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दिनकर जी की कविताएं

ताजिया / तजिया

डायना: ब्रिटेन की राजकुमारी

DaalaanBeauties

~ स्वयं उस खून से थी जिसने चर्चिल जैसे महान राजनेता सह विचारक पैदा किए और ब्याही गई विश्व के सबसे बड़े सामंती परिवार में ।
: बेहद पसंद । हाई स्कूल और कॉलेज के जमाने में शायद ही कभी इनका खबर रुचि से नही पढ़ा होऊंगा । अखबार या मैगजीन में ये छप जाएं तो कुछ देर निहारना ही अपने आप में परम आनंद होता था । स्मार्ट और नए युग की सरल विद्रोही ।
~ आज भी वो पल याद है जब इनके देहांत की खबर मिली । सारा विश्व अवाक रह गया था । पति के साथ उम्र , अनुभव , पीढ़ी , समझ , रहन सहन से भिन्न ने समस्त दुनिया को अपने रंग ढंग से आकर्षित किया था । गलत या सही लेकिन डोडी इनके कद का नहीं था । राजमहल से निकलने के बाद , बेचैनी तो बढ़ ही गई थी । समुंदर किनारे डोडी के साथ जब पापराजी इनकी तस्वीर मिडिया में लाए तो वह एक उन्मुक्त जीवन नही बल्कि एक बेचैनी थी । सामंती बड़े शांत होते हैं । एक झटके में सब खत्म हो गया ।
~ इनके पाकिस्तानी मित्र डॉ खान कहते हैं की इनके टॉट बैग में हमेशा कंट्रासेप्टिव पिल होता था इसलिए इनके मृत्यु के वक्त इनका गर्भवती होना मुश्किल है ।
: खुद का बचपन भी माता पिता के मनमुटाव के कारण काफी मानसिक त्रासदी वाला रहा था । चाइल्ड साइकोलॉजी सम्पूर्ण जिंदगी चलती है । शायद वहीं से एक शालीन विद्रोह इनके मन में पनपा और विश्व के सबसे बड़े सामंती परिवार की रानी तो नही बन पाई लेकिन समस्त विश्व में एक पीढ़ी के दिलों की रानी अवश्य बनी ।
~ क्या जिंदगी है 😐 और फिर क्यों किसी को तौलना ? महज 36/37 साल में इस धरती से विदाई , तब जब आप समस्त विश्व के निगाहों को झेल रही हों । कोई पिता इससे बेहतर घराना क्या खोज सकता है ? और उस राजमहल में भी करवट बदल कर जिंदगी 😐 जैसे , सब कुछ तकदीर ही है । घटनाएं घटती है , इंसान परिस्थिति से घिरा अपने समझ और अनुभव के सहारे निर्णय लेता है और फिर एक पल में सब कुछ स्वाहा …
: लेकिन फिर भी व्यक्तित्व की खुशबू कई पीढ़ी महकती रहती है 😊 आप आज भी महक रही हैं , अपने अनंत चार्म के साथ ❤️
: रंजन , दालान

मुंशी प्रेमचंद और रफी साहब

क्रिएटिविटी की दुनिया में आज का दिन महतवपूर्ण है ! आज महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन है और महान पार्श्व गायक मोहम्मद रफ़ी साहब का पुण्यतिथि !
मुंशी प्रेमचंद से मुलाकात उनकी कहानी ‘दो बैलों की कहानी’ से हुई थी ! फिर पञ्च परमेश्वर , नमक का दारोगा , बड़े घर की बेटी ! ठीक चार साल पहले मैंने उनकी कहानिओं का पूरा संग्रह भी ख़रीदा था ! सौ साल – नब्बे साल पुरानी कहानी – आज भी जिन्दा है ! कभी कभी लगता है – मुंशी प्रेमचंद की नज़र कितनी पैनी रही होगी की आस पास के किरदार को उठा कर – उन किरदारों को वो अमर बना दिए ! अदभुत ! उनकी कहानिओं में – उनके शब्दों में – कहीं जटिलता नहीं है तभी तो वो महान बन पाए ! ईश्वरीय देन है ! क्रिएटिविटी की दुनिया का प्राण ही मौलिकता होता है ! जो मौलिक है – वही अमर है !
आज रफ़ी साहब की पुण्यतिथि भी है ! रफ़ी साहब को बैजू बावरा सिनेमा के गीतों से जाना था और आज भी वो सारे गीत बेहद पसंद हैं ! वो आत्मा से गाते थे – शायद इसी वजह से उनके गीत उनके आत्मा से निकल सुनने वाले की आत्मा में प्रवेश कर जाता था ! उनका एक गीत ‘मैं निगाहें तेरे चेहरे से हटाऊँ कैसे …लूट गए होश तो होश में आऊँ कैसे’ – बेहतरीन ! हज़ारों गीत से – कोई एक पसंदीदा गीत चुनना बहुत मुश्किल है !
समाज की समझ पैदा करनी हो तो मुंशी प्रेमचंद को पढ़िए और रोमांस और महबूबा के मनोभाव को समझना है तो रफ़ी साहब को सुनिए !
पर याद रखिये – क्रिएटिविटी की दुनिया ‘मौलिकता’ पर टिकी होती है ! मिटटी के खिलौने भी सजते है , ख़ूबसूरत लगते है – बशर्ते वो मौलिक हों :))
आप दोनों को नमन….!!!
~ रंजन / दालान / ३१ जुलाई /२०१६

छाता …

छाता 😊
~ अगर बचपन को याद करूं तो छाता जरूरत के साथ साथ सभ्यता का भी प्रतीक होता है । पहले बेंत वाले छाते आते थे 😊 गांव के बाजार पर एक छाता मरम्मत वाले बैठते थे । कुछ ग्रामीण छाता मरम्मत वाले के सड़क किनारे चुकुमुकू बैठ अपनी छाता मरम्मत करा रहे 😊
: गांव के बड़े गृहस्थ / जमींदार से लेकर खेतों में काम करने वाले मजदूर तक छाता अपनी हैसियत के हिसाब से रखते । बचपन में कलकत्ता से छाता आता था । शायद के सी पाल का । फिर नेपाल से चाइनीज छाता आने लगा । बटन वाला । इसका कपड़ा थोड़ा सिल्की । बाबा नेपाल से खरीद कर लाए तो बगल के गांव शेर के एक राय जी छाता लेकर जिद पर अड़ गए की आपके हाथी पर सवार छाता को लगाए अपने गांव जायेंगे 😀 बड़े धनिक लोग , संबंधी भी लेकिन गैर जमींदार तो मन में एक कसक , हाथी पर सवार होकर छाता लगाना है 😀 चलो भाई , छाता लेते जाओ । धन और मिजाज दोनो अलग अलग चीज है ।
~ बाबा को टॉर्च , घड़ी , कलम और छाता का बहुत शौक । बढ़िया छाता । लाल बत्ती एंबेसडर से आहिस्ते से उतरना । सफेद खादी कुर्ता , धोती , पॉकेट में कलम , एचएमटी का काजल घड़ी और एक अरदली छाता लिए पीछे से । क्या दृश्य रहता था । अब वो इस खानदान में कोई नहीं भोगेगा 😐 सब कहानी खत्म है । जय जय सियाराम 😐
~ हमारे दौर में ही लेडीज छाता आया । बड़का बैग में समा जाने वाला । मास्टरनी लोग रखता था । मोट मोट काजल वाली मैडम लोग । छाता लगाए और इस बरसात ठेहुन तक साड़ी उठाए 🙄
: मालूम नही कब हम पुरुष भी ये लेडीज छाता प्रयोग करने लगे 😐 छोटका लेडीज छाता अब लेडीज नही हो कर यूनिसेक्स हो गया । लइका , बूतरू, बूढ़ा , जवान सब लेडीज छाता प्रयोग करने लगा । जो छाता घर की मलकीनी प्रयोग कर रही , वही छाता किचेन हेल्पर भी 😐 छाता का इज्जत लोग खा गया 😐
~ छाता एक हथियार भी होता है । बड़का वाला । सरकारी स्कूल के मास्टर लोग बड़ी मार मारता था : दे छाता… दे छाता 😀 हम छाता से मार नही खाए हैं ।
~ हमको छाता का बहुत शौक । अभी एक बड़ा वाला खरीदे हैं । कार में रखा रहता है । व्हाइट हाउस में भी अमरीका प्रेसिडेंट के पीछे छाता लिए खड़ा । यहां वह छाता हैसियत और ताकत का प्रतीक बन जाता है 😊 मुझे अच्छा लगता है ।
: कुछ आप लोग भी लिखिए 😊 यहां नही लिख सकते तो दालान पर कमेंट कीजिए । दिन भर बॉस के आगे कांख में फाइल चांप खड़ा रहना अच्छा नही लगता 😐 थोड़ा हिसाब से : ऑफिस में छाता चोरी भी बहुत होता है 😀 बाहर से आए और कहीं लटका दिए , उधर से रंजन जी आए और आपका छाता लेकर चल दिए 😀 खोजते रहिए 🙄
~ रंजन जी ’छाता वाले’ , दालान

पंकज त्रिपाठी

PankajTripathi / 2020

आज दोपहर फोन से एक मैसेज लिख रहा था तो बेटी ने पूछा – कहां व्यस्त हैं ? तो मैंने कहा – पंकज को मैसेज कर रहा हूं । बेटी वापस चली गई और लौट कर पूछी – कौन पंकज ? मैंने कहा – पंकज त्रिपाठी गोपालगंज वाले । बेटी फिर वापस चली गई । फिर अचानक से लौटी और चहकने लगी – बॉलीवुड के सबसे डाउन टू अर्थ और अत्यंत बेहतरीन कलाकार , फिर उसने ढेर सारे सिनेमा के नाम बताए जिसमे मिर्ज़ापुर प्रमुख था । फिर उसे विश्वास भी नहीं हुआ । हा हा हा ।
तीन साल पहले , मैंने अंतिम सिनेमा देखी और वो थी – न्यूटन । सपरिवार । क्या नेचुरल एक्टिंग थी । गजब ।
और आज जब उनके व्यस्त क्षणों में बहुत थोड़ी बात हुई तो मेरा पहला ही प्रश्न था – कैसे इतना डाउन टू अर्थ व्यक्तित्व और असीम मौलिकता ? वो थोड़े गंभीर हुए और बोले – बस जमीन से तार जुड़े हुए हैं । कई प्रश्नों के उत्तर का सार यही था – बेतार नहीं हुआ हूं ।
गैंग्स ऑफ वासेपुर में इन्हे पहली दफा देखा था तब नहीं पता चला कि इनकी भी मिट्टी वही है जो मेरी मिट्टी है । फिर सोशल मीडिया से पता चला कि ये भी गोपालगंज के है । फिर पिछले साल मेरे मित्र और मेरे जबरदस्त पाठक – सुमंत तिवारी जी यह ज़िद लेकर बैठ गए की मेरी बात इनसे होनी चाहिए । मै भूल गया । फिर लॉकडाउन में पंकज के लाइव को देखा – एक वीडियो तो इस फेसबुक पर एक करोड़ से भी ज्यादा व्यू हैं । फिर लगा बात होनी चाहिए ।
फिर पवन भी बीच में आ गए । अपने कार्टूनिस्ट :))
आप पंकज के ट्विटर का वाल देखिएगा । ऐसे जैसे यह इंसान चकाचौंध की दुनिया में तो पहुंच गया लेकिन आत्मा अभी भी अपनी मिट्टी और उस मिट्टी से उपजे संस्कार में हैं । शायद , तभी मैंने थोड़ा टटोलना पसंद किया । जो तस्वीर में नजर आयी वही बातों में ।
मौलिकता पर भी बात हुई । हाल के दसक में मौलिकता उभर कर आई है । और इस मौलिकता में इतना दम है कि आज पंकज समुंदर को निहारते हुए अपने फ्लैट में है और एक अदना सा दालान भी अनजान को आकर्षित करता है ।
रचनात्मक दुनिया का जड़ ही मौलिकता है । कई इंटरव्यू में पंकज अपनी संघर्ष की कहानी सुनाते है , हर कलाकार या प्रसिद्ध इंसान सुनाता है लेकिन कई लोग डंडी मार देते हैं । बस उसे घोंटना मुश्किल हो जाता है । और आप पंकज को चबा चबा कर देखते हैं – हर एक रस के साथ :)) क्योंकि वहां शुद्धता है ।
अपने एक अग्रज से दो महीना पहले बात हो रही थी – बॉलीवुड पर – तो मैंने यही कहा था – बेसिक । पंकज को देखिए , उनका पेज फॉलो कीजिए – जो सबसे ज्यादा आकर्षित करेगी – वह यह है कि पंकज अपने बेसिक से थोड़ा भी नहीं हिले है , ना एक्टिंग में , ना अपने जीवन में । पंकज की आइक्यू हाई है , वो चीजों को पकड़ लेते हैं । ज़िद्दी भी है – तभी नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का इंतज़ार भी किए । और फिर आहिस्ते आहिस्ते …एक झंडा । लहराता हुआ ।
अंत में यही – सब भगवती की कृपा है और भगवती की कृपा बनी रहे । आप मौलिक बने रहें ।
शुभकामनाएं …
~ रंजन / DAALAANBLOG / 2020

अलाऊ और हाथी :))

“सलाम… बाबू”
~ इसी संबोधन के साथ अक्सर शाम को हमारे ग्रामीण अलाउद्दीन का फोन आता है 😊 हम बचपन में अलाउद्दीन को अलाऊ कहते थे । हमारे पंचायत के करीब 22 साल तक मुखिया / ग्राम प्रधान रहे अल्शेर मियां के 4/5 पुत्रों में से एक : अलाऊ 😊
: दरबार में करीब 200 साल तक हाथी रहा तो अल्शेर मियां का परिवार ही महावत रहा । पीढ़ी दर पीढ़ी । अंतिम हाथी 1989/90 में बिक गया । 67 हजार में । अलाऊ कहते हैं की मालूम नही क्या हड़बड़ी थी , 85 हजार का हाथी 67 हजार में मालिक लोग बेच दिया । अलाऊ को बहुत अफसोस क्योंकि अपने पिता अल्शेर मियां के मुखिया बनने के बाद , अलाऊ ही महावत रहे ।
~ अल्शेर मियां अपनी जवानी में राजा रजवाड़ा के यहां महावत थे , दरबार बुला लिया तो यहीं रह गए । छोटा कद और हिम्मती । मुखिया बनने के बाद अक्सर दरवाजे पर आते और उनका ड्यूटी होता था : बंदूक और रायफल साफ करना , सुखाना और भादो के महीना में बंदूक लेकर शिकार और हम बच्चे पीछे पीछे 😎 हमारी पीढ़ी तो कम या नहीं लेकिन पिता जी और चाचा की पीढ़ी अल्शेर मियां के पीछे पीछे बहुत पगलाया है 😀
: हम बच्चो के पसंदीदा अलाऊ होते थे । छोटा कद और गठीला शरीर । ग्रामीण मेला में एक साइज छोटा नया बनियान पहन वो अपने सीना को चौड़ा करते और बनियान चर्र चर्र करके फट जाता । सबसे बेहतरीन याद दशहरा के रोज का होता । हाथी सज के तैयार और अलाऊ नया कुर्ता पायजामा पहन आगे हाथी के सुंड के सहारे हाथी पर बैठते और हम सभी अजीन कजिन हौदा पर । गांव होते मठिया और फिर प्राण टोला होते हुए रेवतीथ होते हुए वापस घर । रास्ता में लोग भाई पट्टीदार तो नही लेकिन कई जगहों पर लोग सलाम करते । यह झूठ नही है । सच है । खासकर 150 एकड़ का प्राण टोला जो आजादी उपरांत हमारे ही जमीन पर बसाया गया । अब कोई पलट जाए तो क्या कहा जाए । 2019 में बाबा की बरखी पर एक एक आदमी टोला से आया था 🙏 नई पीढ़ी जो व्यवहार करे , हमे कोई शिकायत नहीं 🙏
~ तो 1990 में हाथी बिका और अलाऊ सर्कस पकड़ लिए । कहते हैं पूर्वोत्तर भारत छोड़ वो समस्त भारत घूमे । केरल ब्राह्मण का सर्कस था । शंकर नायर मालिक । सर्कस भी बंद हो गया तो अलाऊ अपने नए मालिक के यहां कई वर्ष तक मैनेजर रहे । केरल में । सौभाग्य की अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि और दुर्भाग्य की बहुत कम पढ़े लिखे ।
: केरल की कहानी वो कहते हैं 😊 कैसे उनके मालिक का सर्कस बंद हुआ तो उनके मालिक काजू और काली मिर्च की खेती करने लगे । कैसे मालकिन का बर्ताव और अलाऊ के बेटी के बियाह में 5 किलो काली मिर्च उनकी मालकिन अलग से बांध कर दी । 800 ग्राम ही खर्च हुआ 😀
~ नई पीढ़ी को हम क्या कहें ? लेकिन यह मुस्लिम टोला दो शताब्दी हमारे परिवार के साथ रहा । परिवार का महाजनी और जमींदारी का काम था । समस्त बिहार के मंझौले जमींदारों को पैसा जाता था । सवा छह फीट के कई मुस्लिम होते थे जो ढेकूआ में ही पैसा बांध वर्तमान गोपालगंज से लखनचन्द मोकामा तक पैदल ही चले जाते 😊 गफ्फार गांधी जैसे , लाठी हाथ में ।
~ सन 1957 में श्री बाबू अचानक से जमींदारी व्यवस्था खत्म किए । जमींदारी गया तो गया ही साथ में महाजनी में बहुत पैसा भी डूबा । गोमस्ता अब नए नायक थे । हम आर्थिक रूप से कमज़ोर हुए । बहुत कमज़ोर । सन 1980 के आसपास में जब पिता जी की पीढ़ी वापस नौकरी में आई तो मेरे बड़े परबाबा सभी लोगों को इकट्ठा कर सबकी तन्खाह पूछे , सभी का तन्खाह जोड़ वो मन ही मन बुदबुदाए की अब ठीक है , जमींदारी के बराबर नई पीढ़ी का तन्खाह हो गया । महाराज , स्थिति बहुत खराब हो गई थी , बड़े परबाबा तो धोती फाड़ कर पहनने लगे थे 😐 चीनी वाली चाय भी बंद ।
~ लेकिन पूर्वजों का आशीर्वाद की दरवाजे की रौनक हाल फिलहाल तक बनी रही । लेकिन कितना रौनक बनाइएगा ? जमाना बहुत बदल गया । बहुत । यह कोई सामाजिक क्रांति की बात नहीं बल्कि जमींदारी के नए स्वरूप की है । अब तो राजनीतिक शक्ति भी पिछड़ेपन की निशानी है । जिसके घर धंधा पानी है , उसी के दरवाजे हाथी और महावत है । शोभा तभी है जब थोड़ी बड़पन्नता भी है 😊
: अलाऊ फिर शाम को फोन करेंगे :
सलाम … बाबू 😊
~ रंजन , दालान / जुलाई , 2023

कलेजी / लीवर फ्राई

कलेजी फ्राई

कलेजी / लीवर फ्राई 😎
~ हालांकि परबाबा वाली पीढ़ी में घर में किसी ने नॉन वेज नही खाया लेकिन बाबा वाली पीढ़ी से लोग खाने लगे ।
: गांव में बाजार लगता था । जिसे हम हाट कहते है । बिहार के तिरहुत में इसे पेठिया भी कहा जाता है । भीड़ रहती थी । वहीं कोना में मांस मछरी भी । खस्सी कटाया तो थोड़ा ज्यादा कलेजी 😎
: दरवाजा या ओसारा में ईट के चूल्हे पर अलुमनियम के तसला में मटन भूंजा रहा है । भूंजा रहा है ❤️ सिलवट पर गरम मसाला पिसा रहा है । घूम फिर कर आइए तो एक छोटा पीस चखने के लिए मिला की मटन अभी पका है या नहीं टाइप । चखते चखते में आधा किलो मटन खत्म । अब एक आदमी थोड़े न चखेगा , घर के सभी पुरुष बारी बारी से चखेंगे 😂
~ इसी बीच हम बच्चो का काम की कलेजी को लकड़ी या लोहा के सिक में घुसा कर उसी ईट वाले चूल्हे में पकाना । शुद्ध आग में थोड़ा जला हुआ , फिर उसमे नमक इत्यादि मिला कर खाना ❤️
: हमारी याद में कलेजी को कभी तला नही जाता था । शुद्ध आग । जो लोग अल्कोहल के शौकीन है उनके लिए कलेजी से बढ़िया कोई और चखना नही क्योंकि इसमें आयरन होता है , अल्कोहल से खुद के लीवर को हुए नुकसान को यह ज्यादा प्रभावित होने से रोकता है ।
~ अब नई पीढ़ी बार बे क्यू और मालूम नही क्या क्या नाम देती है लेकिन हमारे बचपन में वही आग में पकाया हुआ हल्का जला हुआ कलेजी , नींबू के रस और नमक / गोल मिर्च के साथ ❤️
: उठिए , झोला लेकर पहुंचिए मटन बाजार । ऐ थोड़ा कलेजी ज्यादा देना 😎 इस वाक्य को बोलते वक्त आत्मा में जो सामंतवाद का लहर आता है वो लाल बत्ती में भी नही 😂
~ रंजन , दालान

अनुशान , प्रेम और अहंकार …

सामाजिक जीवन में सफलता अनुशासन से ही मिलती है लेकिन ऐसी कई सफलताओं को पाने के बाद ऐसे घोर अनुशासित लोगों को यह भ्रम भी हो जाता है की जीवन की सारी अनुभूतियां अनुशासन से ही प्राप्त हो जाएंगी ।
~ ऐसा मै नही मानता । भूखे पेट सोना भी एक अनुभूति है । और यह अनुभूति तब मिलेगी जब आपको अनुशासन तोड़ एक रात भूखे पेट सोना हो । उस खास अनुभूति को आप बिना अनुशासन तोड़ नहीं समझ सकते ।
~ लेकिन दूसरा तर्क यह भी है की हर रात कोई उसी अनुभूति को प्राप्त करने में भूखे पेट सोने लगे तो वह बहुत ही दुर्बल हो सकता है । यह भी सही बात है ।
: लेकिन मेरा तर्क है की जीवन में उस अनुभूति के लिए आपको अनुशासन तोड़ना ही पड़ेगा । अन्यथा , यह वह कैसा जीवन जहां सब कुछ तो है लेकिन भूखे पेट की अनुभूति नहीं है ।
~ जहां प्रेम है वहां अहंकार नहीं और जहां अहंकार है वहां प्रेम नही । अहंकार सामाजिक जीवन की जरूरत है । वर्षों पहले मेरी एक मित्र ने कहा था – जिन जिन संबंधों में उसने अपने अहंकार को समर्पित किया उन्ही संबंधों ने उसे पैर का पोंछा बना दिया । शायद , वैसे संबंध में उसका अहंकार जागृत हो गया होगा । तो कहने का मतलब इंसान अपने अहंकार को मारता है नही बल्कि प्रेम में अभिभूत होकर अपने अहंकार को सुला देता है । फिर जैसे ही उसे आदर या प्रेम की कमी महसूस होती है , उसका अहंकार वापस ज़िंदा या जाग जाता है । मतलब की इंसान बिना अहंकार रह ही नहीं सकता ।
: लेकिन इंसान की जरूरत प्रेम भी है । बड़े से बड़े अहंकारी को भी उसके कमज़ोर क्षण में अनकंडीशनल लव के लिए बिलखते देखा है । वक्त है । वक्त किसी के बाप का नहीं होता । वो आपके जीवन में अपने हिसाब से चलेगा । और वही इंसान का वक्त ठीक होते ही , उसको अब अनकंडीशनल लव की जरूरत नहीं होती । यह मानव स्वभाव अदभुत है ।
~ हाई स्कूल के दौरान एक मित्र था । प्रमोद । हम दिन भर साथ रहते । शाम को तो अवश्य ही । मेरे लिए उसकी भावनाएं पवित्र होती है । समर्पण था । लेकिन प्लस टू में नए मित्र बने और प्रमोद का साथ छूट गया । कई साल अपनी नई जिंदगी में उसकी कमी नही महसूस किया । लेकिन इधर अचानक से उसकी याद आने लगी । अब महसूस हो रहा है की उसकी भावनाएं मेरे लिए कितनी पवित्र थी और शायद आज भी होंगी । कुछ साल पहले उसके आवास की तरफ गया था , वो अपने चाचा के घर में रहता था । हिम्मत ही नहीं हुई की दरवाजा खटखटा कर पूछे की प्रमोद अब कहां है । खुद में ग्लानि हुई । हम तो नए मित्रों में कई वर्ष खोए रहे और जब कमज़ोर वक्त आया तो पवित्र भावना तलाश रहे हैं ।
: हम भी तो वही इंसान है जो ऊपर बाकी अहंकारिओं पर छिछा लेदर कर रहे हैं । हम कहा अलग है ? सारा खेल इसी भावनाओं का है । तभी तो गोरी हो या काली , लंबी हो या छोटी , मोटी हो या पतली , धनिक हो या गरीब – मां बस मां होती है क्योंकि उसकी भावनाएं हमारे लिए पवित्र होती हैं ।
~ इस रिश्ते को हटा दें तो बाकी के सभी रिश्ते थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी पर चलते हैं । हा हा हा । हमसे कोई मजबूत मिला तो अहंकार झुका दिए और कमज़ोर मिला तो उसको अपना ताकत दिखा दिए । हा हा हा ।
~ मुश्किल है मानव स्वभाव को समझना या यह एक विशुद्ध फॉर्म्युला पर आधारित है । कुछ है जो खुशी भी देता है और गम भी ।
: रंजन , दालान / 08.06.2021

सभ्यता और संस्कृति …

दिनकर लिखते हैं :
हर सुसभ्य आदमी सुसंस्कृत ही होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता; क्योंकि अच्छी पोशाक पहनने वाला आदमी भी तबीयत से नंगा हो सकता है और तबीयत से नंगा होना संस्कृति के खिलाफ बात है। और यह भी नहीं कहा जा सकता कि हर सुसंस्कृत आदमी सभ्य भी होता है, क्योंकि सभ्यता की पहचान सुख-सुविधा और ठाट-बाट हैं। मगर बहुत-से ऐसे लोग हैं जो सड़े-गले झोंपड़ों में रहते हैं, जिनके पास कपड़े भी नहीं होते और न कपड़े पहनने के अच्छे ढंग ही उन्हें मालूम होते हैं, लेकिन फिर उनमें विनय और सदाचार होता है, वे दूसरों के दुख से दुखी होते हैं तथा दुख को दूर करने के लिए वे खुद मुसीबत उठाने को भी तैयार रहते हैं।
यहीं एक यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि संस्कृति और प्रकृति में भी भेद है। गुस्सा करना मनुष्य की प्रकृति है, लोभ में पड़ना उसका स्वभाव है; ईर्ष्या, मोह, राग द्वेष और कामवासना-ये सबके सब प्रकृत के गुण हैं। मगर प्रकृति के ये गुण बेरोक छोड़ दिए जाएँ तो आदमी और जानवर में कोई भेद नहीं रह जाए। इसलिए मनुष्य प्रकृति के इन आवेगों पर रोक लगाता है और कोशिश करता है कि वह गुस्से के बस में नहीं, बल्कि गुस्सा ही उसके बस में रहे; वह लोभ, मोह, ईर्ष्या द्वेष और कामवासना का गुलाम नहीं, बल्कि ये दुर्गुण ही उसके गुलाम रहें और इन दुर्गुणों पर आदमी जितना विजयी होता है, उसकी संस्कृति भी उतनी ही ऊँची समझी जाती है।
संस्कृति हमारा पीछा जन्म-जन्मान्तर तक करती है। अपने यहाँ एक साधारण कहावत है कि जिसका जैसा संस्कार है, उसका वैसा ही पुनर्जन्म भी होता है। जब हम किसी बालक या बालिका को बहुत तेज पाते हैं, तब हम अचानक कह उठते हैं कि यह पूर्वजन्म का संस्कार है। संस्कार या संस्कृति असल में शरीर का नहीं, आत्मा का गुण है और जबकि सभ्यता की सामग्रियों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छूट जाता है, तब भी हमारी संस्कृति का प्रभाव हमारी आत्मा के साथ जन्म-जन्मान्तर तक चलता रहता है।
निष्कर्ष यह कि संस्कृत सभ्यता की अपेक्षा महीन चीज होती है। यह सभ्यता के भीतर उसी तरह व्याप्त रहती है जैसे दूध में मक्खन या फूलों में सुगन्ध। और सभ्यता की अपेक्षा यह टिकाऊ भी अधिक है, क्योंकि सभ्यता की सामग्रियाँ टूट-फूटकर विनष्ट हो सकती हैं, लेकिन संस्कृति का विनाश उतनी आसानी से नहीं किया जा सकता।