अभिभावक होना …

अभिभावक होना …

इस जीवन में कई मुश्किल काम करने होते हैं – उन्ही में से एक है – ‘पैरेंटिंग’ ! अब इस उम्र में जब बच्चे टीनएजर हो चुके हैं – इसका दबाब महसूस होता है ! हर एक पीढी अपने हिसाब से – अपने दौर की नज़र से – अपनी बेसिक क्लास की समझ से ‘पैरेंटिंग’ करना चाहती है ! जैसे मेरे माता पिता जिस जमाने से आते थे – वहां ‘नौकरी’ ही बहुत बड़ी चीज़ थी और मै जिस तरह की विचारधारा और एक्सपोजर ले रहा था – वहां एक जबरदस्त कनफ्लिक्ट था – जीवन मतलब ‘आदर’ और किसी भी तरह की नौकरी से किसी के जीवन का भरण पोषण हो सकता है – उसे ‘आदर’ कैसे मिल सकता है – यह बात मेरी समझ से परे था ! संभवतः मेरे बचपन में मेरे दादा जी का प्रभाव था जो ‘पोलिटिक्स’ में थे और मेरे पिता जी – मुझपर से अपना लगाम ढीली करने के मूड में नहीं थे – संभवतः आज भी नहीं – उन्हें आज भी लगता है – जिस दिन लगाम ढीली हुई – मै ‘हेड ओं कोलिजन’ कर बैठूँगा…हा हा हा !
खैर …अब ज़माना बहुत बदल चुका है …बच्चे जन्म से ही ग्लोबल एक्सपोजर ले रहे हैं …जो मेट्रो लिविंग हमारे कल्पना में बसती थी …वो इलेक्ट्रोनिक माध्यम से उनकी नज़र में चौबीस घंटे हैं …जो गीत हम रेडिओ पर सुने ..वो किसी भी पल उनके उंगली के इशारे इंटरनेट के माध्यम से है ..! सबसे बड़ी बात – “एक प्लेन / समतल प्लेटफार्म’ की तरह समाज हो चुका है – जहाँ न कोई बड़ा है और ना ही कोई छोटा है – यह इस शताब्दी की सबसे बड़ी सामाजिक परिवर्तन है ! हम नेहरु और मुस्तफा कमालपाशा को पढ़ बड़े हुए – हमारे बच्चे स्टीव जॉब्स और फ्लिप्कार्ट / अमेज़न की सफलता पढ़ रहे हैं ! दो वक़्त की रोटी अब दिक्कत नहीं रही – मेरे गुरु और भारत के मशहूर प्रोफ़ेसर स्व० चन्द्रशेखर झा ( भूतपूर्व आईआईटी डाइरेक्टर एवं बीएचयू वाईस चांसलर) ने करीब दस साल पहले कहा था – तुम एक शिक्षक हो – तुम्हारे विद्यार्थी तीस की उम्र तक लगभग छः देशों के नागरिक के साथ काम कर चुके होंगे – जिन गोरों को देख तुम आँखें बड़ी कर लेते हो – तुम्हारे बच्चे उनके साथ न्यूयार्क के किसी रेस्त्रां में – किसी वीकएंड अपनी शाम बिता रहे होंगे – उन गोरों के बराबर कांफिडेंस के साथ !
अब इस माहौल में – कैसी ‘पैरेंटिंग’ हो – एक अज़ीज़ मित्र ने कहा – औलाद के जीने खाने के लिए अकूट धन है – बस एक ही चीज़ सिखानी है – इस भीड़ में कैसे रहा जाए – और खुद की भावनाओं को किसी चोट से कैसे बचाया जाय – क्योंकी यह ‘इंसान की प्रकृती’ से जुड़ा है ! उसके कहने का एक ही मतलब था – अपने बच्चे के अन्दर ‘ फेक और असल’ की पहचान करने की क्षमता बढ़ाना !
कई बार बेहतर बेहतर पैरेंटिंग के चक्कर में – हमारी पिछली पीढी – हमें इतना ज्यादा सुरक्षा कवच पहना दी – यह भूलते हुए – एक दिन हमें उसी समाज में जाना है – जिससे बचा के हमारी परवरिश की गयी – फिर हमपर जो गुज़री वो हम ही जाने – सिखने के चक्कर में – हम अपनी मासूमियत कब खो बैठे – पता ही नहीं चला !
सबसे बड़ी मुश्किल है – बेटीओं की पैरेंटिंग – अब उनपर जबरदस्त बोझ आ चुका है – उन्हें ना सिर्फ अपनी ‘प्रकृती’ के हिसाब से जीवन जीना है बल्की अपने जीवन के हमसफ़र के साथ कदम भी मिलाना है – उसे अपने क्लास में टॉप कर के बढ़िया प्रोफेशनल / नौकरी भी पकडनी है – अपनी कोमलता को भी बरक़रार रखना है – और माँ भी बनना है – हाँ …सुबह का नास्ता भी तो तैयार करना है – अपनी मेट्रो रेल को पकड़ने के पहले – देर शाम थकने के बाद – चाय बनाना भी तो उनके जिम्मे होगा …अगर हमसफ़र ने कोई नया फ़्लैट खरीदा – लोन में आधा का हिस्सेदार भी बनना है …और न जाने …क्या क्या …वीकएंड में बच्चों का होमवर्क भी !
लडके तो वही थे …जो कल थे …!
पैरेंटिंग मुश्किल हो चुकी है …जो कुछ हम अपने अनुभव से सिखायेंगे …बच्चे उससे बीस साल आगे की सोच में जियेंगे …लगाम कब ढीली रखनी है …कब जोर से पकड़ना है …कुछ तो हमें भी सिखना है …:))
बस यूँ ही …कई आयामों को एक सांस में …लिखते हुए …:))
थैंक्स …:))
~ रंजन /दालान

2 comments

Rajeev

I like reading all of writing quietly but you wrote something that caught my eyes and could not stop from commenting . Betiyo ki parvarish, why so , I was expecting ki aap likhenge Beto sikhana hoga ki subah ka nashta kaise banaye and Shaam ki chai v . I think we need to change this mentality if you are truly thinking for changing society.

Beingcreative

I second you Rajeev ji ……
राजनराज जी मुझे आपका लेख बहुत अच्छा लगा , आपने सच्चाई लिखी है परंतु मैं आपके एक वाक्य से सहमत नहीं हूं कि लड़के तो जैसे थे वैसे ही रहेंगे , आज की पैरेन्टिंग इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हम अगर लड़कियों को लड़कों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने की शिक्षा दे रहे हैं तो लड़कों को भी घर संभालने की शिक्षा देनी जरूरी है। हम अभिभावक ही ये परिवर्तन ला सकते हैं ।

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