडी से सजाया हुआ ! ‘कनिया’ 🙂 हम और बाबु जी हाथी पर् ! हम लोग निकल पड़ते ..! वो लहलहाते खेत ! रास्ता भर हम बाबु जी को तंग करते जाते – ये खेत किसका है ? इसमे क्या लगा है ?
गाँव में घुसते ही – बाबु जी हाथी से उतर जाते और पैदल ही ! जो बड़ा बुजुर्ग मिलता – उसको प्रणाम करते – अपने बचपन के साथीओं से मिलते जुलते ! तब तक हम दरवाजे पर् पहुँच जाते ! बाबा को देख जो खुशी मिलती उस खुशी को बयान नहीं कर सकता ! वो खादी के हाफ गंजी में होते – सीसम वाला कुर्सी पर् – आस पास ढेर सारे लोग ! उनको प्रणाम करता और कूदते फांदते आँगन में ..दीदी( दादी)  के पास ! आँगन में लकड़ी वाला चूल्हा – उस चूल्हे से आलूदम की खुशबू ! आज तक वैसा आलूदम खाने को नहीं मिला 🙁  दरवाजे पर् कांसा वाला लोटा में पानी और आम का पल्लो लेकर कोई खडा होता ..माँ के लिये ! फिर ‘भंसा घर’ में जा कर ‘कूल देवी’ को प्रणाम करना ! इतने देर में हम ‘दरवाजा – आँगन’ दो तीन बार कर चुके होते ! ढेर सारे ‘गोतिया’ के भाई बहन – कोई रांची से – कोई मोतिहारी से – कोई बोकारो से ! कौन कब आया और कितने ‘पड़ाके’ साथ लाया 🙂 तब तक पता चलता की ‘पड़ाका’ वाला झोला तो मुजफ्फरपुर / पटना में ही छूट गया ! उस वक्त मन करता की ‘भोंकार’ पार कर रोयें ! गोतिया के भाई – बहन के सामने सारा इज्जत धुल जाता ! माँ को तुरंत खड़ी खोटी सुनाता ! दीदी ( दादी ) को ये बात पता चलता – फिर वो बाबा को खबर होता ! बाबा किसी होशियार ‘साईकील’ वाले को बुलाते – उसको कुछ पैसा देते की पास वाले ‘बाज़ार’ से पड़ाका ले आओ 🙂
दोपहर में हम बच्चों का डीयुटी होता की पूजा के परसाद के लिये जो गेहूं सुख रहा है उसकी रखवाली करो के कोई कौआ नहीं आये ! हम बच्चे एक डंडा लेकर खडा होते ! बड़ा वाला खटिया पर् गेहूं पसरा हुआ रहता …फिर शाम को कोई नौकर उसको आटा चक्की लेकर जाता ! कभी कभी हम भी साथ हो जाते ! बिजली नहीं होता था ! आटा चक्की से एक विशेष तरह का आवाज़ आता ! वो मुझे बहुत अच्छा लगता था !
दादी छठ पूजा करती ! पहले बाबु जी भी करते थे ! आस पास सभी घरों में होता था ! नहा खा के दिन बड़ा शुद्ध भोजन बनता ! खरना के दिन का परसाद सभी आँगन में घूम घूम के खाना ! छठ वाले दिन – संझीया अरग वाले दिन – जल्दी जल्दी तैयार हो कर ‘पोखर’ के पास पहुँचाना ! बहुत साल तक माँ नहीं जाती – फिर वो जाने लगीं ! वो सीन याद आ रहा है और आँखें भींग रही हैं ! १५ – २० एकड़ का पोखर और उसके चारों तरफ लोग ! रास्ता भर छठ के गीत गाते जाती महिलायें ! भर माथा सिन्दूर ! नाक से लेकर मांग तक ! पूरा गाँव आज के दिन – घाट पर् ! क्या बड़ा – क्या छोटा – क्या अमीर – क्या गरीब ! गजब सा नज़ारा ! पोखर के पास वाले खेत में हम बच्चे ..पड़ाका में बिजी ..तब तक कोई आता और कहता ..’अरग दीआता’  …पड़ाका को वहीँ जैसे तैसे रखकर दादी के पास ..वो “सूर्य” को प्रणाम कर रही हैं ….आस पास पूरा परिवार …क्या कहूँ इस दृश्य के बारे में ….बस कीबोर्ड पर् जो समझ में आ रहा है ..लिखते जा रहा हूँ ….
हमारे यहाँ ‘कोसी’ बंधाता है – आँगन में ! उस शाम जैसी शाम पुर साल नहीं आती ! बड़ा ही सुन्दर ‘कोसी’ ! चारों तरफ ईख और बीच में मिट्टी का हाथी उसके ऊपर दीया …! घर के पुरुष कोसी बांधते ..हम भी पुरुष में काउंट होते 🙂  बड़े बड़े पीतल के परात में परसाद ! वहाँ छठ मैया से आशीर्वाद माँगा जाता – हम भी कुछ माँगते थे 🙂 फिर दादी को प्रणाम करना !
अब यहाँ एक राऊंड फिर से दरवाजा पर् ‘पड़ाका’ ! पूरा गाँव हील जाता 😉 दादी कम्बल पर् सोती सो उनके बड़े वाले पलंग पर् जल्द ही नींद आ जाती …सुबह सुबह ..माँ जगा देती ….कपड़ा बदलो ….पेट्रोमैक्स जलाया जाता …कई लोग “लुकारी” भी बनाते ! कई पेट्रोमैक्स के बीच में हम लोग फिर से पोखर के पास निकल पड़ते ! दादी खाली पैर जाती थी ! पूरा गाँव ..नहर के किनारे ….  एक कतार में ……पंडीत जी की खोजाई होती ..’बनारस वाला पत्रा’ देख कर वो बताते …सूरज भगवान कब उगेंगे ….उसके १० -१५ मिनट पहले ही दादी पोखर के किनारे पानी के खडा होकर ‘सूर्य’ भगवान को ध्यानमग्न करती ! अरग दिआता !
पूजा खत्म हो चूका होता ! पोखर से दरवाजे लौटते वक्त …तरह तरह का परसाद खाने को मिलता ! किसी का देसी घी में तो किसी का ‘तीसी के तेल ‘ का 🙂 फिर दरवाजे पर् आ कर ‘गन्ना चूसना’ :)) फिर हम दादी के साथ बैठ कर खाते – पीढा पर् !
अब दिल धक् धक् करना शुरू कर देता ..बाबु जी को देखकर डर लगता ..मालूम नहीं कब वो बोल दें …मुजफ्फरपुर / पटना वापस लौटना है 🙁 बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती …माँ को देखता …वो धीरे धीरे ‘टंगना’ से सिर्फ हम लोगों के ही कपडे चुन चुन कर एक जगह रख रही होतीं ….ऐसा लगता ..अब दिल बाहर आ जायेगा ….तब तक देखता ..टमटम सजा खडा है ..पता चलता की ‘मोतीहारी’ वाले बाबा का परिवार वापस जा रहा है …सब गोतिया – पटीदार के भाई बहन हम ऐसे मिलते जैसे ..मालूम नहीं अब कब मिलेंगे ….बाबा के पास दौर कर जाता ..काश वो एक फरमान जारी कर दें …एक दिन और रुकने का ….बाबा ने फरमान जारी कर दिया और हम लोग एक दिन और रुक गए :))
अगले दिन …जागते ही देखता की ..बाबू जी ‘पैंट शर्ट ‘में 🙁 मायूस होकर हम भी ! माँ का खोइंछा भराता..कुल देवी को प्रणाम ..दादी के आँखें भरी ..माँ की …दादी – बाबा आशीर्वाद में कुछ रुपये ..पॉकेट में छुपा कर रख लेता 🙂
फिर होली का इंतज़ार …..
….मालूम नहीं ..क्या लिखा ..कैसा लिखा ..बस बिना संपादन ..एक सांस में लिख दिया ….कम्मेंट जरुर देंगे !

रंजन ऋतुराज / 8 नवम्बर , 2010 / इंदिरापुरम

3 comments

anupama shukla

छठ पूजा का बहुत ही महत्व है

Alok kumar

बड़ा मार्मिक और जीवंत चित्रण है। हम लोगों को तो गाँव मे 3-4 साल ही छठ मनाने को मिला, उसके बाद टाउन में ही गंगा जी के किनारे मानते आए हैं।
ख़ासतौर पर छठपर्व पर अप्रवासी बिहारी के मन का आनंद अपने चरम पर होता है और वैसा ही लौटानी के समय भावुकता अपने उफान पर होती हैं।
आपकी लेखनी ने उन भावनाओ का मान रखा है।
एक अप्रवासी बिहारी के लिए ” सूगवा के मरबो धनुष से” से बढ़कर कोई गीत नहीं है। कोई बिहारी कितना भावुक हो सकता है, उसका अंदाजा उसे इस गीत को सुना के लगाया जा सकता है।
धन्य है आपकी लेखनी जो इन भावनाओं को सजीव उतार देती हैं।

Rajbardhan Mishra

Nostalgic!! Aisa laga jaise mai apna bachpan jii raha hu. Barah saal se ghar ka Chhath nhi dekh paya. Door desh ne mauka hi nhi diya.
Apke Daalaan ka rojana ka pathak.

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